गुवाहाटी भाग-६

चारों तरफ़ हरियाली, उसमें से गुज़रते हुए रास्तें। यह नज़ारा है ‘मानस नॅशनल पार्क’ का। यहाँ दाखिल होने के बाद कई घण्टों तक हम इन्हीं हरे भरे रास्तों से गुज़रते रहते हैं। इन्हीं रास्तों से हम मानस नॅशनल पार्क की सैर करते हैं।

काझीरंगा की तरह ‘मानस नॅशनल पार्क’ को देखने के लिए हम हाथी की सवारी कर सकते है या जीप या उसके जैसे किसी वाहन में बैठकर हम इस पार्क को देख सकते है। इसीके साथ यहा सैर करने के लिए एक और विकल्प भी उपलब्ध है, ऐसी जानकारी मिली है, जो है यहाँ से बहनेवाली मानस नदी में से सफ़र करना।

इस पार्क का नाम जिससे पड़ा वह ‘मानस’ नदी दूर दूर तक फैली हुई है। उसकी एक तरफ़ घना जंगल है, वहीं दूसरी तरफ़ दूर से दिखायी देनेवाली हिमालय की पहाड़ी श्रृंखला है। कभी कभी तो दोनों तरफ़ घना जंगल ही नज़र आता है।

मानस नदी के सफ़र में यह नदी कहीं उछलती कूदती दिखायी देती है, तो कहीं एकदम धीमी और शान्त। कभी हरा भरा जंगल दिखायी देता है, तो कभी हिमालय की पहाड़ी। माथे पर आसमान की नीलिमा, सारे माहौल में भरी हुई जंगल की खुशबू और शीतलता। इन सब बातों को महसूस करते हुए हम मानस नदी में से आगे बढते रहते हैं। देखिए, यह सोचकर ही हमें कितनी खुशी महसूस हो रही है ना!

‘मानस नॅशनल पार्क’ को देखने के लिए मानस नदी में से कुछ दूरी तक सैर की जा सकती है।

काझीरंगा की तरह यह नॅशनल पार्क भी मानसून की अवधि में सैलानियों के लिए बंद रहता है।

‘मानस नॅशनल पार्क’ में बहनेवाली नदियाँ हिमालय की पहाड़ी श्रृंखलाओं के सान्निध्य के कारण अपने साथ तरह तरह की मिट्टी ले आती हैं और इसी मिट्टी के कारण यहाँ के जंगल फ़लते फूलते हैं। यहाँ पर कई तरह की घास रहने के बावजूद भी घने हरे भरे पेड़ यही यहाँ की खासियत है। इसी वजह से हमारा यहाँ का सफ़र इन हरे भरे पेड़ों के बीच से होता है।

‘मानस नॅशनल पार्क’ में दाखिल हुए अब काफ़ी वक़्त बीत चुका है। चलिए, तो अब यहाँ के पशु-पक्षियों का निरीक्षण भी किया जाये। लेकिन उसके लिए यहाँ हमें साथ लायी हुई दूरबीन का भी इस्तेमाल करना पड़ सकता है।

‘मानस नॅशनल पार्क’ के पशु-पक्षिओं का ज़िक्र तो पिछले लेख के अन्त में हम कर ही चुके हैं। यहाँ पर जानवरों की ५५ प्रजातियाँ, रेंगनेवाले वर्ग के प्राणियों की ५० प्रजातियाँ और पंछियों की ३८० प्रजातियाँ पायी जाती हैं।

यहाँ पर हाथी, गिने चुने र्‍हायनो, क्लाऊडेड लेपर्ड, स्लोथ बेअर, लेपर्ड के कुछ प्रकार भी काझीरंगा की तरह पाये जाते हैं। साथ ही ‘गोल्डन लंगूर’ यह यहाँ की खासियत है।

१९८० के दशक में ही इस नॅशनल पार्क को ‘टायगर रिझर्व्ह’ का दर्जा दिया जाने के कारण यहाँ पर बाघ भी हैं।

रूफ़ टर्टल’ नाम का यहाँ पाया जानेवाला कछुआ भी खास माना जाता है। ‘हिस्पिड हेर’ यानी एक क़िस्म का असम में पाया जानेवाला खरग़ोश।

गोल्डन लंगूर यानी सुनहरे रंग का बंदर यह केवल यहाँ की खासियत है। अरे, ज़रा देखिए तो, वह गोल्डन लंगूर हमारे सामने ही इस पेड़ से उस पेड़ पर छलाँग लगाने की तैयारी में है।

१९५० के आसपास किसी अनुसंधानकर्ता को यह गोल्डन लंगूर यहाँ पर दिखायी दिया। इसका चेहरा हालाँकि अन्य बंदरों की तरह ही होता है, मग़र उसके बदन पर सुनहरे रंग के बाल रहते हैं। अब इस सुनहरे रंग की छटा हर बंदर में थोड़ी बहुत कम ज़्यादा हो सकती है।

वनस्पतियों के विभिन्न हिस्सों को खानेवाले ये बंदर ऊँचें पेड़ों पर रहते हैं। इनकी पूँछ बहुत लंबी रहती है और इसीके सहारे वे एक पेड़ से बड़ी आसानी से दूसरे पेड़ पर छलाँग लगाने के बाद स्वयं को सन्तुलित करते हैं।

प्रायः ये गोल्डन लंगूर झुण्ड में ही रहते हैं। एक झुण्ड में कम से कम ८ बंदर रहते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा ५० बंदर भी हो सकते हैं।

यहाँ की कुछ प्रजातियों का अस्तित्व आज खतरे में है। यहाँ पर ऊपर वर्णित प्राणियों के साथ साथ बारहसिंगा, जंगली बैल, हिरन की जाति का एक छोटा पशु, चीतल हिरन (जिसकी खाल पर सफ़ेद चित्तियाँ होती हैं), बिल्लियों के विभिन्न प्रकार भी पाये ज़ाते हैं। इनमें से सुनहरी रंग के बालोंवाली बिल्लियाँ यहाँ की खासियत हैं।

चलिए, अब इतनी देर तक घूमने के बाद थोड़ी देर तक विश्राम करना ज़रूरी है। तो फिर क्यों न असम की चाय पीकर थोड़ासा आराम किया जाये!

चाय’ यह नाम सुनते ही कईयों को फुर्ती आ जाती है, कईयों को तो बहुत खुशी होती है। सारांश ‘चाय’ यह एक काफ़ी जनप्रिय पेय है, ऐसा हम कह सकते है।

असम की चाय दुनिया में अव्वल मानी जाती है और असम यह चाय के उत्पाद में अव्वल प्रदेश माना जाता है।

असम में चाय की खेती की शुरुआत किस तरह हुई, इसका इतिहास बड़ा रोचक है।

दर असल चाय को ‘कॅमेलिया सिनेन्सिस’ इस शास्त्रीय नाम से जाना जाता है। असम में पायी जानेवाली चाय की प्रजाति इससे थोड़ी सी हटकर है और इसीलिए उसे ‘कॅमेलिया सिनेन्सिस असामिका’ यह खास नाम दिया गया है।

सन १८२३ की बात है। तब ‘रॉबर्ट ब्रुस’ नाम का कोई खोजकर्ता इस इला़के से गुज़र रहा था। यहाँ के इला़के में उगनेवाले किसी पौधे की पत्तियों से चाय जैसा पेय बनाकर यहाँ के निवासी उसे पीते हैं, यह उसने देखा। फिर कुतूहलपूर्वक उस पौधे के पत्तों एंव बीजों को उसने अनुसन्धान प्रशाला में भेज दिया। लेकिन रॉबर्ट ब्रुस के निधन से यह कार्य खण्डित हो गया। आगे चलकर १८३० की शुरुआत में उसीके भाई ने इस इला़के से गुज़रते हुए इसी पौधे के पत्तों और बीजों को संग्रहित कर अनुसंधान प्रशाला में भेज दिया। तब हुए अनुसन्धान में यह बात सामने आ गयी कि यह चाय की ही एक क़िस्म है और असम के चाय के पौधे को उसका खास नाम मिला।

साधारणतः १८४० के आसपास यहाँ पर चाय की खेती करना शुरू हो गया।

असम की चाय अपने रंग, स्वाद, खुशबू के लिए मशहूर है। यहाँ की मिट्टी और जलवायु के कारण उसमें यह खास बात है। भरपूर बारिश और उष्मा एवं अधिक आर्द्रता इन सब का परिणाम इसे खास बनाने में अवश्य ही होता होगा।

हमारे भारत में असम, दार्जिलिंग और निलगिरी में प्रमुख रूप से चाय की खेती की जाती है। इनमें से दार्जिलिंग और निलगिरी में चाय की फ़सल ऊँची जगहों पर ली जाती है।

असम में पाये जानेवाले चाय के पौधे के पत्तें गहरे हरे रंग के, कुछ चमकीलें एवं चौडें होते हैं। चाय के पत्तों को हाथों से तोड़ा जाता है। इस चाय के पौधे को सफ़ेद रंग के फूल आते हैं, ऐसा भी पढने में आया है।

‘ब्रेकफास्ट टी’ यह असम के चाय की पहचान है।

असम में साल में दो बार चाय की फ़सल ली जाती है। इनमें से पहली फ़सल को ‘फ़र्स्ट फ्लश’ कहते हैं, जिसके पत्तें मार्च के अन्त में तोड़े जाते हैं। ‘सेकंड फ्लश’ को ‘टिप्पी टी’ इस विशेष नाम से भी जाना जाता हैं और वह फ़र्स्ट फ्लश से अच्छे दर्जे का माना जाता है।

असम में चाय का उत्पाद सालाना लगभग ६८० हज़ार किलो है, ऐसा कहा जाता है।

देखिए, बातचीत में हमारे प्याले की चाय खत्म भी हो गयी और चाय की कहानी भी।

अब गुवाहाटी शहर की ओर प्रस्थान करना चाहिए। चलिए, तो चलते हैं गुवाहाटी शहर।

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