८१. अंतिम संघर्ष शुरू….

युनो ने हालॉंकि ‘पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र’ इस संकल्पना को मान्यता दी; लेकिन रास्ते में काफ़ी मुश्किलें आनेवालीं थीं और इसकी डेव्हिड बेन-गुरियन को अच्छीख़ासी कल्पना थी| इसी कारण गत कुछ महीनों से हॅगाना का संख्याबल एवं शस्त्रबल बढ़ाने के लिए वे जानतोड़ कोशिशें कर रहे थे| अहम बात यानी हॅगाना यह केवल एक भूमिगत सशस्त्र संगठन न रहते हुए, वह बाक़ायदा एक लड़ाक़ू, अनुशासनबद्ध सेना बनें, इसके लिए भी बेन-गुरियन के प्रयास शुरू थे|

उसके अनुसार फिर हॅगाना के सैनिकों की स्वतंत्र टुकड़ियॉं स्थापन कर विभिन्न भागों में भेजीं गयीं| यहॉं तक कि जेरुसलेम में भी शस्त्रसंग्रह और मनुष्यबल आपूर्ति-वितरण बेसेस निर्माण किये गये| दूसरे विश्‍वयुद्ध में जो ज्यूधर्मीय सैनिक ब्रिटिशों की सेनाटुकड़ियों सहित जर्मन सेनाओं के खिलाफ़ लड़े थे, उनके अनुभव का फ़ायदा अन्य सैनिकों को मिलें इसके लिए उन्हें हॅगाना के विभिन्न सेनाटुकड़ियों में बॉंटा गया| गोपनीयता रखने के लिए हथियारों से लेकर इन्सानों तक सभी को सांकेतिक नाम दिये गये थे| ज़़ख्मी सैनिकों की सेवा-शुश्रुषा करनेवाले अस्पतालों का निर्माण किया जाकर, उनमें प्रशिक्षित वैद्यकीय कर्मचारीवर्ग की भर्ती शुरू की गयी| पॅलेस्टाईन प्रांतस्थित ज्यूधर्मियों का बाल-युवा-मध्यमवयीन ऐसा वर्गीकरण किया जाकर उसके अनुसार उन्हें सैनिकी अथवा अन्य उपयोगी प्रशिक्षण दिया जा रहा था|

२९ नवम्बर १९४७ को युनो ने ‘वह’ ऐतिहासिक निर्णय किया – ‘पॅलेस्टाईन प्रांत के विभाजन का’! ‘अरब राष्ट्र’, ‘ज्यू-राष्ट्र’ और युनो के नियंत्रण में रहनेवाला जेरुसलेम तथा आसपास का संवेदनशील भाग, ऐसे तीन प्रांतों में यह विभाजन किया जानेवाला था| लेकिन हैफा बंदर को दुनियाभर से पॅलेस्टाईन प्रांत में स्थलांतरित होना चाहनेवाले ज्यूधर्मियों के लिए बतौर पॅलेस्टाईनप्रवेश का मुक्तद्वार रखा जानेवाला था|

पॅलेस्टाईन प्रांत के विभाजन के युनो के निर्णय के तहत हैफा बंदरगाह को, दुनियाभर से पॅलेस्टाईन प्रांत में स्थलांतरित होना चाहनेवाले ज्यूधर्मियों के लिए पॅलेस्टाईनप्रवेश के मुक्तद्वार के रूप में रखा जानेवाला था|

पॅलेस्टाईनस्थित तक़रीबन १२ लाख अरब लोकसंख्या को तथा अन्य अरब राष्ट्रों को भी पॅलेस्टाईन प्रांत का विभाजन ही मान्य नहीं था| वे समूचे पॅलेस्टाईन प्रांत को ‘अरब राष्ट्र’ घोषित करने के अलावा अन्य किसी भी विकल्प को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थे| अतः उन्होंने सीधे सीधे इस फ़ैैसले को ठुकरा दिया और इस ज्यू-राष्ट्र को जड़ से मिटा देने के अपने ईरादें घोषित किये|

पॅलेस्टाईन प्रांत के ज्यूधर्मियों की संख्या अब ६ लाख पर, यानी कुल जनसंख्या के एक-तिहाई हिस्से पर पहुँच गयी थी| उन्हें मजबूरन् तत्त्वतः विभाजन को मान्यता देनी पड़ी थी| लेकिन युनो के इस निर्णय के तहत उन्हें बहाल किये गये भाग पर वे कुछ नाखूश थे, क्योंकि इस विभाजन में उनके हिस्से में प्रायः रेगिस्तानी प्रदेश ही आया था| लेकिन उससे भी ज़्यादा, ज्यूधर्मियों के लिए बहुत ही प्राणप्रिय शहर होनेवाले जेरुसलेम का समावेश इस प्रस्तावित ज्यू-राष्ट्र में होनेवाला नहीं है, इस बात का दुख उन्हें अधिक था|

लेकिन इसके उपलक्ष्य में, ‘पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र’ इस उनकी संकल्पना को मूर्तरूप मिलने जा रहा था और वह भी जागतिक सत्ताओं के समर्थन के साथ; इसलिए हालॉंकि इर्गुन, लेही जैसे जहाल संगठनों का इस विभाजन को विरोध था (‘संपूर्ण पॅलेस्टाईन प्रांत ज्यूधर्मियों का ही है’), मग़र फिर भी ‘ज्युईश एजन्सी’ के साथ अधिकांश ज्यूधर्मियों ने – ‘पहले जो मिल रहा है, उसे तो ले लेते हैं| बाक़ी का बाद में देखा जायेगा’ ऐसा विचार करके इस विभाजन के लिए ‘हॉं’ कह दी|

लेकिन पॅलेस्टाईन प्रांत के अरब इतनी आसानी से ज्यू-राष्ट्र का निवाला ज्यूधर्मियों के मुँह में जाने नहीं देंगे, इसका प्रत्यंतर इस निर्णय के बाद तुरन्त ही आया|

इस निर्णय के बाद तुरन्त ही पॅलेस्टाईन प्रांत की भूमिगत अरबी टोलियों ने सर्वत्र ज्यू-बस्तियों पर हमलें करना शुरू किया| जेरुसलेम के ग्रँड मुफ्ती अल्-हुसैनी को हालॉंकि पॅलेस्टाईनप्रवेशबंदी थी, लेकिन वह बाहर से पॅलेस्टाईन प्रांत के अरबों को – ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ सशस्त्र जंग छेड़ने के लिए उक़सा ही रहा था|

युनो के फ़ैसले के बाद अल्-हुसैनी के समर्थकों ने, झायॉनिझम के लिए अनुकूल मतप्रदर्शन करनेवाले ‘पॅलेस्टाईन पोस्ट’ अख़बार के ऑफ़िस को बनविस्फोट का लक्ष्य बनाया|

युनो के इस प्रस्ताव के दूसरे ही दिन एक आठ लोगों की अरबी टोली ने, ज्यूधर्मीय प्रवास कर रहीं दो बसेस पर हमला कर सात ज्यूधर्मियों को मार दिया और अन्य कुछ लोगों को ज़़ख्मी किया| जवाब के रूप में इर्गुन और लेही के सदस्यों ने अरब बस्तियों में बॉंबस्फोट कराये| उसपर अल्-हुसैनी के समर्थकों ने, झायॉनिझम को अनुकूल मतप्रदर्शन करनेवाले ‘पॅलेस्टाईन पोस्ट’ जैसे अख़बार के कार्यालय को, ज्यूबस्तियों में स्थित बिझी मार्केट्स को, ज्युईश एजन्सी के ऑफिसेस को कारबॉंब्स जैसे साधनों से लक्ष्य बनाया| वहीं, जवाब के तौर पर इर्गुन के सदस्यों ने, कैरो से आनेवाले रेल्वेमार्ग पर बारुदी सुरंगों के विस्फोट से रेलगाड़ी को उड़ाकर उसके अरब यात्रियों को मार दिया| इस तरह दोनो पक्ष एक-दूसरे के कृत्यों का बदला लेते रहे और यह दावानल पॅलेस्टाईन प्रांत भर में धधकता ही रहा|

दरअसल ब्रिटीश सेना पॅलेस्टाईन प्रांत से चली जाने की अंतिम तारीख अब भी दूर थी; अर्थात् पॅलेस्टाईन प्रांत के नागरिकों के जान-माल की रक्षा की ज़िम्मेदारी अभी भी ब्रिटन के ही कन्धों पर थी| लेकिन अब पॅलेस्टाईन प्रांत में यत्किंचित भी दिलचस्पी न बचे हुए; दरअसल पॅलेस्टाईन प्रांत से अपना बोरिया-बिस्तरा उठाकर निकल जाने की ही तैयारी में लगे हुए ब्रिटिशों ने इस सारे घटनाक्रम को प्रायः अनदेखा ही कर दिया और जहॉं आत्यंतिक ज़रूरत आ पड़ी, वहीं केवल हस्तक्षेप किया|

इस कारण अपने खुद की रक्षा की सारी ही ज़िम्मेदारी अब ज्यूधर्मियों पर ही थी| लेकिन बेन-गुरियन की दूरंदेशी के कारण अब हॅगाना के सदस्य संघर्ष के लिए मानसिकदृष्टि से भी तैयार थे और हथियारों से सुसज्जित भी थे| उन्होंने इस अरबी आक्रमण का सफलतापूर्वक प्रतिकार करने की शुरुआत थी| लेकिन यह सिविल वॉर कुछ ही समय में दावानल की तरह समूचे पॅलेस्टाईन प्रांत में फैल गया|

एक-दूसरे की बस्तियॉं होनेवाले भागों में उन बस्तियों पर शत्रुपक्ष द्वारा हमले किये जाना, यह तो आम बात ही बन गयी| लेकिन जेरुसलेम, हैफा जैसे स्थानों में, जहॉं ज्यूधर्मीय और अरब ऐसे दोनों भी अलग अलग बस्तियॉं बनाकर नहीं, बल्कि एकसाथ ही रह रहे थे, वहॉं पर व्यक्तिगत रूप में हिंसाचार की मात्रा अधिक थी|

इस नागरीयुद्ध में ज्यूधर्मियों का संख्याबल कम पड़ रहा है, यह देखने के बाद बेन-गुरियन ने, सैनिकी प्रशिक्षण हर एक ज्यूधर्मीय के लिए (पुरुष एवं महिलाएँ) बंधनकारक किया|

उसके बाद अगला कदम बढ़ाते हुए अल्-हुसैनी के समर्थकों ने जेरुसलेमस्थित ज्यूधर्मियों की नाकाबंदी की; यानी उनतक अनाज-पानी बिलकुल भी न पहुँचें ऐसी व्यवस्था की| इसपर ज्यूधर्मियों ने जालीबंद सशस्त्र गाड़ियों के ज़रिये उनतक अनाज-पानी पहुँचाने की कोशिश की| वह हालॉंकि शुरू शुरू में छोटी मात्रा में क़ामयाब हुआ, मग़र फिर भी हुसैनी-समर्थकों की भारी तादाद के कारण और कड़े प्रतिकार के कारण धीरे धीरे इस ऑपरेशन में शामिल ज्यूधर्मीय एक के बाद एक मारे जाकर उनकी संख्या घटती गयी|

लेकिन डेव्हिड बेन-गुरियन ने हार नहीं मानी| उन्होंने हालातों का जायज़ा लेते हुए, उसके अनुसार हॅगाना का पुनर्गठन किया| मुख्य बात, ज्यूधर्मियों का संख्याबल कम पड़ रहा है, यह देखकर अब उन्होंने सैनिकी प्रशिक्षण हर एक ज्यूधर्मीय (पुरुष एवं महिलाएँ) के लिए बंधनकारक किया|

ऐसी स्थिति में १९४७ साल ख़त्म होकर १९४८ साल शुरू हुआ| लेकिन हालातों में यत्किंचित भी सुधार न होते हुए, उल्टी वह बिगड़ती ही चली जा रही थी|(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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