उत्सर्जन संस्था – ३

आज के लेख में हम थोड़ा पीछे जानेवाले हैं। मूत्र उत्सर्जन संस्था में सम्मिलित अवयवों की बाहरी एवं भीतरी रचना पर प्रकाश डालनेवाले है। साथ ही साथ मूत्रपिंडों को होनेवाली रक्त की आपूर्ति और अंतर्गत रक्तप्रवाह की जानकारी लेनेवाले हैं।

हमारे दोनों मूत्रपिंड पेरिटोनिअम की थैली के बाहर, पीठ की स्नायु से बंधे होते हैं। प्रौढ़ व्यक्ति में प्रत्येक मूत्रपिंड का वजन १५० ग्राम होता है। मूत्रपिंड साधारणत: घेवडे के बीज जैसा दिखाई देता है। प्रत्येक मूत्रपिंड के मध्य भाग में एक गड्ढा होता है, जिसे मूत्रपिंड का हायलम (Hilum) कहते हैं। मूत्रपिंडों को रक्त की आपूर्ति करनेवाली आरटरी, रक्त को प्रवाहित करनेवाली वेन, लिम्फ को प्रवाहित करनेवाली नलिका और मूत्रपिंडों से मूत्र को प्रवाहित करनेवाली मूत्रनलिका इत्यादि सभी अवयव इस हाइलम में आते-जाते रहते हैं।

मूत्रपिंडों के अंतरंगों को दो विभागों में बांटा जाता है। बाहरी भाग को कॉर्टेक्स तथा अंदरूनी भाग को मेड्युला कहते हैं। मूत्रपिंडों में पेशाब का निर्माण करनेवाले अतिसूक्ष्म घटक होते हैं, इन्हें नेफ्रॉन कहते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन स्वतंत्र रूप से पेशाब बनाता है। प्रत्येक मूत्रपिंड में ऐसे दस लाख नेफ्रॉन होते हैं। नेफ्रॉन्स कभी भी पुर्नजीवित नहीं होते। बीमारी, किसी भी प्रकार का जख्म इत्यादि कारणों से नेफ्रॉन्सों के नष्ट हो जाने के बाद मूत्रपिंडों में नेफ्रॉन्स की संख्या कम होती जाती है। बढ़ती उम्र के साथ भी यह संख्या कम होती जाती है। चालीस साल की उम्र के बाद प्रति दस वर्षों में नेफ्रॉन्स की संख्या १० प्रतिशत कम होती जाती है। परंतु इससे जीवन में कोई भी बाधा नहीं आती।

प्रत्येक नेफ्रॉन को दो भागों में बांटा जाता है। पहले भाग को ग्लोमेरूलस कहते हैं। यह भाग केशवाहनियों का बना होता है। इन्हें ग्लोमेरूलर केशवाहनियाँ कहते हैं। यहाँ पर रक्त छाना (filtered) जाता है और उसमें से बड़ी मात्रा में द्रव बाहर निकाल दिया जाता है। ग्लोमेरूलस के चारों ओर एक आवरण होता है। इसे बौमन्स कॅपसूल कहते हैं। रक्त में से छाना गया द्रव पहले इस कॅपसूल में जमा होता है। यहाँ से यह द्रव (पेशाब) नेफ्रॉन के दूसरे भाग में प्रवेश करता है। नेफ्रॉन का दूसरा भाग यानी Renal Tubules अथवा मूत्रपिंडों की छोटी-छोटी नलिकायें। मूत्र पहले प्रॉक्लिमल ट्यूब में प्रवेश करता है। नलिका का यह भाग मूत्रपिंड के कार्टेक्स में होता है। आगे चलकर यह मूत्र लूप ऑफ हेन्ले में पहुँचता है। ये हेन्ले के लूप आधे से ज्यादा मेड्युला में होते हैं। इस लूप का नीचे जानेवाला भाग, लूप और ऊपर आनेवाला भाग, ऐसे तीन भाग होते हैं। इनमें से नीचे जानेवाला भाग, लूप और ऊपर आनेवाला भाग शुरू में सभी पतले (thin) होते हैं। इसी लिए इन्हें लूप का thin भाग कहते हैं। लूप का ऊपर आनेवाला शेष भाग मोटा होता है। इसे Thick segment कहते हैं। इस मोटे भाग के बाद एक छोटा कठोर भाग आता है जिसे ‘maculadensa’ कहते हैं। उसके बाद शुरू होनेवाले भाग को डिस्टल ट्युबल कहते हैं।

डिस्टल ट्युबल के बाद एक छोटी नलिका होती है। यह जोड नलिका आगे जाकर कार्टिकल नलिका से मिलती है। कु़छ कार्टिकल नलिकाओं के एक साथ आने पर कार्टिकल डक्ट बन जाती है। छोटी-छोटी ८ से १० कार्टिकल डक्टों के एकसाथ आने पर बड़ी कार्टीकल डक्ट बनती है और कार्टिकल डक्ट मेड्युला में प्रवेश करती है और वहाँ पर उसे मेड्युलरी डक्ट कहा जाता है। इस प्रकार की साधारणत: २५० मेड्युलरी डक्ट सामान्यत: ४००० नेफ्रॉन्स में से मूत्र एकत्रित करती हैं।

मूत्रपिंड में नेफ्रॉन कहाँ पर है, उनकी स्थिति पर उसकी रचना निर्भर होती है।

मूत्रपिंडों के कुल नेफ्रॉन्स में से ७० से ८० प्रतिशत नेफ्रॉन्स मूत्रपिंडों के कार्टेक्स में होते हैं। इन नेफ्रॉन्स में हेन्ले के लूप मजबूत होते हैं और मेड्युला में इनका अत्यंत छोटा भाग होता है।

कुल नेफ्रॉन्स में से २० से ३० प्रतिशत नेफ्रॉन्स मेड्युला के बिल्कुल नजदीकी होते हैं। इसी लिए इन्हें डक्स्टामेड्युलरी नेफ्रॉन्स कहते हैं। डक्स्टा यानी पास अथवा नजदीक रहनेवाला। इन नेफ्रॉन्स में हेन्ले के लूप लम्बे होते हैं और मेड्युला में अंदर तक प्रवेश करते हैं।

इन दोनों प्रकार के नेफ्रॉन्स के कार्यों में थोड़ा फर्क होता है। यदि शरीर में पानी रोकना हो तो पेशाब के माध्यम से बाहर निकलनेवाले पानी की मात्रा का कम होना आवश्यक होता है। पेशाब के माध्यम से बाहर निकलनेवाले पानी को पुन: शोषित करने का काम जक्स्टामेड्युलरी नेफ्रॉन्स करते हैं।

मूत्रपिंडों को रक्त की आपूर्ति : प्रत्येक मूत्रपिंड को रक्त की आपूर्ति करनेवाली स्वतंत्र रक्तवाहिनी होती है। इस रक्तवाहिनी को रीनल आरटरी कहते हैं। कार्डिआक आऊटपुट में से २२ प्रतिशत रक्त की आपूर्ति दोनों मूत्रपिंडों को मिलाकर होती है। प्रति मिनट ११०० मिली रक्त मूत्रपिंडों में आता है। रीनल आरटरी हायलम में से मूत्रपिंड में प्रवेश करता है। आगे चलकर शाखा-उपशाखाओं के स्वरूप में वो दूर तक फैलती है। प्रत्येक ग्लोमेरूल को ऍफरंट आर्टिरिओल से रक्त की आपूर्ति होती है। ऍफरंट आर्टिरिओल प्रथम ग्लोमेरूलर के केशवाहिनों में विभाजित होती है। यह केशवाहिनियाँ पुन: एकसाथ आ जाने पर इफरंट आर्टिरिओल तैयार होता है। यह इफरंट आर्टिरिओल मूत्रपिंड में रहनेवाली छोटी नलिकाओं के चारों ओर फिर से केशवाहनियों का जाल तैयार करती हैं। इसे पेरिट्युबलर केशवाहनियाँ कहते हैं। यह केशवाहनियाँ एकसाथ आ जाने पर वेन्युल्स तैयार होते हैं।

प्रत्येक नेफ्रॉन में केशवाहनियों के दो जाल होते हैं। यह मूत्रपिंड की खासियत है। एक ग्लोमेरूलर जाल और दूसरा पेरिट्युबलर जाल। इन दोनों के बीच इफरंट आर्टिरिओल होती है और वह इन दोनों जालों मे हैड्रोस्टॅटिक के दबाव (दाब) पर नियंत्रण करती है। ग्लोमेरूलर जाल में यह दबाव उच्च यानी 60 mm of Hg रहता है। इसी लिए यहाँ रक्त को छानने की क्रिया सहजता से होती है। पेरिट्युबलर जाल में दबाव कम (13 mm of Hg) रहता है। इसी लिए द्राव और अन्य क्षार इनका पुनर्शोषण करना (Reabsorption) आसान हो जाता है।

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