उत्सर्जनसंस्था भाग – १

आज से हम नये विषय की शुरुआत करनेवाले हैं। शरीर के अंतर्गत सभी सजीव पेशियाँ (कोशिकाएँ) प्राणवायु और अन्य किण्वक (एन्झाइम) इनकी सहायता से अन्न घटकों का अपने कार्यों के लिए उपयोग करते हैं। इस क्रिया को चयापचय क्रिया यानी metabolism कहते हैं। चयापचय क्रिया सतत शुरू रहती है। इस क्रिया के अंतर्गत शरीर की पेशियाँ अपने कार्यों के लिए उपयुक्त घटकों का निर्माण करती हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के लिए अनावश्यक और शरीर के लिए घातक भी निर्माण होते हैं। शरीर के लिए अनावश्यक और शरीर के लिए घातक ऐसे दोनों घटकों को शरीर से बाहर निकाला जाता है। इसे विसर्जन की क्रिया कहा जाता है। इन घटकों का विसर्जन मुख्यत: चार प्रकार से होता है – मूत्राक्षद्वारा, मलद्वारा, पसीनेद्वारा और साँस के माध्यम से। इस तरह यह विसर्जन क्रिया होती है। मलमूत्र विसर्जन शब्द प्रचलित है। परन्तु इसके बजाय उत्सर्जन शब्द ही उचित प्रतित होता है। इसी लिए हम इस क्रिया को उत्सर्जन की क्रिया कहेंगे। मूत्र का उत्सर्जन मूत्रपिंडो (गुर्दों) के द्वारा होता है। मल का उत्सर्जन आँतों के माध्यम से होता है। पसीना त्वचा के माध्यम से बाहर निकलता है तथा कर्बद्विप्रणिल वायु साँस के माध्यम से बाहर निकाली जाती है।

    इस लेखमाला के पहले भाग में, हम मूत्र उत्सर्जन की जानकारी प्राप्त करेंगे। सर्वप्रथम हम मूत्र उत्सर्जन की क्रिया में भाग लेनेवाले अवयवों और उनकी रचना का अध्ययन करेंगे। मूत्र उत्सर्जन के अवयव निम्नलिखित है।

१) मूत्रपिंड – ये दो होते हैं। यहाँ पर मूत्र की निर्मिति होती है।

२) मूत्रनलिका – मूत्रपिंडो में तैयार हुए मूत्र को मूत्राशय तक पहुँचती हैं।

३) मूत्राशय – इसमें कुछ समय के लिए मूत्र जमा किया जाता है।

४) युरेथ्रा – मूत्राशय से मूत्र को बाहर निकालता है।

    हमारे पेट के मुख्यत: दो भाग होते हैं। पेट और श्रोणि (बस्ति) प्रदेश। इसे वैद्यकीय भाषा में Abdomen और Pelvis कहते हैं। उपरोक्त अवयवों में से मूत्रपिंड और मूत्रनलिका का ऊपरी हिस्सा abdominal होता है। तथा नलिका का शेष भाग, मूत्राशय और युरेथ्रा ये अवयव श्रोणि (बस्ति) प्रदेश में यानी Pelvis में होते हैं।

    मूत्रपिंड (Kindneys) – हमारे शरीर में दो मूत्रपिंड होते हैं। रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर एक-एक मूत्रपिंड होता है। शरीर के बाजू के आधार पर उन्हें दाहिना और बायाँ मूत्रपिंड कहते हैं। इनका आकार साधारणत: सेम के बीज (bean shaped) होता है। हमारे पेट के रिक्त स्थान के अंदर पेरिटोनिअम नाम का आवरण होता है। पेरिटोनिअम आवरण के बाहर तथा हमारी पीठ के स्नायुओं पर मूत्रपिंड स्थिर रहते हैं। जीवित अवस्था में इनका बाहरी रंग लाल भूरा होता है और इनके अलग-बगल में स्निग्ध ऊतकों (Adipose Tissue) का आवरण होता है।

    मूत्रपिंडों का ऊपरी सिरा बारहवीं वक्ष कशेरुका (थोरॅसिक व्हर्टिब्रा) के ऊपरी स्तर पर होता है। इसका निचला सिरा तीसरे कटि कशेरुका (लंबर व्हर्टिब्रा) के स्तर पर होता है। बायें मूत्रपिंड की अपेक्षा दाहिना मूत्रपिंड थोड़ा नीचे होता है। दोनों मूत्रपिंड रीढ़ की हड्डी के समांतर नहीं होते हैं। इनका ऊपरी सिरा कशेरुका के ज्यादा नज़दीक होता है और निचला सिरा थोड़ा दूर होता है।

    प्रत्येक मूत्रपिंड़ साधारणत: ११ सेमी लम्बा, ६ से.मी. चौड़ा और ३ से.मी. मोटा होता है। पुरुषों में इसका वजन १५० ग्राम तथा स्त्रियों में १३५ ग्राम होता है।

    मूत्रपिंड पेट के रिक्त स्थान में होते हैं। फलस्वरूप पेट के विभिन्न अवयवों के सान्निध्य में रहते हैं। दाहिने मूत्रपिंड के सामने की ओर यकृत्, स्वादुपिंड का ऊपरी सिरा, छोटी आँत, बड़ी आँत इत्यादि अवयव होते हैं। बायें मूत्रपिंड के सामने जठर, बड़ी आँत, स्वादुपिंड का निचला सिरा और प्लीहा इ. अवयव होते हैं। दोनों मूत्रपिंड़ों के पीछे, हमारी पीठ़ के विभिन्न स्नायु होते हैं। पेट और स्नायु इनके बीच का द्विभाजक परदा इन्हें फेफड़ों और उनके आवरण से अलग रखता है।

    प्रत्येक मूत्रपिंड के ऊपरी सिरे पर एक-एक अंतर्स्त्रावी ग्रंथी होती है। इस ग्रंथी को सुप्रारिनल ग्रंथी कहते हैं। मूत्रपिंड का बाह्य भाग आज हमने देखा। अगले लेख में उसकी आंतरिक रचना देखेंगे।(क्रमश:)

Leave a Reply

Your email address will not be published.