एमिल रु (१८५३-१९३३)

‘‘जीवाणुओं के कारण घटसर्प (डिप्थेरिया) होना संभव है, परन्तु निश्‍चित रूप में कुछ कहा नहीं जा सकता है, ये जीवाणु शरीर में जब प्रवेश कर जाते हैं, तब उनसे किसी विषसदृश पदार्थ तैयार होने के कारण वह बच्चों के लिए वह हानिकारक हो सकता है। इस विषय में संशोधन होना चाहिए।’….

घटसर्प

ये हैं, घटसर्प इस रोग के बारे में बुनियादी जानकारी देने वाले जर्मन संशोधक ‘फ्रेडिरिक लोएफ्लर’ के प्रबंध के कुछ महत्त्वपूर्ण वाक्य। उनके इस अधूरे संशोधन कार्य को ‘एमिल रु’ नामक इस संशोधनकर्ता ने पूरा करने का निश्‍चय किया। एमिल रु नामक ये फ्रेंच डॉक्टर सूक्ष्मजंतुशास्त्रज्ञ थे। ‘लुई पाश्‍चर’ नामक इस महान संशोधक के साथ रहकर वे उनके कार्य में उनकी सहायता करते थे। १९८८ में पाश्‍चर संशोधन कार्य से निवृत्त होने के पश्‍चात् रु ने इस कार्य को अपने हाथ में ले लिया था। वे घटसर्प पर संशोधन कर रहे थे।

फ्रान्स के पश्‍चात् १८५२ में लंडन में घटसर्प की बीमारी फैली हुई थी। १८८१-८२ में हर वर्ष के समान घटसर्प की साथ आई थी। बहुत सारे बच्चे बीमार हो गए। रुग्णालय का बालविभाग घटसर्प के बालरुग्णों से भरा हुआ था। बच्चों को औषधि भी नहीं मिल पा रही थी। बच्चों का काला-नीला पड़ता जानेवाला चेहरा, गले में बेचैनी अंदर से घबराहट यह देख डॉक्टर भी हतबल थे। क्योंकी उनके पास कोई उपाय नहीं था।

एमिल रु अपने साथ काम करनेवालों को लेकर रुग्णालय में जाते थे, घटसर्प के कारण मरनेवाले बच्चों के गले से जंतु निकालकर, उन जन्तुओं की वृद्धि हेतु प्रयोग करते रहते थे। चूहे, खरगोश, गिनीपीग के शरीर में इसका टीका लगाने से काफ़ी प्राणी घटसर्प के कारण मर जाते थे। परन्तु इसमें से कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। परन्तु एमिल के संशोधक गुरु पाश्‍चर उन्हें कभी निराश नहीं होने देते थे।

एमिल रु ने प्रयोगशाला के जन्तुओं के प्रजाति से कुछ जंतुओं को अलग किया। मोमबत्ती के आकार का काँच का गालन तैयार किया और उसमें बिलकुल बारीक छिद्रों की गालन लगाकर उन जंतुओं को जाली पर फँसा दिया। जन्तुओं की वृद्धि करनेवाला द्रव्य पदार्थ उसमें से छनकर बाहर निकल गया। यह द्रव्य पदार्थ उन प्राणियों को टीके के रूप में लगाया गया। परन्तु अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाया। एमिल रु के काफ़ी सारे प्रयोग निष्फल हो चले थे। निराश रु को एक दिन अचानक इसका पता चल गया।

रु ने एक परिक्षा नली में घटसर्प के जन्तु रख दिए। चार दिन तक उस नली की ओर ध्यान नहीं दिया गया। अक्षरश: ब्यालीस दिनों तक वह इन्क्युबेटर में ही रहे। रु ने सहज ही उस द्रवय की जाँच की। उसमें एक भयंकर प्राणघातक विष तैयार हो चुका था। उस पर एमिल ने काफ़ी प्रयोग किए। एमिल ने उस पर रासायनिक विश्‍लेषन करने की कोशिश की। परन्तु उसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिल पायी। केवल घटसर्प का मूल कारण क्या है, इतना ही पता चल पाया। अर्थात् केवल घटसर्प का मूल कारण जानने से कोई फायदा नहीं होनेवाला था। दर असल उस मूल कारण से शरीर में निर्माण होनेवाले विष को नष्ट करने का उपाय खोजना चाहिए था, अन्यथा एमिल रु का संशोधन कार्य अधूरा ही माना जाता। रु ने पुन: कोशिश की, परन्तु यश मर्यादित ही रहा। आखिरकार एमिल बेहरिंग (नोबेल पुरस्कार विजेता) नामक जर्मन शास्रज्ञ ने एमिल रु के संशोधन कार्य को पूरा किया।

जंतु शास्त्रीय जगत में एमिल रु एक आदरणीय व्यक्तित्व के धनी माने जाते हैं। यूरोप की मेडिकल काँग्रेस में एमिल को ‘सायंटिफिक हिरो’ के नाम से जाना जाता है। १९०४ में पाश्‍चर इन्स्टिट्यूट में लुई पाश्‍चर के पश्‍चात् जनरल डायरेक्टर यह सम्मानीय पद एमिल रु को प्रदान किया गया। एमिल को अपने जीवन में यह सर्वोच्च बहुमान प्राप्त हुआ। धनुर्वात, क्षय, न्युमोनिया, सिफिलिस ये सारी बीमारियाँ, उनके रोगजंतु इन सभी संशोधन संबंधित अनेकों प्रयोग एमिल रु ने किए।

रोगप्रतिबंधक डीपीटी टीका m (DPT Vaccine) (Diphteria, Pertussis, Tetanus) आज बच्चों को सर्वत्र दिया जाता है।

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