किचन फ्रेंडली ‘टपर वेअर’

बरतनों आदि का विकास मानवों की उत्क्रांति के साथ साथ हुआ। इस विकास के दौरान पत्थरों के, मिट्टी के, धातुओं के बरतनों को मानवों ने अपनी ज़रूरत के अनुसार उपयोग में लाना शुरु किया। इस विकास के दौरान ही भोजन अथवा खाने की चीजें आदि रखने के लिए प्लास्टिक के हवाबंद डिब्बों का उपयोग करने का पर्व भी शुरु हो गया। इस पर्व के संशोधन में ‘टपर वेअर’ यह एक मील का पत्थर है।

औद्योगिक एवं आर्थिक विकास के प्रवाह में ही सर्वप्रथम खेती-बाड़ी पर ही निर्भर रहकर अपना उदर-निर्वाह करनेवाले मानवों ने उदरनिर्वाह हेतु आवश्यक रोज़गार हेतु नौकरी के विकल्प का स्वीकार करना शुरु किया। नौकरी-व्यवसाय करने हेतु जानेवालों के लिए घर से कुछ नाश्ता आदि ले जाना अनिवार्य हो गया। यह नास्ता ले जाने के लिए स्टेनलेस स्टील एवं अ‍ॅल्युमिनियम के डिब्बों का प्रयोग शुरु हो गया। अब इन डिब्बों का स्थान ले लिया है, प्लास्टिक के डिब्बों ने। केवल नाश्ता ही लेकर जाने के लिए ही नहीं बल्कि धीरे-धीरे गृहणियों को खाने-पीने की चीज़ें रखने के लिए भी प्लास्टिक के डिब्बे ही अधिक सुविधाजनक लगने लगे।

आज के युग में खाने-पीने की चीज़ें रखने के लिए अथवा नाश्ते आदि के लिए उपयुक्त साबित होनेवाले ‘टपर वेअर’ डिब्बों की निर्मिति करने का श्रेय ‘एर्ल सिलास टपर’ नामक संशोधक को जाता है। बर्लिन में २८ जुलाई, १९०७ के दिन जन्म लेनेवाले ‘एर्ल’ ने अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के पश्‍चात् लॅन्डस्केपिंग एवं नर्सरी व्यवसाय में अपने-आप को व्यस्त कर लिया। लेकिन इस व्यवसाय की चुनौती का एर्ल स्वीकार नहीं कर सके। परिणाम यह हुआ कि बैंक का कर्ज़ बोझ बन जाने के कारण कंपनी का दिवाला पिट गया। इस आघात के कारण एर्ल निराशा की खाई में डूब गए।

परंतु उदरनिर्वाह के लिए कुछ ना कुछ तो करना जरूरी था। यह सोचकर ‘एर्ल’ ने निराशा को झटककर ‘दुपॉन्ट केमिकल कंपनी’ में रोजगारी करना कबूल कर लिया। यहाँ पर नौकरी करते हुए उन्होंने पॉलिएथिलिन का मलफेन (झाग) जमा करना शुरू कर दिया। इस मलफेन का शुद्धीकरण करके मोल्ड बनाये। इस से ही वजन में हलके और टूटने-फूटने का भी डर न होनेवाले बरतन, जैसे कि कप, बाऊल्स, प्लेट्स और गैस मास्क आदि बनाने में एर्ल ने सफलता प्राप्त की। इन सभी वस्तुओं को द्वितीय महायुद्ध में काफ़ी बड़े पैमाने पर उपयोग में लाया गया।

इस के पश्‍चात् ‘एर्ल’ ने अधिक संशोधन करके डिब्बों आदि के लिए लिक्विडप्रुफ एवं एअरटाईट ढ़क्कन तैयार किए। इन सभी उत्पादनों का भी व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा। कालांतर में १९३८ में एर्ल ने टपरवेअर प्लास्टिक कंपनी की स्थापना की। १९४६ में इस कंपनी द्वारा डिपार्टमेंट स्टोअर्स एवं हार्डवेअर के लिए लाभदायक होनेवाले टपर प्लास्टिक भी बाजारों में उपलब्ध किए गए।

‘एर्ल’ ने अपनी कंपनी के विज्ञापन की पद्धति बदल दी। १९५० में बाज़ार से मामूली, दुबले-पतले टपर वेअर वापस लौटा दिए गए और उनकी बिक्री पर पाबंदी लगा दी गई। उसी दौरान नयी कल्पना के अनुसार, ‘टपर वेअर पार्टीज्’ अरेंज की जाने लगी और इन्हीं पार्टियों के माध्यम से टपर वेअर के उत्पादों को लोगों के सामने लाना शुरु हुआ।

इसी माध्यम से ‘टपर वेअर’ का रसोईघर में एवं घरेलू चीज़ों में प्रत्यक्ष रुप में किस प्रकार से उपयोग किया जा सकता है, यह भी प्रयोग करके सामान्य लोगों तक पहुँचाया जाने लगा। विज्ञापन की यह नयी पद्धति अत्यन्त सफल साबित हुई। अल्प समय में ही टपरवेअर अनगिनत लोगों तक जा पहुँचा। साथ ही इसकी बिक्री भी व्यापक स्तर पर होने लगी।

आज भी कुछ देशों में टपरवेअर पार्टी का आयोजन किया जाता है। भारत में भी टपरवेअर पार्टी का आयोजन काफी बड़े पैमाने पर किया जाता था। दुनियाभर के १०० देशों में लोकप्रिय हो चुके ‘टपरवेअर’ के सर्वाधिक खरीदार जापान, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, इटली, न्युझीलंड, रशिया, मेक्सिको, अमरीका, फ्रान्स और जर्मनी में हैं।

‘टपरवेअर’ का संशोधन करनेवाले ‘एर्ल’ का अंत एकाकी एवं काफी दुखद हुआ। ‘एर्ल’ का व्यक्तिगत जीवन हालाँकि विवादित सा हो सकता है, मग़र फिर भी उनके अमूल्य संशोधन की धरोहर के संबंध में कोई मतभेद हो ही नहीं सकता है। १९८३ में ‘एर्ल’ का निधन हो गया। आज भी प्लास्टिक के डिब्बे में भोजन ले जाते समय उस पर होनेवाला एअरटाईट ढक्कन पर लिखा गया ‘टपरवेअर’ यह शब्द इस महान संशोधनकर्ता की याद दुनिया भर के सभी लोगों को दिलाते ही रहता है।

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