डॉ.आनंद कर्वे : भाग – २

आंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न विषयों से संबंधित शोधकार्य तेजी से चलता रहता है। विषय, उपविषय, उनके उपविभाग अथवा उनमें से ही उदित नये-नये विषय इनके बारे में अनुसन्धान होता रहता है। विज्ञान, तकनीकी ज्ञान एवं संशोधन यदि इन्हीं की चार दीवारी में कैद होकर रहा जाये तो इसका कोई उपयोग नहीं है, बल्कि ज़मीन से, प्रकृति से जुडे रहकर बुनियादी प्रश्नों के साथ इन सबका मेलजोल बनाये रखना काफी महत्त्व रखता है।

महाराष्ट्र के ग्रामीण विकास पर ध्यान बनाये रखने वाली ‘ऍप्रोप्रिएट रुरल टेक्नॉलॉजी इंस्टिट्यूट’ (आरती) संस्था डॉ. कर्वे ने शुरु की।

विदेशी पद्धति की महँगी ग्रीन हाऊस का उपयोग सामान्य किसानों के बस की बात नहीं थी, इस बात पर गौर करके सहज उपलब्ध सामग्री का उपयोग करके देसी पद्धति के अनुसार केवल एक दशांश खर्चे में ही ग्रीन हाऊस का निर्माण करना, वह भी पचास प्रतिशत अधिक उत्पादन बढ़ाना संभव है, यह डॉ. कर्वे ने सिद्ध कर दिखाया। पिछले कुछ वर्षों में ‘आरती’ संस्था की ओर से अनेकों यशस्वी प्रयोग हो चुके हैं। सोलर ड्रायर एवं पच्चीस हजार लीटर तक पानी जमा करने वाली टाकी तैयार की गई है। प्याज़, मिर्च, बैंगन, टॉमेटो आदि के पौधे तैयार कर बेचे जा सकते हैं, ऐसी इन नर्सरीज्‌ में ये सभी चीजें उपलब्ध भी होती हैं। साथ ही परचून फसलों के भी पौधे तैयार किए जा सकते हैं। ‘आरती’ संस्था द्वारा विकसित किए गए ‘न्यू नर्सरी टेक्‌निक’ की सहायता से काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है यह बात डॉ. कर्वे ने सिद्ध कर दिखलायी है।

शहरों में कष्ट करने वालों का भूख मिटाने के लिए किसी न किसी तरह से इंतजाम हो जाता है। परन्तु गाँवों में खेती के साथ-साथ कुछ और भी करने को हो तो वे भी अपना जीवन सुख से व्यतीत कर सकते हैं। मराठवाड़ा, विदर्भ जैसे क्षेत्रों में रुई, अरहर जैसे फसलों के लिए प्रयोग किये जा चुके हैं। मई के महीने में प्लास्टिक की छोटी-छोटी थैलियों में भी पौधे लगा दिए गए, उनमें केवल घरेलू काम-काज़ में उपयोग में लाये गए पानी का उपयोग किया जाता था, जैसे कि कपड़ा, बरतन आदि। जुलाई महीने में ज़मीन में गीलापन आ जाने पर इस प्रकार के पौधों को ले जाकर सीधे खेतो में लगा दिया गया। इससे किसानों को मुनाफा भी मिला और साथ ही नर्सरी चलाने से दो महीनों तक पौधों का ध्यान रखने का फायदा भी हुआ।

महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचने वाली उनके निर्धूम (धुआँ विरहित) चूल्हे की कोशिश भी कामयाब हुई। इस प्रयोग में उन्होंने चूल्हे बनाने वाले कुम्हारों को एकत्रित किया, उन्हें ढाँचा मिल जाने पर उनका उत्पादन तेजी से होने लगा। कुम्हारों को लघुउद्योजक बना दिया गया और साथ ही उन्हें विशेषज्ञों की ओर से उचित व्यवस्थापन का प्रशिक्षण दिया गया। गाँव के अशिक्षित कुम्हारों ने भी अपना इन्कम टॅक्स रिटर्न भरा। वैश्विक बैंक की ओर से भी इस उपक्रम की प्रशंसा की गई।

ब्रिटन की संस्था की ओर से चिरंतन ऊर्जा निर्मिति हेतु यशस्वी साबित होने वाले प्रकल्पों को ‘अँशडेन’ नामक पुरस्कार प्रदान किया जाता है। ‘ग्रीन ऑस्कर’के रूप में भी यह पुरस्कार जाना जाता है। डॉ. कर्वे इनकी ‘आरती’ नामक संस्था को दो बार इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। डॉ. कर्वे इनके बायो गॅस संयंत्र को भी यह पुरस्कार प्राप्त हुआ है। २००२ में गन्ने के पत्तों-छिलको आदि से इंधन निर्मिति करने वाले प्रयोग के लिए उन्हें यह पुरस्कार प्राप्त हुआ।

हरे पत्ते, अधिक पके हुए फल, सब्ज़ी-तरकारी आदि कचरा, खराब हो चुका अनाज, अखाद्य तेल की खली, बचा हुआ जूठा अन्न आदि कुछ न कुछ तो घरों में उपलब्ध होता ही है परन्तु जिन्हें कचरा कहकर फेंक दिया जाता है, उन सबका डॉ. कर्वे के नये बायोगँस मॉडल द्वारा इंधन के रूप में परिवर्तन होता है। पर्यावरण के प्रति हानिकारक वायु इसमें से निर्माण नहीं होती है और इस गैस का उपयोग रसोईघर में नि:संकोच किया जाता है। कैरोसिन, एल.पी.जी. के उपयोग में पचास प्रतिशत बचत इस माध्यम से होना सहज ही संभव है।

आज के गाँव में एक सामान्य किसान, गाँव में रहने वाली भोली-भाली औरतों से लेकर वैश्विक बैंक तक के विभिन्न स्तरों पर नवीनतापूर्ण, जन-उपयोगी काम करने वाले प्रयासशील शास्त्रज्ञ के रूप मे डॉ. कर्वे की एक अपनी अलग ही पहचान है।

महर्षि कर्वे द्वारा शुरु की गई एवं जतन की गई समाजोपयोगी सेवा का व्रत डॉ. आनंद कर्वे ने अपना लिया है। इनका यह आदर्श हमारे लिए अपने आचरण में उतारने योग्य है।

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