बिरबल साहनी (१८९१-१९४९)

विधायक कार्य करने में ही आनंद है और कार्य न करना ही दुख है। अखंड चैतन्य से भरे और अपने कार्य के प्रति कटिबद्ध रहनेवाले खोजकर्ता के रूप में श्री. बिरबल साहनी का उल्लेख किया जा सकता है।

बिरबल साहनी

पृथ्वी का इतिहास दर्शानेवाली कुछ स्मृतिप्राणिमुद्राएँ, वनस्पतिमुद्राएँ इनके रूप में निसर्ग इतिहास की निशानियाँ सँभाले रहता है। ये मुद्राएँ जब अपने इतिहास के विषय में बोलने लगती हैं, उस वक्त पृथ्वी और उसके गर्भ में छिपे अनेक प्रकार के रहस्यों का खुलासा होता है। इनसे संबंधित आरंभिक समय के संशोधन करने का कार्य भारतीय खोजकर्ता डॉ. साहनी ने किया।

पथरिले प्रदेश, पहाड़ियाँ, घाटियाँ इस तरह का नैसर्गिक स्वरूप होनेवाला भारत का भेड़ा गाँव यह मानों भूगर्भशास्त्र का संग्रहालय ही था। इस भेड़ा गाँव में डॉ. साहनी का जन्म हुआ। उनके पिता लाहोर के कॉलेज में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। शिक्षा-विशेषज्ञ एवं एक महान समाजसेवक के रूप में भी उनकी ख्याति थी। इसी कारण घर एवं घर के बाहर का वातावरण ये दोनों ही बातें बिरबल साहनी के लिए पोषक साबित हुईं। बचपन से ही उन्हें वृक्ष, लताएँ, वनस्पतियाँ आदि में काफ़ी रुचि थी। हिमालय के शिखरों को देखते समय उनका चित्त प्रसन्न हो उठता था। उनके घरवालों की इच्छा यही थी कि बिरबल आय.सी.एस. करके उच्च पद अधिकारी का स्थान ग्रहण करे। परन्तु बिरबल को वनस्पतिशास्त्र पर चल रहा संशोधन कार्य छोड़ना नहीं था। पंजाब विद्यापीठ से विज्ञान की उपाधि लेकर उच्च शिक्षा हेतु केंब्रीज विश्‍वविद्यालय एवं पंजाब विश्‍वविद्यालय में उन्हें वनस्पतिशास्त्र विभाग में प्रमुख के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ।

वनस्पति शात्र में प्रवीण होनेवाली सावित्रीदेवी नामक सुविद्य उनकी पत्नी ने भी उनके संशोधन-कार्य हेतु महत्त्वपूर्ण सहायता की। पॉलिओबॉटनी इन्स्टिट्यूट इस वनस्पति मुद्रा शास्त्र का अध्ययन करनेवाली नयी संस्था के प्रमुख के रूप में उन्होंने इस जिम्मेदारी का स्वीकार किया। १९२१ में लखनऊ विश्‍वविद्यालय में प्रथम प्राध्यापक एवं इसके पश्‍चात् विज्ञान विभाग के वे डीन बन गए।

अब वनस्पतिशास्त्र एवं वनस्पति मुद्राशास्त्र के विशेषज्ञ के रूप में डॉ. साहनी की प्रतिमा और भी अधिक दृढ़ होती चली गई। अधिकाधिक समय तक संशोधन एवं जिज्ञासु विद्यार्थियों को मार्गदर्शन करना यह उनका दैनिक कार्य था। भारत की वनस्पति मुद्राओं से संबंधित संशोधन कार्य एवं संशोधन-कर्ताओं के शोध को प्रकाशित करने के लिए डॉ. साहनी ने ‘पॉलिओबॉटनी इन इंडिया’ नामक बुलेटिन शुरू किया।

डॉ. साहनी ने दक्षिण के पठार, पंजाब का सॉल्ट रेंज का हिस्सा एवं बिहार की राजमहल पहाड़ियाँ आदि का संशोधनात्मक निरीक्षण किया। इन क्षेत्रों से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रबंध को प्रसिद्ध किया। होमोक्सिलॉनप राजमहालिज्, राजमहालिया, पॅरॉडॉक्सिआ, विल्यमसोनिया सेवर्डिआना इनसे संबंधित ये प्रबंध थे। दक्षिण के पठार एवं सॉल्ट रेंज कालनिर्णय के लिए बिरबल साहनी ने अपना नया संशोधित निर्णय घोषित किया। इनसे पहलेवाले संशोधन का निष्कर्ष इनके संशोधन के कारण पूरी तरह से बदल गया।

पेंटॉक्सिल नामक वनस्पति मुद्रा की उन्होंने खोज की। इस वनस्पति मुद्रा से संबंधित विषय पर विचार करते हुए उन्होंने जिम्नोस्पर्म के नये वर्ग के बारे में अपनी राय प्रस्तुत की। भारत के गोंडवन के अन्तर्गत नयी वनस्पतियों की खोज उन्होंने की।

बिरबल साहनी की भाषाशैली कुछ इस प्रकार की थी कि अच्छे अच्छे साहित्यकारों को भी मात दे दी। शास्त्रीय मीमांसा करनेवाली उनकी भाषाशैली का प्रभावकारी एवं सहज आसान मार्ग यही उनकी विशेषता थी। इसके साथ ही उनकी भाषा शैली श्रोताओं को भी आकर्षित करनेवाली थी।

१९३६ में उन्हें इंग्लैंड के रॉयल सोसायटी की ओर से सदस्यत्व का सम्मान दिया गया। (ऋठड) अपने उम्र के अंतिम छ: सात वर्षों में उन्होंने वनस्पति मुद्राशास्त्र का अध्ययन करनेवाली संस्था की स्थापना करने के लिए जी जान से मेहनत की। वनस्पति मुद्राशास्त्र के वैश्‍विक स्तर पर होनेवाला यह अध्ययन केन्द्र बने यही उनकी मनिषा थी। ३ अप्रैल, १९४९ को पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों इस अध्ययन केन्द्र की इमारत का उद्घाटन किया गया और इस समारोह के पश्‍चात् दस अप्रैल १९४९ को डॉ. साहनी ने इस दुनिया से विदा ले ली।

देश-विदेश की विभिन्न संस्थाओं में उन्हें अधिकार के पद सम्मानपूर्वक दिए गए। लगभग तीस वर्षों तक उन्होंने वनस्पति मुद्राशास्त्र का अध्ययन बहुत बड़े पैमाने पर किया और वैज्ञानिकयुग में उन्हें सम्मानित किया गया।

बिरबल साहनी की नि:स्वार्थ जिज्ञासु वृत्ति एवं देश का विकास करने की लगन के साथ भारत के वैज्ञानिक स्थान को ऊँचा बनाये रखने में इनका अहम योगदान रहा।

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