अशोक बंग

पिछले कुछ वर्षों से ग्रामीण विभाग की कृषि संबंधित समस्यायें अधिक गंभीर हो चली जा रही हैं। कृषि की नवीन स्वावलंबी राह चुनना यह इसके प्रति एक अच्छा उपाय साबित हो सकता है और ऐसी खेती नैसर्गिक दृष्टिकोण से दीर्घकाल तक के लिए उपयोगी साबित होगी। पारंपरिक एवं आधुनिक बलस्थानों का उपयोग यह किसानों एवं साथ ही देश के लिए भी सुखदायी साबित हो सकता है। आज की मुश्किल परिस्थिति में अशोक बंग एवं उनके सहकर्मी इनके द्वारा विकसित किए गए प्रयोग बहुसंख्य अल्पभूधारक किसानों को स्वाभिमान के साथ जीवन जिने का मार्ग दिखाने वाले हैं।

महात्मा गांधी, विनोबाजी इनके विचारों से प्रेरित होनेवाले ठाकुरदास एवं सुमन बंग इन जैसे त्यागी दंपती के अशोक बंग सुपुत्र हैं। ग्रामीण समाज को अपनी शिक्षा का लाभ हो सके इसलिए दिल्ली के ‘इंडियन ऍग्रीकल्चर रिसर्च इन्स्टिट्युट’ से स्कॉलरशीप के साथ साथ एम. एससी. (ऍग्री) उपाधि उन्होंने प्राप्त की। उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले में आदिवासी गांव में उन्होंने अपना प्रयोग शुरू किया। आकाल पीड़ित एवं बंजर ऐसे समस्याग्रस्त भूभाग में उत्पादन बढ़ानेवाले प्रयोगों की ज़रूरत थी और इसके लिए चार एकड़ के लिए साल में दो बार फसलों का नियोजन होगा ऐसे प्रयोग अशोक बंग ने शुरू किए, आगे चलकर इसका व्यापक तौर पर प्रसार भी हुआ।

जीवनधाराओं का संवर्धन अर्थात मिट्टी, पानी, पेड़, घास-पूस आदि की अधिक समृद्धि करना और इससे ही विकास की दिशा को शाश्वत आधार प्राप्त होता रहता है। साधनों का महत्त्व एवं आवश्यक जानकारी ग्रामीण समाज में विकसित हो ऐसी कोशिशें की गईं। बारिश का अभाव एवं तीव्र अकाल का प्रभाव होने के बावजूद भी उन्होंने वर्धा जिले के तीस गांवों में उस यशस्वी प्रयोग के आधार पर तैयार की गयी कार्यपद्धति का उपयोग कर्नाटक, मध्यप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात राज्य के विभिन्न संस्थाओं ने किया।

दिल्ली की संस्था में जब अशोक बंग सीख रहे थे तब डॉ. स्वामीनाथन वहाँ के संचालक थे। देशभर में हरित क्रांति के बीज बोए जा रहे थे। बड़े पैमाने पर अधिक उत्पादन प्राप्त करवाने वाले रासायनिक खेती की ओर लोगों का अधिक झुकाव था। लेकिन बंग को इसमें कोई त्रुटी अथवा गलती नज़र आ रही थी, इसी लिए पारंपरिक और आधुनिक दोनों पद्धतियों को एकत्रित करनेवाला तीसरा मार्ग ढूंढने की उन्हें ज़रूरत महसूस हुई। यह मार्ग समाज के सभी घटकों के लिए व्यापक, शांति समाधान देनेवाला साथ ही विकेंद्रित हो इस बात को ध्यान में रखकर ही अशोक बंग ने सहकर्मियों के साथ वर्धा स्थित ‘चेतना विकास ’के साथ ‘स्वावलंबी’ खेती का प्रयोग विकसित किया।

आज अल्पभूधारक किसानों की संख्या बहुत अधिक है, साथ उनके पास की साधन-सामग्री भी मर्यादित है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर बंजर, मध्यम प्रकार की ढ़ाई एकड़ जमीन पर प्रयोग किया गया। बीजों की जिन जातियों को कीड़ों से कम खतरा होगा और साथ ही फसलों की पैदावार भी अच्छी होगी एवं जिन बीजों को घरों में इकट्ठा करके रखा जा सकता है ऐसे सुधारित बीजों को घर में जमा करके रखा जा सकता है। गावों के पास के वनों में उत्पन्न होने वाली जातियों के बीजों का चुनाव इस कार्य के लिए किया गया। रासायनिक खाद की बजाय गोबर खाद का उपयोग किया गया। मित्र एवं मिश्रित फसलों के ३५ प्रकार के समुदाय की पैदावार की गई। इनमें कडधान, नगदी खाद्यफसलें एवं अन्य फसलों का समावेश किया गया। मिट्टी, पानी आदि के व्यवस्थापन में समान स्तरवाला बांध बनाया गया था। इन सब का निरीक्षण बारीकी से दर्ज कर पाँच वर्ष पश्चात् की स्थिति का अनुमान लगाया गया। छोटे किसानों को उनकी ज़रूरत के अनुसार ८०% स्थायी उत्पन्न ढ़ाई एकड़ में प्राप्त हुआ। खाद्य, पोषण हमी एवं स्वायतत्ता प्राप्त हो साथ ही यदि एक एकड़ जमीन और भी होगी तो १००% उत्पन्न एवं अधिकाधिक स्वावलंबी जीवन जीने की निश्चितता किसानों को मिलेगी यह उनके प्रयोग से सिद्ध हुआ।

महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों के किसान, संस्था, शासकीय अधिकारी अशोक बंग इनके प्रयोगों को देखकर उनका अवलंबन कर रहे हैं। विज्ञान एवं ग्रामविकास इनका मेल-जोल करके ग्रामविकास को नयी दिशा प्रदान करने वाले अशोक बंग जैसे संशोधक ‘जय किसान’ यह घोषणा सार्थक सिद्ध करके भी प्रसिद्धि से अलिप्त रहते हैं।

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