‘डब्ल्यूटीओ’ का निर्णय

भारत के ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ के विरोध में जागतिक व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में जानेवाली अमरीका का दोमुहाँ रवैया पुन: एक बार सिद्ध हुआ है। ‘डब्ल्यूटीओ’ ने भारत के विरोध में निर्णय दिया है। इस कारण भारत के इस महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम को झटका लगा है। यह झटका केवल भारत के सौर कार्यक्रम को न लगा होकर, दिसंबर महीने में पॅरिस परिषद में संपन्न हुए ‘हवामान समझौते’ पर भी इसके कारण सवाल उठाये जा रहे हैं। एक तरफ़ कोयले जैसे, ‘ग्रीनहाऊस’ गॅसेस के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार रहनेवाले ईंधन का इस्तेमाल कम करने पर ज़ोर देना और दूसरी तरफ़ पर्यावरणप्रिय ईंधन विकल्पों का इस्तेमाल कर सकने के मार्ग ही बंद कर देना, यही नीति इसमें से दिखायी देती है। इसी उपलक्ष्य में…

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बढ़ते हुए ‘ग्रीनहाऊस’ वायुओं के उत्सर्जन के कारण पृथ्वी के वातावरण पर विपरित परिणाम हो रहा है। जागतिक तापमान वृद्धि यानी ग्लोबल वॉर्मिंग जैसी समस्या ने ऋतुचक्र में जो बदलाव किये है, उसका हम सभी अनुभव कर रहे हैं। दोनों ध्रुवों पर पिघलनेवाली बरफ़, जाड़े और गरमी के मौसमों के तापमानों में महसूस होनेवाले चरमसीमा के बदलाव, प्रचंड बाढ़ें, तूफ़ान इन जैसीं बढ़तीं कुदरती आपत्तियाँ इनका संबंध वैज्ञानिक ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ जोड़ रहे हैं। इसलिए ‘ग्रीनहाऊस’ वायुओं का उत्सर्जन कम करने के प्रयासों का संकल्प गत डेढ़ दशक से किया जा रहा था।

लेकिन अमरीका आदि विकसित देश (Developed Countries) इन ‘ग्रीनहाऊस’ वायुओं का उत्सर्जन कम करने का अधिक से अधिक बोझ विकसनशील देशों (Developing Countries) पर थोंपने की कोशिश कर रहे थे। शुरुआती दौर में खुद अमरीका भी इसके लिए तैयार नहीं थी। ‘क्योटो’ जैसे समझौते इसी कारण नाक़ाम हुए थे।

इन सब बातों में उलझी हुई इस प्रक्रिया को, गत दिसम्बर में पॅरिस में संपन्न हुई ‘जागतिक हवामानविषयक परिषद’ में पुन: गति प्राप्त हुई ऐसा माना जा रहा था। ‘ग्रीनहाऊस’ गॅसेस् का उत्सर्जन कम करने की ज़िम्मेदारी अधिक प्रमाण में उठाना विकसित देशों के लिए अनिवार्य करनेवाले ‘हवामान समझौते’ को इस परिषद में मंज़ुरी दी गयी। १९५ देशों ने इस समझौते का स्वीकार किया। इस समझौते के अनुसार, ‘ग्रीनहाऊस’ वायुओं के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार रहनेवाले, कोयला तथा अन्य ईंधनों का इस्तेमाल धीरे धीरे कम करने का निर्णय सभी देशों ने मिलकर किया। इसलिए, समझौते पर हस्ताक्षर करनेवाले सभी देशों को अब कोयला ईंधन के बदले अन्य पर्यावरणप्रिय ईंधन विकल्पों का चयन करना होगा। ‘सौर ऊर्जा’ यह इनमें से महत्त्वपूर्ण विकल्प है।

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आज समृद्ध रहनेवाले विकसित देशों ने अब तक ‘ग्रीहाऊस गॅसेस्’ का प्रचंड प्रमाण में उत्सर्जन किया है और अब भी कर रहे हैं। जब इन ईंधनों का इस्तेमाल शुरू हुआ, तब दुनिया को उसके परिणामों के बारे में पता नहीं था। अब इस उत्सर्जन को कम करने के तंत्रज्ञान की खोज हुई है। लेकिन वह बहुत ही महँगा होने के कारण विकसनशील देशों की पहुँच के बाहर है। अब तक भारी मात्रा में ‘ग्रीनहाऊस गॅसेस्’ का उत्सर्जन करके अपना विकास कर चुके विकसित देश, यदि ग़रीब देशों से ऐसी उम्मीद करते हैं कि वे (ग़रीब देश) इस महँगे तंत्रज्ञान का इस्तेमाल करें, तो वह ग़लत है। इसलिए यह तंत्रज्ञान विकसनशील देशों की पहुँच में आ जायें ऐसी स्थिति में उपलब्ध कराके देना पड़ेगा। लेकिन यह तंत्रज्ञान देने के लिए अमरीका आदि देश इतनी आसानी से तैयार होनेवाले नहीं हैं, यही अमरीका ने, ‘डब्ल्यूटीसी’ में भारत के ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ के ख़िलाफ़ जाकर दर्शाया है। भारत का ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ अमरीका के व्यापारी हित के आड़े आ रहा है, ऐसा अमरीका का कहना है। भारत को सौर तंत्रज्ञान अमरीका ने दिया है। इस तंत्रज्ञान का इस्तेमाल करना भारत को अमरीका ने सिखाया है। पहले भारत में, सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए अमरीका से आयात की गयी सामग्री का ही इस्तेमाल किया जाता था। इसके लिए अमरीका ने इस सामग्री पर कुछ प्रमाण में सबसिड़ी भी दी थी। इस सबसिड़ी के कारण ही भारत में ‘सौर ऊर्जा’ के क्षेत्र का विकास हुआ, ऐसा अमरीका का कहना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ की घोषणा की है। उसके तहत, ‘सौर ऊर्जा’ के विनियोग को बढ़ावा देने हेतु तथा प्रकल्पों के निर्माण हेतु; साथ ही, कम दामों पर ‘सौर ऊर्जा’ उपलब्ध हो इसलिए, भारत सौर उपकरणों की ख़रीदारी स्थानीय उत्पादकों से करने लगा है। ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ के तहत भारत ने, देश में बने सौर उपकरणों का विनियोग अनिवार्य किया है। इसी बात को लेकर अमरीका नाराज़ है।

केवल भारतीय सौर उपकरणों का इस्तेमाल करने की भारतीय नीति के कारण अमरीका के सौर उत्पादकों का बड़ा नुकसान हुआ है, यह कहकर अमरीका ने ‘डब्ल्यूटीओ’ का दरवाज़ा खटखटाया है। दो ही दिन पहले अमरीका और उसके पश्चिमी मित्रदेशों का प्रभाव रहनेवाले ‘डब्ल्यूटीओ’ ने अमरीका के पक्ष में अपना फ़ैसला सुनाते समय – भारत के द्वारा, केवल भारत में ही निर्माण हुए सौर उपकरणों का इस्तेमाल अनिवार्य किया जाना ग़लत है, ऐसा निर्णय किया।

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ज़ाहिर है, इस निर्णय के विरोध में भारत पुन: फ़रियाद माँगने ही वाला है। लेकिन भारत स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने के लिए और स्थानीय नौक़रियों का निर्माण करने के जो प्रयास कर रहा है, उसमें अमरीका बाधाएँ पैदा कर रही है, यह स्पष्ट हुआ है।

पेटंट्स तथा व्यापार आक्षेप के नाम पर अब तक अमरीका कइयों पर हावी हुई है। कड़वानीम, हल्दी तथा अन्य कई ऐसी वनौषधियाँ, जिनका भारतीय ग्रंथों में उल्लेख किया गया है, उनपर भी अमरीका ने अपने पेटंट के थप्पे बेशरमी से मारे थे। (हल्दी के साथ अन्य कुछ पेटंटों की लड़ाई बाद में भारत ने जीती थी) भारत के कई प्राचीन योगा प्रकारों पर भी अमरीका ने पेटंट लिया था। बासमती चावल का पेटंट लेने की भी कोशिशें बीच में की गयी थीं। भारत में जनसामान्य, अपनी प्राचीन परंपरा में से आये हुए ज्ञान से जिनका इस्तेमाल नित्य रूप से करते हैं, ऐसीं दैनंदिन उपयोग की बातों पर भी अमरीका द्वारा चोरी-छिपे लिये गये पेटंट, अमरीका के व्यापारी नीतिमूल्यों के बारे में बहुत कुछ ज़ाहिर करते हैं। साथ ही, इससे अमरीका की दोमुहाँ व्यापारी नीति भी समझ में आती है।

भारत का ‘सोलर पॉवर प्रोग्राम’ यह भारतीय व्यापारियों के फ़ायदे के लिए नहीं है, यह भारत ने पहले ही स्पष्ट किया है। भारत इसमें से ‘ग्रीन’ अर्थात् पर्यावरणप्रिय ऊर्जा का अधिक निर्माण करने के प्रयास कर रहा है। पॅरिस की हवामान परिषद के प्रस्ताव को ताक़त देनेवाला ही भारत का यह महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम है। लेकिन यहाँ पर दरअसल पेटंट का कोई भी मुद्दा न रहने के बावजूद भी अमरीका ने रुक़ावट डालकर पॅरिस प्रस्ताव को ही झटका दिया है।

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