डॉ. व्लादिमीर हाफकिन (१८६०-१९३०)

प्लेग के जीवाणुओं की खोज यार्सिन और किटासावे ने की, वहीं कॉलरा के जीवाणुओं की खोज कॉक ने की। जीवाणुजन्य रोगों का प्रतिकार करने का मार्ग पाश्‍चर ने दिखाया। विज्ञान की इस अन्वेषण-गंगा को करोड़ों लोगों तक पहुँचाने का यह कार्य व्लादिमीर हाफकिन ने किया। इसके लिए उन्होंने दिन-रात एक कर शारीरिक-मानसिक कष्ट, आर्थिक विवंचना, दूर दराज़ के इलाकों में जाना इस प्रकार से कड़ी मशक्कत करके सफलता की प्राप्ति कर ली।

व्लादिमीर हाफकिन

उनके पिता शिक्षक थे और बड़े भाई की तनख्वाह भी कम थी। वे रशिया में अपने परिवार सहित रहते थे और वहाँ पर ज्यू लोगों को ना तो छात्रवृत्ति मिलती थी और ना ही रहने के लिए स्थान। इन परिस्थितियों में अठारह वर्ष का व्लादिमीर एक अबोध बच्चा, दूर बसे नोव्होरोसिस्क में जाने के लिए निकल पड़ा। इस बच्चे के पास ना तो पैसे थे और ना ही ठंड से बचने के लिए काम आ सकने वाले ऊनी कपड़े। यदि कुछ था तो केवल एक ही चीज़ थी और वह थी, उनके मन में संशोधक बनने की तड़प, जो इन सभी विपरीत परिस्थितियों में भी रास्ता ढूँढ़ते हुए आगे बढ़ रही थी। इस विश्‍वविद्यालय में व्लादिमीर का संबंध प्रमुख तौर पर प्रो. मेच्निकोव्ह के साथ स्थापित हुआ। व्लादिमीर जैसे होशीयार एवं जिज्ञासु विद्यार्थी से विशेष अध्ययन किये जाने का उन्हें पूरा विश्‍वास था। प्रो. मेच्निकोव्ह को आगे चलकर नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। प्रो. मेन्चिकोव्ह को रशिया में काम करना असंभव लगने लगा। उन्हें जो साध्य करना था, वह क्या रशिया में साध्य हो सकेगा’ ऐसी शंका तो उनके मन में थी ही और व्लादिमर जिनिवा विश्‍वविद्यालय में शरीरशास्त्र के एक प्राध्यापक के रूप में दाखिल हुए। फिर भी यह कोई अपनी मंजिल नहीं है इस बात का ध्यान रखते हुए वे आगे बढ़ने की कोशिश में भी लगे रहें। अन-अपेक्षित तौर पर अचानक एक आशा की किरण उन्हें दिखाई दी। पाश्‍चर संस्था में एक संशोधक के रूप में उनकी नियुक्ति की गई।

दुनियाभर में लाखों लोग कॉलरा जैसी जानलेवा बीमारी के शिकार हो रहे थे। उस वक्त उस बीमारी की रोकथाम करना यह वक्त का तकाजा है यह बात उनके मन में घर कर गई। कॉलरा नामक इस राक्षस की नजर पड़नेवालों के पेट में मरोड़, गला सूख जाना, जुलाब शुरु होना ये लक्षण दिखायी देते थे और फिर कुछ ही घंटों के पश्‍चात् रोगी का काम तमाम हो जाता था। हाफकिन ने प्रतिबंधक इंजेक्शन के बारे में संशोधन करना शुरु कर दिया था। पेरिस के जन्तुशास्त्रज्ञों के समक्ष हाफकिन ने अपने प्रयोग की जानकारी प्रस्तुत की। इस प्रयोग हेतु इंडोचीन, सिलोन, आसाम आदि से कॉलरा के महाभयानक जंतुओं को पाश्‍चर संस्था ने मँगवाया था। आरंभिक समय में यह प्रयोग केवल खरगोशों पर ही किया गया था।

१८९२ में हाफकिन ने कॉलरा के प्रतिबंधक इंजेक्शन स्वयं को ही लगा लिया, छह दिनों के पश्‍चात् और भी एक इंजेक्शन लिया। दूसरा इंजेक्शन था, भयानक जीवित रहनेवाले कॉलरा के जीवाणुओं का। प्रयोग का क्या नतीजा निकलता है, यही चिंता उन्हें सता रही थी। परन्तु उनका स्वयं पर किया गया प्रयोग सफल साबित हुआ। आगे चलकर अन्य लोगों पर भी यह प्रयोग किया गया। हाफकिन कुछ ही दिनों में प्रसिद्धि के झोंके के साथ दुनिया के सामने आ गये। संस्था के प्रमुख डॉ. रॉक्स ने और बीमार पाश्‍चर ने भी हाफकिन का अभिनंदन किया। साथ ही उनके गुरुजी मेच्निकोव्ह को भी शाबासी दी। बिलकुल उम्र के बत्तीसवे वर्ष में ही दुनिया के जाने-माने संशोधकों ने हाफकिन की पीठ थपथपायी।

रशिया, जर्मनी, फ्रान्स में कॉलरा की बीमारी फैली थी। सयाम में भी कॉलरा अपनी पूर्णावस्था में था। फिर भी कोचिन से वे हिन्दुस्तान में भी आयें ऐसी विनति की गई। हिन्दुस्तान में हाफकिन का स्वागत किया गया। कलकत्ता बंदरगाह में पैर रखते ही उन्हें कॉलरा के भीषण रूप का एवं उसके लिए ज़िम्मेदार परिस्थिति का दर्शन हुआ। इसका इलाज यही था कि इस रोग का प्रतिबंधक इंजेक्शन देकर इस रोग को मात देना, अर्थात् लड़ाई का खर्च कम करना; युद्ध क्षेत्र मर्यादित रखना। जनजागृति, शिक्षा, स्वच्छता इस प्रकार की दीर्घकालीन योजना की अपेक्षा सर्वप्रथम इंजेक्शन देकर कम से कम खर्च में यह सब करना उन्होंने पसंद किया। हिन्दुस्तानियों ने पहले तो अपनी इच्छा से यह इंजेक्शन लेना पसंद न कर उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। हाफकिन तथा उनके साथ के डॉक्टरों को लोगों की पत्थरबाजी का सामना करना पड़ा, उनके विरोध का सामना करना पड़ा। हाफकिन ने एक युक्ति सोची। उन्होंने स्वयं ही एक डॉक्टर से यह इंजेक्शन लिया। यह देख अन्य कुछ लोग स्वयं ही आगे आये, इसके पश्‍चात् ‘हमारे पास भी आओ’ इस प्रकार के निमंत्रण उनके पास आने लगे। मृत्यु का प्रमाण अब ७२% कम हो गया।

स्वयं के अंतिम समय में पाश्‍चर ने कहा था कि मेरा ही कोई विद्यार्थी प्लेग अथवा शरीर पिला पड़ जानेवाले बुखार के रोग के जीवाणुओं से मानवजाति को बचाने का उपाय ढूँढ़ेगा और इसके डेढ़ वर्ष पश्‍चात् ही हाफकिन ने मुंबई में प्लेग रोगप्रतिबंधक लस तैयार की। १८९६ की प्लेग की भयंकर बीमारी प्रसिद्ध ही है। १८९४ में चीन में तो ६० हजार लाशे दिखाई दी थीं। हाफकिन आरंभिक समय में मुंबई के ग्रँट मेडिकल कॉलेज के आहाते वाली जगह में रहे थे। एक कारकून एवं तीन सिपाही इतने ही बल पर उन्होंने प्लेग विरोधी युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली थी। हाफकिन के द्वारा तैयार किए गए इंजेक्शनों की माँग दुनियाभर से होने लगी।

शास्त्र के प्रति होनेवाली पूर्ण श्रद्धा एवं लगन के कारण आनेवाली अनंत अड़चनें, विरोध, मान-अपमान आदि का सामना वे कर सके। उनका कार्य जनमान्य हो गया। मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने केवल कृतज्ञता व्यक्त करने वाला प्रस्ताव उन्हें धन्यवाद कहकर पास किया। ‘ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर’ नामक उपाधि उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दे दी। उनकी पुरानी प्रयोगशाला अब मुंबई इलाके के गव्हर्नर निवास में परेल के उस भव्य प्रासाद में स्थलांतरित हो चुकी है। आज ‘हाफकिन इन्स्टिट्यूट’ के नाम से हम उसे जानते हैं।

अपने व्हायोलिन के साथ होनेवाली पुरानी दोस्ती को उन्होंने हमेशा बनाये रखा। हाफकिन स्वयं अविवाहित थे। उनके अनुसार जो विशेष कुछ करना चाहते हैं, उन्हें, खास कर संशोधक को अविवाहित ही रहना चाहिए। क्योंकि जब कभी ऐसा समय आ जाता है तो प्रयोग सर्वप्रथम अपने आप पर ही करना पड़ता है। इसी लिए अपने ही हाथों अपनी पत्नी को विधवा करना उचित नहीं है।

१९१५ में जर्मनी से लड़ने के लिए हिन्दुस्तानी सैनिक ब्रिटीश ने भेजे थे उन सैनिकों को पैराटायफॉइड के प्रतिबंधक इंजेक्शन देने चाहिए। यह सलाह एवं आग्रह का निर्णय डॉ. हाफकिन का था।

हाफकिन मुंबई से यूरोप रशिया आदि स्थानों से भ्रमण करते हुए फ्रान्स में आकर बस गए। अपने जीवन में उम्र के ७० वे वर्ष इस संघर्षमय जीवन जीनेवाले परोपकारी कार्य करनेवाले महान व्यक्ति का अंत हो गया। २७ अक्तूबर १९३० इस दिन को शोक दिवस के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित की गई। दुनिया के सभी नियतकालिकों के समाचार पत्रों के माध्यम से उनके जीवन पर लेख लिखा गया था। नियतकालिकाओं, समाचारपत्रों आदि के माध्यम से उनके जीवन पर लेख लिखा गया था।

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