उदयपुर भाग १

शाम ढल रही थी। अब किसी भी पल अन्धेरा छाकर रात होने के आसार नज़र आ रहे थे। देखते ही देखते अन्धेरा छा भी गया और मेरे सामने के तालाब का जल एक पल में रोशनी से निखर गया। मानो उस पानी में ही लाखों दीये जल उठे हो। यह कैसे हुआ, यह आपभी सोच रहे हैं ना! कई वर्ष पूर्व पिचोला झील के किनारे से यह बेहतरीन नज़ारा मैंने देखा था। आज उदयपुर के बारे में लिखते हुए फिर एक बार वह बेहतरीन नज़ारा मन के परदे पर साकार हो गया।

उदयपुर! राजस्थान का एक बड़ा ही खूबसूरत शहर। हाल ही में एक पत्रिका द्वारा लिए गये एक ऑनलाईन पोल द्वारा उदयपुर यह सैलानियों के लिए तथा पर्यटन-सुविधाओं के लिए एक बेहतरीन शहर के रूप में चुना गया है।

उदयपुर

दूर दूर तक फैली हुई बड़ी बड़ी झीलें (लेक्स्) और इन झीलों में तथा उनके किनारों पर बनाये गये महल, यह आज भी उदयपुर की पहचान है।

दरअसल अरवली पर्वत की प्राकृतिक चहारदीवारी ही इस शहर के निर्माण का कारण बनी, ऐसा कहने में कोई हर्ज़ नहीं है।

महाराणा उदयसिंहजी, जो महाराणा प्रतापजी के पिता थे, उन्होंने इस शहर का निर्माण किया। वह समय था, १६वीं सदी के मध्य का समय। उदयपुर के निर्माण के बारे में ऐसी एक किंवदन्ति बतायी जाती है कि महाराणा उदयसिंहजी एक बार अरवली पर्वत की तलहटी के प्रदेश में शिकार करने आये थे और तब उनकी मुलाक़ात एक महात्मा के साथ हुई। आज जहाँ पर उदयपुर है, उस स्थान पर उन महात्मा ने राजा को एक महल बनाने के लिए कहा। यह किंवदन्ति सच है या झूठ यह तो मालूम नहीं, लेकिन एक बात निश्‍चित है की इन्हीं महाराणा उदयसिंहजी ने उदयपुर का निर्माण किया।

राजस्थान का यह खूबसूरत शहर किसी जमाने में मेवाड़ की राजधानी था। वह समय का़फी जोखिम भरा यानि कि बार बार होनेवाले विदेशी आक्रमणों का सामना करने का समय था। उस समय ‘चितोड़’ यह मेवाड़ की राजधानी थीऔर चितोड़ के वीर विदेशी आक्रमणों का मुँहतोड़ जवाब दे रहे थें। मेवाड़ पर ६वीं सदी से लेकर १२वीं सदी तक ‘गुहिलोत’ वंश का शासन था। यह वंश मेवाड़ के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण वंश है। इस वंश के मूल पुरुष ‘गुह’ माने जाते हैं। इनका जन्म गु़फा में होने के कारण वे ‘गुहिल’ अथवा ‘गुहादित्य’ इन नामों से भी जाने जाते थेऔर उनका वंश आगे चलकर ‘गुहिलोत’ नाम से जाना जने लगा। भाट-चारणों के गीतों में इस वंश के संस्थापक के रूप में  ‘बाप्पा रावळ’ का उल्लेख किया जाता है। लेकिन एक बात निश्‍चित है कि प्राचीन समय में मेवाड़ पर गुहिलोत वंश का शासन था।

आगे चलकर यह वंश दो शाखाओं में विकसित हुआ – रावळ और राणा। रावळ मेवाड़ के शासनकर्ता थे और राणा शिसोदा में शासन करने लगे। कुछ समय बाद मेवाड़ के शासक और उनके पुत्र विदेशी आक्रमण में मारे गये, जिससे कि रावळ वंश समाप्त हो गया और फिर इसके बाद शिसोदा पर शासन करनेवाले राणा मेवाड़ के शासक बन गये। शिसोदा के शासक होने के कारण यह राजवंश ‘शिसोदिया’ अथवा ‘सिसोदिया’ नाम से जाना जाता था। यह हुई मेवाड़ के राजकीय इतिहास की पार्श्‍वभूमि।

इसी शिसोदिया अथवा सिसोदिया नामक राजवंश में जन्म हुआ, महाराणा उदयसिंहजी का। उस समय विदेशियों के, विशेष रूप से मुग़लों के बार बार आक्रमण होते रहते थे। राजपूत वीर इन आक्रमणों का मुँहतोड़ जबाव देते थे। इसी दौरान १६वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उदयसिंहजी मेवाड़ के महाराणा बन गये। इतिहास के अनुसार इन आक्रमणों के दौरान इनका कुछ खास कर्तृत्व दिखायी नहीं देता। अकबर ने १६वीं सदी के उत्तरार्द्ध में चितोड़ पर आक्रमण किया। दर असल इसी आक्रमण के पूर्व उदयसिंहजी ने उदयपुर का निर्माण किया था; लेकिन तब तक उस शहर का कुछ खास विस्तार नहीं हुआ था। इसीलिए वहाँ जाकर बसने में का़फी मुश्किलें थी। फिर उदयसिंहजी ने चितोड़ को छोड़कर कुंभलगड़ का आसरा लिया। चितोड़ में हजारों वीरों ने जान की बाज़ी लगायी। लेकिन अंत में इन वीरों का बलिदान और हज़ारों महिलाओं द्वारा किया गया जौहर, इस करुण अंत के साथ चितोड़गढ़ विदेशियों के कब्ज़े में चला गया। इतने अरसे तक मेवाड़ की राजधानी रहा चितोड़ अब दुश्मन के कब्ज़े में चला गया।

आगे चलकर कुंभलगड़ पर बसनेवाले उदयसिंहजी ने स्वयंनिर्मित उदयपुर शहर में डेरा जमाया और उदयपुर को राजधानी का दर्ज़ा दिया गया। उदयपुर का़फी अरसे तक मेवाड़ की राजधानी रहा। अंग्रेज़ों का शासन भारत में लागू होने के बाद उदयपुर को ‘प्रिन्सली स्टेट’ का दर्ज़ा दिया गया।

दरअसल उदयपुर यह एक सुरक्षित राजधानी थी और इसीलिए चितोड़गढ़ पर बार बार हमला करनेवाले विदेशी हमलावर उसे जीतने में कामयाब नहीं हो सके। इसमें अहम भूमिका निभाता है, उदयपुर का भौगोलिक स्थान। उदयपुर के चारों ओर स्थित अरवली की पहाड़ियाँ उदयपुर की प्राकृतिक चहारदीवारी ही है।

उदयपुर का जन्म ही राजधानी के शहर के रूप में हुआ। उदयसिंहजी के शासनकाल से यहाँ पर शिसोदिया राजवंश का शासन रहा, जो अंग्रेज़ों के समय तक चला।

उदयपुर पर कई शिसोदिया शासकों ने राज किया। उनमें से हर एक शासक ने इस शहर की रौनक बढ़ाने की कोशिशें कीं। लेकिन इन सब के सिरताज़ जिन्हें हम कह सकते हैं, ऐसे शासक थे महराणा प्रतापजी। भारतीय इतिहास में योद्धा महाराणाजी का पराक्रम अतुलनीय है। आज भी राजस्थान की वीरभूमि महाराणाजी का गुणगान करते हुए कहती है – ‘माते एहड़ा पूत जण जेहड़ा राणा प्रताप। जो अकबर सोवे तो लगे सिर्‍हाणे साँप॥

उदयपुरस्थित ‘मोती मगरी’ में महाराणाजी के स्मारक पर अंकित की गयी कई पंक्तियों में से यह एक पंक्ति है।

उदयपुर के ये शासक निरंतर एक योद्धा की तरह जिये। विदेशियों से अपनी मातृभूमि की सुरक्षा करना यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। दर असल उदयसिंहजी ने उनके पश्‍चात् अपने लाड़ले बेटे को राजगद्दी पर बिठाये जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी, लेकिन उसमें बहादुरी का वह हुनर नहीं था, जो महाराणाजी में था। इसलिए राजपूत सरदारों ने महाराणा प्रतापजी को अपने शासक के रूप में चुना। बहुत ही थोड़ी सी सेना के बल पर महाराणाजी ने कई बार, कई स्थानों पर दुश्मन को क़रारी मात दी। महाराणा प्रतापजी का नाम लेते ही याद आती है, हलदीघाट की जंग और महाराणाजी का स्वामीनिष्ठ घोड़ा चेतक, इनकी।

मुग़लों ने मेवाड़ के अधिकांश हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था, जिसे महाराणाजी ने पुन: जीत लिया। महाराणाजी के बाद उनके बेटे ने राजगद्दी सँभाली। १९वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक मेवाड़ पर शिसोदिया राजवंश का राज रहा और उदयपुर नगरी रही, उनकी राजधानी।

चालाक़ अंग्रेज़ एक के बाद एक करके भारत के प्रदेशों को निगल रहे थे और मेवाड़ पर भी उनकी नज़र थी ही। संपूर्ण मेवाड़ प्रान्त को उन्होंने मेवाड़ रिजन्सी का दर्ज़ा दिया, लेकिन उसका मध्यवर्ती केन्द्र उदयपुर ही रहा। मेवाड़ के शासक अंग्रेज़ों के मांडलिक बन जाने के कारण मेवाड़ पर सत्ता स्थापित करने में अंग्रेज़ों को ना ही किसी भी प्रकार की कोई दिक्कत आयी और ना ही किसी भी प्रकार के विरोध का सामना करना पड़ा।

भारत के आज़ाद होने के बाद उदयपुर के शासक आज़ाद भारत में सम्मीलित हुए और उदयपुर राजस्थान का एक हिस्सा बन गया। उदयपुर की स्थापना से लेकर आज तक इस शहर का स़फर, मेवाड़ की राजधानी के शहर से लेकर सैलानियों को लुभानेवाला, दर असल सैलानियों ने जिसपर सर्वोत्तमता की मुहर लगायी है ऐसा बेहतरीन बेजोड़ शहर, इस तरह हुआ है।

उदयपुर की इस मिट्टी में शूरता और सुन्दरता का अनोखा मिला़प है। उदयपुर की प्राकृतिक सुन्दरता है, अरवली की पहाड़ियाँ और उनके इर्दगिर्द स्थित वन-उपवन। हम उदयपुर को राजस्थान के रेगिस्तान का नन्दनवन कह सकते हैं। क्योंकि मीलों मील तक चलने के बाद भी बड़ी मुश्किल से मिलनेवाली एक बात यहाँ पर बहुत बड़े पैमाने पर उपलब्ध है। कौनसी? शायद अब तक आप समझ ही चुके होंगे। जी हाँ,जल। यह जल ही उदयपुर की सुन्दरता का एक अविभाज्य अंग है। कैसे? चलिए, देखते हैं।

उदयपुर में कई मानवनिर्मित यानि कि खोदाई करके बनायी गयी झीलें (लेक्स) हैं। ये झीलें तथा इन झीलों के किनारे बनाये गये राजमहल, इस शहर की सुन्दरता को बढ़ाते हैं। ये दोनों सौंदर्यस्थल मानवनिर्मित हैं।

राजस्थान की मरुभूमि में, जहाँ पानी की का़फी क़िल्लत है, वहाँ के पुराने निवासियों ने इस समस्या को हल करने के लिए तथा खेती करने और पीने के लिए ज़रूरी रहेनेवाले जल की आपूर्ति होती रहे, इस उद्देश्य से यहाँ पर इस तरह की झीलों की खोदाई की है। उदयपुर और उसके आसपास के इला़के में जिसका उल्लेख पहले किया है वह पिचोला लेक, साथ ही फतेसागर, जयसमंद, राजसमंद, उदयसागर जैसी कई झीलें हैं। दर असल ये झीलें इस शहर की पहचान भी हैं और इसीलिए उदयपुर को ‘सिटी ऑफ लेक्स्’ (झीलों का शहर) कहा जाता है।

उदयपुर की सुन्दरता को आँखों से निहारने का आनन्द कुछ और ही है। चलिए, झीलों की इस नगरी की सैर झीलों के किनारे पर से ही करते हैं। मग़र उसके लिए हमें इन्तज़ार करना होगा, अगले ह़फ़्ते तक।

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