अस्थिसंस्था – भाग – ७

अस्थिसंस्थाअस्थिसंस्था – हमारी छाती का पिंजरा पीछे की ओर कशेरुकाओं से जुड़ा होता है। अब हम इसके बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। परन्तु उसके पहले कशेरुकाओं से संबंधित एक मनोरंजक कथा देखते हैं। कुल ३३ कशेरुकाओं में से गर्दन की पहली दो कशेरुकाओं का नामकरण हो चुका है। इनके अनुक्रम से अ‍ॅटलास और अँक्सीस (Atlas/Axis) नाम हैं। अ‍ॅटलास प्राचीन ग्रीक देवता का नाम है। ग्रीक पुराणों के अनुसार हमारी पृथ्वी अधांतरी अथवा निराधार नहीं है, बल्कि उसे इस अ‍ॅटलस देवता ने अपने हाथों पर संभाल रखा हैं। मानव के शरीर को ध्यान से देखा तो पता चलता हैं कि गर्दन की पहिली मणिका के ऊपर कवटी (खोपड़ी) का गोला है। मानों इस पहली कशेरुका ने खोपड़ी के गोला को संभाल रखा है। इसी लिए उसे अ‍ॅटलास का नाम दिया गया।

अब हम छाती के पिंजरे के बारे में जानकारी  लेंगे। छाती का पिंजरा (Thoracic cage) के प्रमुख भाग इस प्रकार  होते हैं –

१)स्टरनम – छाती के बीच की  हड्डी
२)कॉस्टल कार्टिलेजेस
३)पसुडियां

इन सब की आवश्यक जानकारी अब हम प्राप्त करेंगे।

स्टरनम

हमारी छाती में सामने की ओर मध्यभाग में जो हाड है उसे स्टरनम कहते हैं। पृथ्वी पर रहने वाले सस्तन प्राणियों में ही ये हाड़ पाये जाते हैं। इसका अपवाद  सिर्फ ‘सील’ मछली है। इसके तीन मुख्य भाग होते हैं। गर्दन की ओर का सँकरे हिस्से को मॅनुव्रियम स्टर्नी कहते है। बीच का लम्बा भाग मिसोस्टरनम अथवा हाड का मुख्य शरीर (लेवू) कहा जाता है। पेट की तरफ का अंतिम भाग छोटासा होता है उसे झिफिस्टर  कहते हैं। इस हाड़ की पूरी लम्बाई पुरुषों में १७ सेमी होती हैं। इसकी लम्बाई थोड़ी कम होती है। इसके नीचे का अंतिम सिरा थोड़ा आगे अथवा सामने की ओर झुका हुआ होगा। यह हाड़ सामने से गोलाकार (convex) तथा पीछे की ओर गहरा होता है।

स्टरनम का बाहरी भाग मजबूत लॅमेजर अस्थि का होता हैं। इसकी मोटाई मॅनुब्रियम में सबसे ज्यादा होती है। अंदर का भाग पूरी तरह ट्रॅवॅक्युलर अस्थि का  होता है। इसमें लाल अस्थिमज्जा (Red marrow) भरपूर होता है। छोटी उम्र में व बड़ी उम्र में हमारी रक्तपेशी वजन बढ़ाने वाला बड़ा केन्द्र  होता है।

पसुडियाँ-

पसुडियां हमारी छाती के पिंजरे का प्रमुख  अंग  है। यह मुलायम धनुष्याकृती अस्थि होती है। सभी पसुडियां पीछे की ओर कशेरुकाओं से जुड़ी होती हैं। कभी-कभी इससे ज्यादा और कभी-कभी इससे कम भी होती हैं। इनमें से पहली सात जोड़ी सामने की ओर कॉस्टल कार्टिलेज  के द्वारा स्टरनम से जुड़ी हुयी होती हैं। अगली तीन जोड़ीयां (८ से १० नं.) उनके ऊपर की पसुडियों की कार्टिलेज से जुड़ी होती हैं। आठवी पसुड़ी, सातवीं पसुड़ी से, नववी आठवी से व दसवी नववी से जुड़ी होती हैं। अंतिम दो पसुड़ीयों (११ व १२) के सामने के सिरे खुले ही होते हैं। इसीलिए इन्हें तैरनी वाली पसुड़ीयां कहते हैं। दो पसुड़ीयों की बीच के स्थान को इंटरकॉस्टल स्पेस कहते हैं। पहली पसुड़ी से लेकर सातवी पसुड़ी तक इनकी लम्बाई बढ़ती जाती है। आगे चलकर बारहवी पसुड़ी तक कम होती जाती हैं। पीछे से आगे की ओर इनकी चौड़ाई बढ़ती जाती है। प्रथम दो व अंतिम तीन पसु़डियों की कुछ खास विशेषतायें हैं। बीच की सात पसु़डियां एक जैसी होती हैं। प्रत्येक पसुड़ी पीछे की ओर छाती की कशेरुकाओं से जुड़ी हुयी होती है। प्रथम पसुड़ी छाती की पहली कशेरुका से तथा बारहवी कशेरुका से जुड़ी होती हैं।
कॉस्टल कार्टिलेजेस – कार्टिलेज अर्थात कूर्चा (तंतु)। इसकी कूर्चा हायलाईन प्रकार की होती हैं। प्रत्येक पसुड़ी के सामने के सिरे से आगे यह कार्टिलेजेस होते हैं। यह किसी सपाट सरिया की तरह दिखायी देती है। पहली  पसुड़ी से लेकर सातवी पसुड़ी तक इसका दूसरे सिरे स्टरमन से जुड़े होते हैं। आठवे, नववे, व दसवे कार्टिलेज उसके ऊपर के कार्टिलेज से जुड़े होते हैं। पसु़डियों की तरह प्रथम सात कार्टिलेजस की लम्बाई बढ़ती जाती है तथा आगे चलकर कम होती जाती है।

अब तक हमने हमारी छाती के पिंजरे की रचना देखी। यदि अब हम यह विचार करें कि आखिर छाती के पिंजर के कार्य क्या है? – तो प्रथम कार्य है ‘अंदर के महत्त्वपूर्ण अवयवों का रक्षण करना।’ ऐसा ध्यान में आता है। सही है। परन्तु उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण कार्य है वो है श्‍वसन में सहायता करना। छाती का पिंजरा ऊपर की ओर संकरा  तथा नीचे की ओर फैलता जाता है। इसके नीचे की ओर छाती व पेट  को विभाजित करनेवाला द्विभाजक परदा होता है। सिफिस्टर्नम व नीचे की पसुड़ीयों से यह जुड़ा होता है।

प्रत्येक दो पसुंडियों के बीच में रिक्त स्थान होता है उसे इंटरकास्टल स्पेस कहते हैं। इस स्थान पर इंटरकास्टल स्नायु होते हैं। ये स्नायु श्‍वसन क्रिया में मदत करते हैं। जब हम श्‍वास अंदर लेते हैं तो हमारी छाती का पिंजरा फूल जाता है तथा श्‍वास बाहर छोड़ते समय यह सिकुड़ जाता है। पसु़डियों के लचीला होने के कारण  यह संभव होता हैं। यदि किन्हीं कारणों से किसी व्यक्ति की पसुंडियों का  लचीलापन कम हो जाये तो उसे श्‍वास लेने में कठिनाई होने लगती है।

पसु़डियों के साथ-साथ स्टरनम भी ऊपर-नीचे हिलता-डुलता रहता है। अत: यदि कोई जोरदार आघात अथवा  दाब छाती पर  पड़ जाये तो भी इन हड्डियों का  फ्रैक्चर कम ही होता है। यदि पसुड़ी का टूटा हुआ भाग अथवा सिरा अंदर की  ओर मुड जाये तो इसस  अंदर के महत्त्वपूर्ण अवयवों को नुकसान पहुँच सकता है

अ‍ॅक्सिअल अस्थिसंस्था का गर्दन से लेकर  नीचे तक के भाग का अध्ययन हमने कर लिया।

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