श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९१

रोहिले की कथा के अनेक पहलुओं पर हमने विचार किया और कुछ यदि मेरी समझ में नहीं भी आया तब भी ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन निरंतर करते रहना ही हमारे लिए परमहितकारी है, परम श्रेयस्कर है, इतनी बात भी यदि हम ध्यान में रख लेते हैं तब भी काफ़ी है। क्योंकि यहीं पर हमें पता चलता है कि बाबा हमसे क्या चाहते हैं। साईनाथ स्वंय दिनरात मेरे विकास के लिए प्रचंड परिश्रम कर ही रहे हैं। मुझे बाबा की कृपा को अपने जीवन में प्रवाहित करने के लिए सदैव ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते रहना चाहिए। साईनाथ का गुणसंकीर्तन इसीतरह से प्रेम में मदहोश होकर करना चाहिए। साईनाथ को इसीप्रकार से प्रेम में मदहोश होकर गुणसंकीर्तन करनेवाला भक्त ही पसंद आता है।

जिसे हरिनाम का कंटाला। बाबा भी दूर रहना चाहते हैं ऐसों की संगति से।

कहते व्यर्थ ही क्यों रोहिले को भगा देना। जो भजन में ही मग्न रहता है॥

मद्भक्ता यत्र गायंति’ तिष्ठित रहता मैम वहाँ उन्निद्रस्थिती में।

सत्य करने इस भगवदुक्ति को । ऐसा अनुभव दिखाया॥

(जयासी हरिनामाचा कंटाळा। बाबा भीती तयाच्या विटाळा। म्हणता उगा कां रोहिल्यास पिटाळा। भजनीं चाळा जयातें॥ ‘मद्भक्ता यत्र गायंति। तिष्ठें तेथें मी उन्निद्र स्थिती। सत्य करावया हे भगवदुक्ती। ऐसी प्रतिति दाविली॥)

रोहिले की कथा यद्यपि काल्पनिक थी तथापि वह हम सब के लिए अत्यन्त मार्गदर्शक है। श्रीअनिरुद्ध ने श्रीसाईसच्चरित पंचशील परिक्षा के पंचमी परिक्षा के लिए होनेवाली प्रात्यक्षिक परिक्षा के लिए होनेवाली प्रात्यक्षिक पुस्तिका में (जनरल में) ध्वनिशास्त्र प्रॅक्टिकल १९ में रोहिले की कथा एवम् ध्वनिशास्त्र का संबंध काफ़ी सुंदर तरीके से स्पष्ट किया है उसे मूलत: वहीं पर पढ़ना अधिक श्रेयस्कर है। वहाँ पर श्रीअनिरुद्धजी ने रोहिला एवं रोहिली इन रूपकों का अत्यन्त सुंदर वर्णन किया है।

रोहिला अर्थात भावविवेक तथा रोहिली यह दुर्बुद्धि है। प्रबोधवाणी का उच्चारण करनेवाला भावविवेक अर्थात रोहिला और इस भावविवेक का साईनाथ की ओर जाने का मार्ग में बाधा उत्पन्न करनेवाली दुर्बुद्धि अर्थात रोहिली। यह दुर्बुद्धि अर्थात वासना फलाशा। यह दुर्बुद्धि अर्थात कोई न कोई बहाने (एस्क्युजेस) बनानेवाली कुमति। यह बहाना बाजी करनेवाली बुद्धि ही मेरे सर्वांगीन विकास के आड़े आती रहती है।

शिरडी अर्थात शैलधि, बुद्धि की नौका। यह सारी कथा शिरडी में ही अर्थात बुद्धि के सर्वोच्च प्रदेश में घटित होती है। अर्थात यह कथा मन जब बुद्धि के अधिपत्य में होता है, रोहिला जब शिरडी में वास करता है। उस वक्त घटित होनेवाली कथा है। उत्क्रान्त स्थिति में मन को अग्रीम प्रवास न करने देने के लिए रोहिलीरूपी दुर्बुद्धि यहाँ पर घुसने की कोशिश कर रही है। उसी प्रकार इस कथा के ग्रामवसी अर्थात आज तक जीवद्वारा अर्जित किय गया विभिन्न संस्कार, विभिन्न आवरण। जीवन के घेरे में घँस चुकी वृत्तियाँ अर्थात ये ग्रामवासी। कोल्हू के बैल के समान चक्कर लगाते रहनेवाली मनोवृत्ति अर्थात ये ग्रामवासी।

ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन के कारण ही भावविवेक जागृत हो जाता है अर्थात यह रोहिला सक्रिय रहता है। साई की मुलाकात में ही, प्रथम मुलाकात में ही यह रोहिला प्रचंड उत्कटता प्राप्त कर लेता है। और तीव्रगति के साथ अपना प्रवास आरंभ कर देता है। ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन में रम जाने की उत्कटता, तल्लीनता उसे प्राप्त होती है। वह श्रीसाईनाथ की कृपा से ही। गुणसंकीर्तन के कारण देह में होनेवाले महाप्राण, महाप्रज्ञा के साथ अनुसंधान साध्य करता है और यह महाप्रज्ञा आत्माराम को जीवन में सक्रिय बनाती है। उन्निद्र स्थिति में ये साईराम मेरे जीवन के ‘कर्ता’ बन जाते हैं। साक्षीभाव में रहनेवाले ये आत्माराम उन्निद्र स्थिति में अर्थात क्रियाशील बनकर मेरे जीवन के सूत्र स्वयं अपने हाथों में ले लेते हैं।

ऐसी स्थिति में ही नियमबद्ध गृहस्थ वृत्तियों को यह ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करनेवाला भावविवेकरूपी रोहिला कष्टदायी लगने लगता है। वे गिड़गिड़ाते हुए आकर आत्माराम से शिकायत करते हैं कि हम मेहनत मजदूरी करते हैं, जो विचार करते हैं, इसके लिए हमें ‘मोहनिद्रा’ अति आवश्यक है। निंद में जिस तरह मनुष्य सुखी रहता है ऐसा उसे लगता है, वह स्वप्न में मशगुल रहता है। बिलकुल वैसे ही हमारा मन भी मोह में मशगुल रहता है। यही मन की मोह के आधीन होने की वृत्ति अर्थात मोहनिद्रा।

भावविवेक सक्रिय हो जाने से यह मोहनिद्रा भंग हो जाती है। मन सदैव वास्तविकता के साथ जुड़ा रहता है और सत्य के साथ बंधा रहता है। इसीलिए इन ग्रामवासियों का अर्थात मोह में फँसी हुई वृत्तियों की शिकायतों की ओर ध्यान न देना यही महत्त्वपूर्ण बात है। श्रीसाईनाथ स्वयं इस कथा में उन्हें खदेड़कर बाहर कर देते हैं और रोहिले को ही बल देते हैं। हमे अपने जीवन में जब कभी भी मोहनिद्रा एवं मोहाधीन वृत्तियाँ सिर उठाकर शोर मचाकर झूठे इल्जाम लगाने लगती हैं, उस वक्त इस कथा से सीख लेकर उनकी ओर अनदेखा, अनसुना कर देना चाहिए क्योंकी इससे होता यह है कि दुर्बुद्धि रूपी रोहिली भी अपने आप ही भगा दी जाती है।

चिल्लाना रूकते ही सुअवसर जान। घुसने की कोशिश में लग जाती है यह दुष्ट दुर्बुद्धी।

उसके चिल्लाते ही यह भाग जाती है दूरदूर तक। सुखसमृद्धि मुझे मिलती॥

(ओरडूं थांबे तेचि संधी। शिरुं पाहे रांड दुर्बुद्धी। तो ओरडतां ती पळे त्रिशुद्धी। सुखसमृद्धी मज तेणें॥)

ईश्‍वर के गुणसंकीर्तनसे ही ‘त्रिशुद्धि’ साध्य की जाती है। वाणी धीमी है, या जोरदार है, कर्कश है या सुमधुर है, जिस क्षण स्फ़ुरित होती है उसी क्षण हरिनाम गर्जन होने लगना अधिक महत्त्वपूर्ण है। शरीर, मन एवं बुद्धि इन तीनों की ही शुद्धी ईश्‍वर के गुणसंकीर्तन से होती है और यह त्रिशुद्धि जीवन में सदैव रहेगी तो प्रज्ञापराध कभी होगा ही नहीं। इससे प्रारब्ध का भोग तो नष्ट होगा ही साथ ही हरिकृपा भी संपूर्ण जीवन में प्रवाहित होती ही रहेगी।

ईश्‍वरीय गुणसंकीर्तन की प्रबोधवाणी और ग्रामवासियों की व्यर्थ की शिकायतें इनमें साईनाथ को विजय चाहिए, उस प्रबोध वाणी का, भावविवेक का। मेरे जीवन में भी सदैव इन दोनों के बीच तुंबल युद्ध शुरु ही रहता है। मन में ईश्‍वर का गुणगान एवं गृहस्थी की खोखली शिकायतें इनमें दिनरात द्वंद्व चलता ही रहता है। इनमें मुझे यदि प्रबोधवाणी को विजयी बनाकर खोखली शिकायतों को परास्त करने की इच्छा है तो रोहिले की तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने इस श्रीसाईनाथ के शरण में जाकर ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते ही रहना यह सहज आसान राजमार्ग है।

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