श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-७८

रोहिले की कथा के पन्ने पलटते हुए हम उससे सीख भी ग्रहण कर रहे हैं। यह सब करने का हमारा उद्देश्य यही है कि इस कथा के माध्यम से मुझे क्या सीखना है? इस कथाद्वारा दी गई कौन सी सीख लेकर मुझे अपनेआप में क्या परिवर्तन करना चाहिए? श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन मुझे कैसे करना चाहिए? रोहिले की कथा आंतरिक स्तर पर भी घटित होती रहती है और ऐसी ही घटना मेरे जीवन में घटित होते समय मुझे क्या करना चाहिए इस बात पर हम विचार कर रहे हैं।

शिरडी में यदि बाबा कुछ दे रहे होते और रोहिला वह लेने के लिए आता तो शायद वह रोहिली उसके पास आनंदपूर्वक रही होती। मन एवं इच्छा इनका जो रिश्ता है, मन एवं कामनाएँ इनका जो रिश्ता है वही उस जत्गा जे अन्तर्गत रोहिला एवं उसकी पत्नी रोहिली का है। रोहिला यह मन का प्रतिनिधित्व कर रहा है एवं रोहिली यह वासना का प्रतिनिधित्व करती है। कभी भी तृप्त न होनेवाली इच्छा अर्थात वासना और यही इस कथा की रोहिली है। रोहिला अर्थात मन जब तक सकाम भक्ति करते रहता है, तब तक इस रोहिली को अर्थात अतृप्त कामना को कोई भी अड़चन नहीं होती है। उलटे वह ‘जो चाहिए वह चाहिए ही’ इसीलिए भक्ति करने के लिए वह रोहिले को उद्युक्त करती है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईआरंभ में भले ही हम सकाम भक्तिकरते रहे और आगे भी हमारे सांसारिक तकलीफों आदि के प्रति हम साईनाथ के समक्ष हाथ फैलाते रहते हैं, तब भी कोई बात नहीं। एक बार यदि श्रीसाईनाथ को मैं अपने जीवन का कर्ता, अपना राजा यदि मान लेता हूँ तो फिर अन्य किसी के भी समक्ष हाथ फैलाने की बजाय बबा के पास ही जो कुछ भी माँगना हो वह माँगनाही उचित है। परन्तु केवल माँगने के लिए ही यदि मैं भक्ति करता हूँ तो फिर यह उचित नहीं है। केवल भक्ति के लिए भक्ति, केवल ये साईनाथ ही मुझे चाहिए इसलिए भक्ति करना मुझे अपने विकास के लिए आवश्यक है। इसीलिए धीरे-धीरे इच्छापूर्ति हेतु भक्ति करने की वृत्ति को छोड़कर बिनालाभ प्रिती होनेवाली निरपेक्ष भक्ति की वृत्ति मुझे बढ़ाते रहनी चाहिए।

हम मोहवश भक्ति करते हैं, लोभवश भक्ति करते हैं परन्तु हमें मुख्य तौर पर इस बात का ध्यान करना चाहिए कि लोभ एवं मोह इनसे जो युक्त है, वह भक्ति सच्ची भक्ति हो ही नहीं सकती है। सच्ची भक्ति वही होती है जिसमें निर्लोभी, निर्मोही गुण होता है इसीलिए उसे ‘बिनालाभ प्रिती’ कहते हैं। लोभ एवं मोह, इनमें लोभ एवं उसके आगे ममत्व की भावना होती है और वह भक्ति में कभी होती ही नहीं। ममत्व का अर्थ है ‘यह मेरा, वह मेरा’ यह वृत्ति साथ ही अपने पास जो है उसे बढ़ाना, संग्रह करना, उसे संभालना यह सब मोह के साथ होता ही है। हमें मोह के जाल में फँसकर, लोभ में फँसकर नहीं बल्कि साईनाथ के गुणों से मोहित होकर शिरडी में आना चाहिए।

श्रीसाईसच्चरित में अनेक भक्त शिरडी में आते हैं। बाबा ‘किसी को कुछ तो किसी को कुछ’ इसतरह से जिसके लिए जो उचित वह देकर श्रद्धा का खुंटा मजबूत कर सकामता की ओर से निष्कामता की ओर इस हर एक भक्त का प्रवास होते रहने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं। बाबा की इच्छा मात्र एक ही होती है कि मेरे पास आनेवाले हर एक का उचित विकास हो सके इसीलिए उसे कामनाग्रस्त से छुड़ाकर निरपेक्ष प्रेम की ओर ले जाये। एक कुशल वैद्य जैसे रूग्ण को कड़वी औषधि देने से मना कर देता है, सर्वप्रथम वह उस रूग्ण को शहद चटाकर धीरे से उसी शहद के साथ कड़वी औषधि उसे पिला देता है। यहाँ पर ये महाधन्वतरि, सर्वोत्तम बड़े डॉक्टर होनेवाले साईनाथ भी आनेवाले भक्तों की उचित कामनापूर्ण कर उन्हें सही भक्तिमार्ग पर ले ही आते हैं।

साईनाथ हमारी सभी मन्नतें पूरीकरते हैं इसीलिए हम भागकर बाबा के पास पहुँच जाते हैं। कोई बात नहीं। कम से कम इसी बहाने ही क्यों ना हो हम बाबा के पास जाते तो हैं परन्तु केवल इतनी सी बात के लिए ही मैं बाबा के पास जाता हूँ क्या? इस बात का विचार मुझे स्वयं ही अन्तर्मुख होकर करना चाहिए। शिरडी में मैं अनेक बार गया हूँ, परन्तु हर बार कुछ न कुछ माँगने के लिए ही। क्या एक बार भी मैं रोहिले के समान गया हूँ?

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वहीं पर काफ़ी दिनों तक रहा। प्रेम लुटाता रहा बाबा के प्रति॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तोही बाबांचे गुणांसी मोहिला। तेथेंचि बहुत दिन राहिला। प्रेमें वाहिला बाबांसी)

हम अपने मोहवश, लोभ में आकर ही शिरडी जाते हैं या बाबा के गुणों से मोहित होकर शिरडी जाते हैं, इस बात का विचार हमें करना चाहिए। हम शिरडी जाते हैं, साईनाथ से मिलते हैं, बाबा का दर्शन लेते हैं और जो कुछ भी फूल-हार अर्पण करना हो वह कर देते हैं। हम जो कुछ भी मन्नत माँगते हैं, वह भी पूरी कर देते हैं। यह सब तो मैं भक्तिभाववश करता हूँ इसमें कुछ भी गलत नहीं। कोई चंपा का हार चढ़ाना चाहता है, कोई बात नहीं। कोई यदि चाहता है कि वह गुलाब का फूल ही चढ़ाये, कोई बात नहीं। मैं यदि चाहता हूँ महावस्त्र चढ़ाऊँ कोई बात नहीं और यदि मैं चाहता हूँ कि मैं फूल की पंखुड़ी ही चढ़ाऊँ तब भी कोई बात नहीं। प्रेम एवं श्रद्धापूर्वक जो कुछ भी भक्त अर्पण करता है, वह सभी कुछ बाबा तक पहुँच ही जाता है और भक्त क्या अर्पण कर रहा है इसकी अपेक्षा वह कितने प्यार से अर्पण कर रहा है इसी पर सब कुछ निर्भर करता है। परन्तु यह सब अर्पण करते समय कभी तो हमारे मन में यह विचार आया है क्या कि मैं स्वयं अपने आप को ही श्रीसाईनाथ के चरणों में अर्पण करूँ। ‘प्रेम लुटाता रहा बाबा पर’ रोहिले के इस गुण को हमें आत्मसात करना चाहिए। हम ऊद अर्पण करते हैं, माला अर्पण करते हैं, जो कुछ भी अर्पण करना चाहते हैं वह करें, परन्तु यह अर्पण करते समय मन में यह भाव अधिकाधिक बढ़ाता ही रहूँ कि आज यह जो कुछ भी मैं श्रीसाईनाथ के चरणों में अर्पण कर रहा हूँ, उसीतरह मैं स्वयं ही अपने-आप को अपने इस श्रीसाईनाथ के चरणों में अर्पण कर रहा हूँ। हे श्रीसाईनाथ मुझे आपने क्या कुछ नहीं दिया। भरभराकर दिया है और आगे भी देते ही रहोगे। बाबा आज मुझे जो माँगना था वह तो मैंने माँग ही लिया। परन्तु बाबा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मैं स्वयं को ही आपके चरणों में अर्पण करना चाहता हूँ। मुझे केवल आप ही चाहिए।

यहीं पर ही हमें आद्यपिपा द्वारा कही गई पंक्तियों का बारंबार स्मरण होता है। रोहिला जैसे ‘प्रेमे वाहिला बाबासी’ (बाबा के प्रति प्रेम लुटाता रहा) बिलकुल वैसे ही मैं भी अपने-आप को पूर्णरूपेण बाबा के चरणों में

अर्पण कर ही दूँगा। यह निश्‍चय हमें करना चाहिए।
मेरा अपना कुछ भी नहीं। सर्वस्व आपका ही है प्रभु।
आपका रहे आपके पास। मैं ही बनजाऊँ आपका॥
(माझे तरी काय असे। सर्व तुझेचि रे देवा। तुझे असो तुझ्यापाशी। मीच होय तुझा॥)

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