श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२४)

श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन का मार्ग हेमाडपंत ने स्वीकार किया कारण यही साईनाथ की इच्छा थी। श्रद्धावान अपना कर्मस्वातंत्र्य साईनाथ के चरणों में अर्पण कर साईनाथ की इच्छा का, उनके आज्ञा की परतंत्रता स्वीकार करता है, पूर्ण आनंद के सातह क्योंकि उसे इस बात का पूरा विश्‍वास होता है। साईनाथ की परतंत्रता में ही सच्चा सुख है। प्रारबध की परतंत्रता को हम अपने पर खींच लेते हैं वह अपने स्वयं के स्वतंत्रता के गलत उपयोग के कारण। कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग यही होता है सद्गुरु श्रीसाईनाथ की आज्ञा में रहना, ‘साईनाथ तंत्रता’ का स्वीकार करना।

साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते समय हेमाडपंत का भाव भी कितना सुंदर है। ‘साईनाथ ने कहा, है उस भूमिका को निभाने के लिए तो बस उसे जैसे-तैसे पूरी कर दूँ’ ऐसा उस श्रद्धावान का भाव बिलकुल नहीं। साईनाथ के आज्ञा का पालन करते समय मेरी इच्छा है या नहीं इसके बारे में बगैर कुछ सोचे-समझे ‘बाबा ने कहा है उसी में मेरी भलाई है’। इस दृढ़भाव के साथ पूरे प्रेम के साथ उस कार्य को करना चाहिए, यही हम यहाँ पर सीखते हैं।

मुझे अच्छा लगे या ना लगे। तुम जो चाहते हो वही हो।
यही माँग करते हुए। जीभ मेरी न डगमगाने पाये॥

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई‘मुझे अच्छा लगे था ना लगे, परन्तु जो तुम चाहते हो, वैसा ही हो और ये साईनाथ, यह माँग करते समय मेरी जीभ जरा भी कचराने न पाये, यह एक सच्चे श्रद्धावान का भाव होता है। ‘मेरी इच्छा-अनिच्छा और मैं’ जो चाहता हूँ वह मैं करूँगा ही’ यह कर्मस्वातंत्र्य है। परन्तु एक सच्चा श्रद्धावान जानता है कि आज मुझे जो योग्य लग रहा है, वही कल मेरे लिए अयोग्य भी हो सकता है। आज ऐसा ही हो जो मुझे लगता है। वही यदि हो जाता है तो कल को मेरा काफ़ी नुकसान भी हो सकता है। इसीलिए मुझे क्या लगता है, मुझे क्या करना चाहिए ऐसा लगता है उसकी अपेक्षा हे साईनाथ तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होने दो। यही तुमसे माँगने की बुद्धी मुझे दो। अर्थात् कर्मस्वातंत्र्य को खत्म करदो। किंबहुना मेरी कर्मस्वातंत्रता यह है कि मुझे केवल तुम्हारा केवाल तुम्हारा ही परतंत्रता चाहिए। क्योंकि इसी में मेरी भलाई है।

हेमाडपंत भी इसी भाव के साथ बाबा से अनुमति माँगी है यह तो हमने पिछले अध्याय में देखा ही है। ‘मेरे मन में चरित्रलेखन की इच्छा उप्तन्न हुई इसीलिए मैं चरित्रलेखन करूँगा’ ऐसा न कहकर हेमाडपंत बाबा से प्रार्थना करते हैं, वह यह कि, ‘बाबा, मुझे क्या अच्छा लगेगा, इसकी अपेक्षा तुम्हें जो मुझे करना चाहिए ऐसा लगता है, वह आप मुझसे करवा लिजिए। मैं अपनी इच्छा ज़रूर व्यक्त करूँगा, आप से नहें कह पाया तो अन्य से कह दूँगा अपने मन की बात परन्तु यदि आपकी इच्छा होगी तो ही मैं यह करूँगा, अपनी इच्छा से नहीं’ ‘आप जो चाहते हैं वही हो’ यही बिनती हेमाडपंत बाबा से करते हैं।

हेमाडपंत यह भली-भाँति जानते हैं कि बाबा की इच्छा होगी तो सूने रेगिस्तान में भी नंदनवन बहरेगा और यदि बाबा की इच्छा नही होगी तो जमीन कितनी भी उपजाऊँ क्यों न हो फिर भी उस में कुछ भी नहीं उगने पायेगा।

यही गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर जरा सी भी नमीं न हो।
वहाँ पर भी पुराना वृक्ष हरा-भरा हो उठता है। बगैर किसी प्रयास ही॥

यह पंक्ति हमारे जीवन में काफ़ी महत्त्व रखती है। यह पंक्ति एक ही समय में दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातों को स्पष्ट करती है।

१) बाबा की इच्छा यदि होगी तो जहाँ पर कुछ भी उगना संभव नहीं होगा ऐसी स्थान पर भी बगैर किसी प्रयास ही नंदनवन बहर आता है।
२) परन्तु यही यदि बाबा की अनुज्ञा, इच्छा नहीं होगी तो जमीन चाहे कितनी भी उपजाऊ क्यों न हो, सभी दृष्टी से परिपूर्ण होगी फिर भी और कोई कितनी भी कोशिश क्यों न करे वहाँ पर कभी भी कुछ भी उग नहीं सकता है।

किसी भी स्थान पर वनस्पति उगाने के लिए अथवा बाग-बगीचे लगाने के लिए दो बातें महत्त्वपूर्ण होती हैं। –
१) जमीन
२) परिश्रम

जमीन यदि अच्छी होगी सभी प्रकार की चीजें उपलब्ध होंगी परन्तु परिश्रम करनेवाला कोई नहीं होगा तो वहाँ पर बगीचे में बहार आ ही नहीं सकती है। जमीन थोड़ी कम स्तर की होगी परन्तु उस पर परिश्रम यदि अधिक करने की तैयारी होगी तो वहाँ पर बगीचा हराभरा हो सकता है। परन्तु जमीन ही यदि बंजर होगी, रूखी होगी, तब वहाँ पर मानवी परिश्रम कम पड़ जाता है। परन्तु ये दोनों ही बातें लौकिक जगत के खेती के लिए अथवा बागवानी के लिए तो मानलो मूलभूत आधार हैं, ही। परंतु हमारे जीवन की खेती का क्या? वहाँ पर इन दोनों ही बातों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, वह इस सद्गुरु साईनाथ की इच्छा, साईनाथ की आज्ञा।

जमीन अच्छी उपजाऊ अर्थात, यदि कोई मनुष्य अच्छे गुणों से युक्त है, पैसा आदि भी काफ़ी है, वह दान-धर्म भी करता है, संक्षेप में कहें तो वह हर प्रकार से उत्तम श्रेणी का है। इसके साथ ही उसके पास ज्ञान है, वह ध्यान-धारणा भी करता है, पढ़ाई भी अच्छी करता है, शारीरिक-मानसिक एवं बौद्धिक परिश्रम भी अधिक करता है। स्वयं की प्रगति के लिए प्रयास भी भली-भाँति करता है। और वह यदि निश्‍चय करता है कि मैं साईनाथ का चरित्र लिखूँगा, तो? नहीं। उसकी जमीन कितनी भी अच्छी क्यों न हो। उसका प्रयास भी निरंतर चल रहा है। फिर भी यदि साईबाबा की इच्छा नहीं होगी तो वह बाबा का चरित्र लिख ही नहीं सकता है। ये गुण होना निश्‍चित ही अच्छा है। परन्तु इसके साथ ही उसे भक्ति के साथ चलना ही पड़ता है।

उलटे यदि ऐसे मनुष्य का स्वयं के सद्गुणों का, जान का, उद्यमशीलता का अहंकार हो जाता है तो वह भक्तिकरेगा भी कैसे? क्योंकि उसका यही अहंकार उसके भक्ति के आड़े आ जाता है। इसीलिए मैं कितना अच्छा हूँ, मेरी जमीन कितनी अच्छी है और मेरे प्रयास करने की क्षमता कितनी अधिक है इन सब पर साईकृपा प्राप्त होना निर्भर नहीं करता है। जो अच्छा है, और इसके साथ ही ‘मुझे अच्छा बनानेवाले ये भगवान हैं, और उनका ही यह कर्तृत्व है, मेरा नहीं।’ ऐसी धारणा जो रखता है। उसे ही ये साईनाथ सभी प्रकार से सहायता करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अच्छा होने से ही सब कुछ नहीं होता बल्कि साईनाथ का भगवान का होना भी आवश्यक है। अन्यथा मैं ही ‘ग्रेट’ हूँ कहनेवालों की जमीन कितनी भी अच्छी क्यों ना हो, उसकी कोशिशें कितनी भी क्यों न चल रही हो; परन्तु वहाँ पर वह कुछ उगा नहीं सकता है।

यही कार्य यदि कोई भोलाभाविक कहता है कि ‘जो साईनाथ कहेंगे वही प्रमाण, बाबा की इच्छानुसार ही होना चाहिए’ यह भाव मन में रखकर ‘जैसा हूँ वैसा बाबा की शरण लूँगा।’ उसकी जमीन चाहे कितनी भी बंजर, रूखी क्यों न हो, उसकी क्षमता चाहे कितनी भी अल्प क्यों न हो, ये साईनाथ उसके जीवन में खुशीयों की फुलवारी फुलाते ही हैं। क्योंकि मेरे खेत में मुझे क्या बोना है इस बात का निर्णय उसने साईनाथ के हाथों सौंपा ही है। साईनाथ ही जानते हैं कि किसके खेत में क्या उचित है। किसे किस चीज़ की ज़रूरत है। हमें साईनाथ के इस सिद्धांत को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। ऐसे में यदि पुन: हम जैसे सर्वसामान्य लोग यदि सोचते हैं तो हमें पता चलेगा कि हमारी जमीन तो बंजर ही है और हमारी क्षमता भी अल्प ही है, जिस में कुछ भी उगाना संभव नहीं। फिर हम बेवजह क्यों पसंद-नापसंदके झमेले में पड़े। ‘साईनाथ, तुम जैसी इच्छा रखते हो वैसा ही होने दो’ मात्र यह कहते समय हमारे मन को जरा सा भी डगमगाना नहीं चाहिए।

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