श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-१५)

साईसच्चरित का अध्ययन कैसे करना चाहिए, साईसच्चरित को जीवन में कैसे उतारना चाहिए, यह तो हमने स्वयं बाबा के ही वचनों में सुना। बाबा के बगैर और कोई भी इस तरह से माँ की ममता से हमें नहीं बता सकता है। श्रवण, मनन एवं निदिध्यास अर्थात चिंतन इन तीनों स्तरों के अनुसार हम श्रीसाईसच्चरित के कथाओं का अध्ययन करके साईनाथ को अपने जीवन का कर्ता कहकर प्रवाहित कर सकते हैं। इस प्रकार से अध्ययन करनेवाले श्रद्धावान के जीवन में श्रद्धा एवं सबुरी अधिकाधिक दृढ़ होती रहती हैं, बढ़ती रहती हैं और उसका बेड़ा पार होता ही है। साईनाथ स्वयं ही आगे इस बात की गवाही देते हैं।

‘अहं सोहं’ दूर हो जायेगा।
उन्मन होगा श्रोताओं का मन।
चित्त होगा चैतन्य घन।
अनन्य परिपूर्ण श्रद्धा से॥

अनन्य परिपूर्ण श्रद्धा अर्थात निष्ठा। श्रद्धा एवं सबुरी की परिपूर्णता, दृढ़ता अर्थात् निष्ठा। साईनाथ के साथ परिपूर्ण एकनिष्ठता, साई के अलावा अन्य कुछ भी जीवन में नहीं और एकमेव ये साई ही जीवन का केन्द्रबिंदू होनेवाला जीवन। ऐसे श्रद्धावान के जीवन में परमोच्च स्थिती फिर साईनाथ ही प्रदान करते है। ‘अहं’ अर्थात अहंकार ‘सोहं’ का अर्थ है ‘वह मैं ही हूँ’ अन्य मार्गों में इसका अर्थ ‘शिवोऽहम्’ ऐसा मानते हैं, अर्थात् मैं ही शिवत्व हूँ। परन्तु भक्तिमार्ग में मात्र ‘वह मैं ही हूँ’ का अर्थ ‘उस साईनाथ का दास मैं ही हूँ’ ऐसा ही कुछ भक्त का भाव एवं अनुभव होता है। ‘तुम भगवान मैं भक्त’ इसी स्थिती में रहना भक्त पसंद करता है और इसीलिए ‘वह’ का अर्थ ‘दास’ ही भक्तिमार्ग में होता है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई ‘अहं’ एवं ‘सोहं’ ये दोनों ही नष्ट हो जाते हैं तथा ‘तत्त्वमसि’ यह महावाक्य श्रद्धावान के जीवन में प्रकट होता है। ‘मैं तुम्हारा दास हूँ’ इसके आगे ‘तुम्ही मेरे स्वामी हो’ यही स्वानुभव के निर्धार के बोल होते हैं। ‘मैं तुम्हारा दास हूँ’ इस वाक्य में भी ‘मैं’ आता ही है और इसीलिए श्रद्धावान इससे भी परे जाकर ‘तुम्हीं मेरे स्वामी हो’ इस महावाक्य को जीवन में प्रवाहित करता है। श्रद्धावान को किसी भी स्तर पर जीवन में ‘मैं’ की ज़रूरत ही नहीं होती है। उसे ज़रूरत होती है केवल ‘तुम’। हे सद्गुरुराया, केवल तुम्हीं मेरे जीवन के ‘सर्वस्व’ हो, इसमें होनेवाला ‘तुम’ यही श्रद्धावान का श्‍वास होता है, हृदय स्पंदन होता है।

मन उन्मन होना अर्थात् ‘मैं अपने साईनाथ के लिए और क्या कर सकता हूँ इसी उत्कट भावना के साथ सतत सेवाकार्य में रत रहना।’ बाबा मेरी खातिर कितना कष्ट उ़ठाते हैं, फिर मैं बाबा की और क्या सेवा कर सकता हूँ, इसी उत्कट भावना को बढ़ाते रहना ही उन्मन होना। वैसे तो मैं स्वयं के लिए क्या कर सकता हूँ’ यही विचार चलता रहता है, इसीलिए वह मन का स्तर होता है और ‘मैं भगवान के लिए और क्या कर करूँ’ यही उन्मन की अवस्था होती है।

चित्त का चैतन्यघन होना अर्थात चित्त का सुचित्त होना। सुचित्त अर्थात् भगवान जैसा चाहते हैं वैसाचित यह मन की उत्क्रांत अवस्था है अर्थात् चित्त इस अवस्था में मानवी मन के सभी दोष समाप्त होकर सद्गुणों का विकास होता है। इसीलिए चित्त यह स्थिति प्राप्त होना इसका अर्थ उन्मत्व प्राप्त करना। परन्तु बाबा को मुझसे जो कुछ भी करवाना है, उसके अनुसार मुझे अपनी भूमिका भलीभाँति निभानी है। इसके लिए चित्त का सुचित्त होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके साथ सुचित स्थिति प्राप्त होनेवाले भक्त का चित्त किसी भी परिस्थिती में किंचित मात्र भी विचलित नहीं होता है। भगवान के चरणों से वह जरा सा भी दूर नहीं होता है। सुख-दुख का चाहे कितना भी बड़ा झोका जीवन में आता है फिर भी पूर्णशांत, तृप्त, संतुष्टस्थिती में और इसके साथ ही अनंत पुरुषार्थ शक्ति भी सुचित स्थिति में चित्त होनेवाले श्रद्धावान को प्राप्त होती है।

ये सब प्राप्त होने के लिए हमें एक ही बात को ध्यान में रखना चाहिए, वह है श्रद्धा और सबुरी दृढ़तापूर्वक रखनी चाहिए। ‘अनन्य परिपूर्ण श्रद्धा से’ ही यह सब कुछ तुम्हें दूँगा। इस बात की गवाही साईनाथ हमें दे रहे हैं। हमें केवल अपना काम दृढ़तापूर्वक करना चाहिए। हमारे सभी पाप राशियों को जलाकर भस्म कर देने के लिए, कलि के दुष्ट वासनाओं को भस्म करके हमें उनके गोकुल में उनका सामीप्य प्रदान करने के लिए वे समर्थ हैं। केवल हमें अनन्य श्रद्धा के साथ बाबा का नाम लेते हुए उनके चरणों में लोटांगण करना चाहिए। अगली पंक्तियों में साईनाथ नामस्मरण एवं लोटांगण का सहज एवं आसान मार्ग हमें दिखला रहे हैं।

साई साई का नामस्मरण।
करेगा सकल कलिमल दहन।
वाणी श्रवणगत पापभंजन।
एक लोटांगण करते ही॥

साई-साई यह नामस्मरण एवं ‘एक’ लोटांगण करते ही कलि के सभी प्रकार के दोष जलकर खाक हो जाते हैं, और हमारे बोलने-सुनने में होनेवाले पापों का भी भंजन हो जाता है। कलियुग में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर, अहंकार, वाद-विवाद, शंका, कपट आदि अनेकों दोष सभी स्तरों पर प्रचंड गति के साथ बढ़कर मानव के जीवन को क्लेशमय बना देते हैं। इस कलि के दोषों के कारण ही सुख, शांति, तृप्ति, समाधान, पुरुषार्थ आदि सभी सद्गुणों से हम दूर हो जाते हैं। इसी के साथ सुनना एवं बोलना इन दोनों का भी हमारे जीवन में सतत होनेवाली क्रियाओं में कर्मस्वातंत्र्य का दुरुपयोग हम करते रहते हैं। यहाँ पर सुनना एवं बोलना ये क्रियाएँ सभी ज्ञानेंद्रियों एवं कर्मेंद्रियों की क्रियाओं की निर्देशक हैं। जो नहीं देखना चाहिए उसी को देखना, जो नहीं खाना चाहिए वही खाना, जो नहीं सुनना चाहिए उसी को सुनना। जो नहीं बोलना चाहिए वही बोलना, और जो नहीं करना चाहिए वही करना। इन्हीं बातों के कारण हम अकसर पाप के भागीदार बनते रहते हैं साथ दुष्ट प्रारब्ध निर्माण करते रहते, निंदा सुनना और करना दोनों ही पाप कहलाता है। इसीप्रकार के अनेक पाप हमारे उन्नति के मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करते रहत हैं।

इन सभी से मुक्त होने के लिए पापों का ‘दहन करने का, कलि के दोषों का दहन करने का सबसे आसान मार्ग हैं ‘साई’ नामस्मरण और साई के चरणों में ‘एक’ लोटांगण। ‘साई’, ‘साई’ इस प्रकार से नामस्मरण करते रहना सबसे अधिक महत्त्व रखता हैं। हमें नाम कैसे लेना है? बिलकुल साधारण सी बात है जब हम भक्तिमार्ग पर चलना आरंभ करते हैं, उस वक्त हमें मुख से कानों को स्पष्टरूप में सुनाई दे ऐसी आवाज़ में ‘साई’ ‘साई’ नाम की रटन लगाए रखनी चाहिए इससे हमारी वाणी एवं श्रवणेंद्रिय के बीच साईनाम के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा, ‘साई’ ‘साई’ रटते-रटते सर्वप्रथम आँखों के समक्ष, खुली आँखों के समक्ष साईनाथ की प्रतिमा रखनी चाहिए और इसके पश्‍चात् आँखें मूँदकर बाबा के रूप को आँखों के समक्ष लाते रहना चाहिए साथ ही मुख से साई-साई रटते रहना चाहिए। जब-जब मन भटकने लगे, उस समय पुन: उसे बाबा के नामस्मरण की ओर मोड़ लेना चाहिए। नामस्मरण के साथ-साथ रूपस्मरण एवं गुणस्मरण भी अपने आप ही होते रहता है। इसीलिए साई-साई कहते रहना चाहिए।

नामस्मरण के साथ ही दूसरी महत्त्वपूर्ण बात जो बतला रहे हैं वह है ‘लोटांगण’। ‘एक’ लोटांगण का अर्थ यह है कि एक लोटांगण करने पर हमें ऊपर्युक्त सभी बातें प्राप्त होंगी क्या? हाँ, निश्‍चित ही परन्तु वह ‘एक’ लोटांगण होना चाहिए। ‘एक’ अर्थात् संख्या में एक, परन्तु अनन्य शरण होकर किया गया, केवल उस एकमेव साईनाथ को ही पूर्ण समर्पण भाव के साथ किया गया लोटांगण, केवल ‘एक’ तुम ही मेरे आराध्य देव हो, मुझे केवल तुम ही चाहिए ही कहकर ऐसे एकविध भाव के साथ किया गया लोटांगण ही ‘एक’ लोटांगण कहलाता है। हम सामान्य मानव हैं, बारंबार लोटांगण करते हैं और उनके समक्ष किए जानेवाले हर एक लोटांगण से हम उस ‘एक’ लोटांगण के आधिकाधिक करीब जाते रहेंगे।

लोटांगण का महत्त्व हमने साईनाथ के प्रथम मुलाकात में ही हेमाडपंत ने उनके चरणधूली में किए गए लोटांगण का अध्ययन करते समय जान लिया है। लोटांगण यह केवल शारीरिक क्रिया ही न होकर स्वयं का संपूर्ण अस्तित्व ही साईनाथ के चरणों में समर्पित कर देना, स्वयं अपने-आप को संपूर्णरूप में बाब के चरणधूली में समर्पित कर देना यही लोटांगण का सच्चा अर्थ है। लोटांगण और लोटना ये दोनों ही बातें श्रद्धावानों के लिए सर्वोच्च हैं। मेरे साईनाथ के चरणधूली में लोटांगण करना एवं लोटना ये दो बातें तो मैं सहजरूप में कर ही सकता हूँ। कलियुग में नाम, लोटांगण एवं लोटना यहीं मनुष्य के उद्धार की त्रिसूत्री है, सबसे अधिक आसान एवं सबसे अधिक जबरदस्त एवं प्रभावशाली।

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