श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-५४)

अपनी वाणी का उचित उपयोग करना अर्थात इस साईनाथ का गुणसंकीर्तन करने का ध्यान सदैव बना रहे। इसी लिए दाभोलकर ने ‘हेमाडपंत’ यह बाबा के मुख से निकले हुए नामाभिधान को हमेशा के लिए स्वीकार किया। वे उस गलती को छिपाने की कोशिश करने की बजाय पुन: वही गलती न होने पाये इस बात का ध्यान सदैव बना रहे, साथ ही बाबा का गुणसंकीर्तन ही श्रेयस्कर है, वाद-विवाद अथवा वाणी का अन्य किसी भी प्रकार से अनुचित उपयोग करना सर्वथा घातक ही सिद्ध हो सकता है। इसी कारण हेमाडपंत ने इस नाम को ही भूषण मानकर धारण कर लिया। सचमुच यहीपर हेमाडपंत पूर्णत: निरहंकारी बन गए साई ही नामकरण की लीला रचकर उन्हें वाद-विवाद से, अहंकार से मुक्त कर भक्तिपथ पर ले आये।

यहाँ पर हेमाडपंत के आचरण से और भी एक महत्त्वपूर्ण बात हमें सीखनी चाहिए। बाबा के मुख से ‘हेमाडपंत’ यह संबोधन दाभोलकर की ओर संबोधित करते हुए बाहर निकलते ही, बाबा के मुख से जो पहली मुलाकात में ही मेरा नाम आया है वही मेरा सच्चा नाम यही हेमाडपंत का श्रेष्ठभाव है। साईचरणों में उनकी दृढ़ निष्ठा का अनुभव हम यहीं पर कर सकते हैं। सच में देखा जाय तो बाबा प्रत्यक्षरुप में उनसे बात भी नहीं करते हैं वे काका साहेब दिक्षित के साथ बात कर रहे थे और उन्हीं से जानना चाहते थे और उसी संभाषण में ही वे दाभोलकर की ओर देखते हुए कहते हैं कि, ‘क्या कहा इस हेमाडपंत ने?’ इस प्रकार से बाबा पुछते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बाबा यहाँ पर प्रत्यक्ष रुप में दाभोलकर से नहीं पुछते हैं कि, ‘हेमाडपंत, तुम क्या कह रहे थे?’ पर फ़िर भी हेमाडपंत का श्रेष्ठभाव हमें यहाँ पर दिखाई देता है कि बाबा के मुख से मुझे से संबंधित प्रारंभ में जो प्रथम शब्द बाहर निकला, वही मेरा नाम, वही मेरा सच्चा नाम है। यदि मेरा नाम गोविंद रघुनाथ दाभोलकर है, सभी लोग मुझे प्रेम व आदर सहित अण्णासाहेब कहते हैं फ़िर भी बाबा जो कहते हैं, वही मेरा सच्चा नाम है और इसीलिए आज से ही नहीं बल्कि इसी समय से मेरा नाम ‘हेमाडपंत’ यही है, भले ही बाबा ने प्रत्यक्ष रुप में मुझ से नहीं कहा, परन्तु मुझे संबोधित करते हुए ‘हेमाडपंत’ कहा इसीलिए यही मेरा सच्चा नाम है, यही मेरी सही पहचान है। कितना ज़बरदस्त भाव है हेमाडपंत का।

हमारे साथ भी ऐसा ही भाव होना चाहिए। हमें अकसर यहीं देखना चाहिए कि मुझे कोई क्या कह रहा है, कहता है पर मेरे परमात्मा मुझे क्या कह रहे हैं यह मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण होगा। इस के साथ ही बाबा के मुख से सर्वप्रथम मेरे लिए जो निकला, वही मेरे लिए अधिक उचित है, फ़िर चाहे क्यों ना उस से मेरी गलती ही दर्शायी गई हो। यदि कोई कहता कि यह हेमाडपंत नाम मुझे मेरी गलती का अहसास करवाने एक लिए बाबा ने उच्चारा है, फ़िर भला मैं व्यर्थ ही उस नाम का वहन क्यों करूँ? परन्तु यहाँ पर हेमाडपंत की भक्ति परमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी है। इसीलिए चाहे जो भी हो जाये बाबा ने मुझे संबोधित करते हुए जो नाम मुझे दिया है। वही मेरे लिए हितकारी होगा उसी दृढ़ विश्‍वास के साथ उन्होंने हेमाडपंत यही नाम धारण किया और इसी नाम का ध्वज फ़हरा दिया। हाँ इसी नाम को ध्वज बनाकर अपने जीवन रुपी संग्राम में फ़हरा दिया। हम अपने अहंकार का ज्ञान का, बड़प्पन का गुणगान किया करते हैं। हेमाडपंत ने सद्गुरु के मुख से सर्वप्रथम आने वाले नाम के ध्वज को फ़हरायां। ‘मेरे बाबा कितने भक्तवत्सल हैं इनके अंतर्मन में भक्त के उद्धार की तड़प मची रहती हैं। यही पर देखो ना उन्होंने मेरे प्रति होनेवाले प्रेम के कारण ही मेरे विकास की खातिर मुझे अनुचित से दूर कर उचित दिशा में दिशा में देवयान पंथ पर चलाने के लिए ‘हेमाडपंत’ नामकरण किया।’ हेमाडपंत ने इसी प्रकार से अपने सद्गुरु साईनाथ को ही अपने जीवन में आत्मसात कर लिया। हमें अपने जीवन में किसी न किसी बात का बड़प्पन दिखाने का शौक होता है। इसीलिए जब बड़प्पन दिखलाना ही है तब स्वयं का बड़प्पन दिखलाने की बजाय अपने भगवान का ही बड़प्पन दिखलाना चाहिए। यही बात हमें यहाँ पर हेमाडपंत से सीखनी चाहिए। ‘मैं कितना बड़ा हूँ’ इस बात का बड़प्पन दिखलाने की अपेक्षा ‘मेरे साईनाथ ही सबसे अधिक ग्रेट हैं।’ इसी बात का बड़प्पन हमें दिखलाना चाहिए। अहंकार का त्याग करने का सब से सरल, आसान एवं सुंदर उपाय अर्थात अपने भगवान का अभिमान बढ़ाते चलना, अपने इस साईराम पर ही अभिमान करना, गर्व करना।

बाबा के मुख से बाहर पड़नेवाले पहले बोल को भूषण मानकर धारण करनेवाले एवं उसी नामकरण का सदैव अभिमान रखनेवाले हेमाडपंत के आचरण से हमें यही सीखना चाहिए। हेमाडपंत के शिरडी में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम उन्हें बाबा की चरणधूल भेट का सुअवसर मिला। साठेवाड़ा के सामने एक कोने में उन्होंने बाबा के चरणों में लोटांगण किया। बाबा का दर्शन किया, बाबा के चरणों पर माथा टेका। परन्तु उस प्रथम मुलाकात में बाबा के साथ उनका कोई संभाषण नहीं हुआ। साठेवाडा में वाद-विवाद होने के पश्‍चात् हेमाडपंत जब द्वारकामाई में गए, उसी समय बाबा के मुख से बाहर निकलने वाले शब्द हेमाडपंत ने सर्वप्रथम सुना और वह भी उन्हीं को संबोधित करते हुए ‘हेमाडपंत’ नाम का संबोधन बाबा ने किया। उसी क्षण हेमाडपंत ने मन में दृढ़ निश्‍चय कर लिया कि अभी से ही मेरा नाम हेमाडपंत रहेगा और यही मेरी पहचान भी होगी।

यहाँ पर अनिरुद्ध जी के पर नाना श्रीविद्यामकरंद गोपीनाथशास्त्री पाध्ये की कथा याद आती है। गोपीनाथशास्त्री जब छोटे थे उस समय वे अपने पिताजी के साथ अक्कलकोटीं में स्वामीसमर्थ का दर्शन करने गए थे। उस समय स्वामीजी ने उन्हें दो सिक्के दिए थे। आगे चलकर उनकी स्वामी भक्ति बढ़ती ही गई और साथ-साथ स्वामीजी के प्रति होने वाला आकर्षण भी।

स्वाभाविक है कि स्वामीजी ने उन के आने के काफ़ी समय पहले ही शरीर का त्याग कर दिया था।इसी लिए सगुण साकार रुप में स्वामीजी कब और कहाँ पर मिलेंगे यही लगन गोपीनाथशास्त्री के मन में बनी रही। ऐसे में ही एक दिन उन्हें स्वामी का दृष्टान्त हुआ और ‘शिरडी में आकर मुझसे मिलो’ ऐसी आज्ञा हुई। स्वामीजी की आज्ञानुसार उन्होंने तुरन्त ही शिरडी में प्रयाण किया। बाबा को देखते ही गोपीनाथशास्त्री के अष्टभाव जागृत हो उठे और बाबा से मिलते ही उन्होंने उनके हाथों पर दो सिक्के रख दिए और उनसे कहा कि, ‘अब तो पहचान गए न!’ अर्थात स्वामीजी ने जो दो सिक्के दिए थे, उसी प्रकार ये दो सिक्के मैंने पुन: तुम्हें दिए तथा स्वामीजी के दृष्टांतानुसार शिरडी में तुम पहचान सको इसी पहचान की खातिर मैंने यह लीला रची है। अब तो तुम पहचान गए ना? क्या तुमने मुझे पहचाना? बाबा के मुख से इस तरह से पहचान नामक शब्द सुनते ही गोपीनाथशास्त्री को विश्‍वास हो गया और उन्होंने बाबा के चरणों में लोटांगण किया।

बाबा के पहली मुलाकात में ही बाबा के मुख से निकलने वाला प्रथम वाक्य ‘अब तो पहचान गए ना?’ – यही मेरा गुरुमंत्र है और यही मेरे लिए सर्वोच्च है, श्रेयस्कर है क्योंकि वह बाबा के मुख से सर्वप्रथम मेरे लिए प्रकट हुआ है। इस दृढ़ श्रद्धा के साथ गोपीनाथशास्त्री ने उसी दिन से बाबा के मुख से निकलने वाले प्रथम वाक्य को ही गुरुमंत्र मानकर प्रतिदिन १००८ बार उस का जप करना आरंभ कर दिया और आजीवन इस नियम का पालन करते रहे। स्वयं वेदवेदातों में निपुण होने के बावजूद भी, सकल दर्शन शास्त्रोक्त, चौदह भाषाओं के जानकार एवं संस्कृत पर प्रभुत्त्व होने पर भी उन्होंने बाबा के मुख से बाहर निकलने वाले प्रथम वाक्य को ही गुरुमंत्र माना। इस प्रकार से भक्ति के परमोत्कर्ष तक पहुँचानेवाले भक्त श्रेष्ठ श्रीविद्यामकरंद गोपीनाथशास्त्री पाध्ये हम श्रद्धावानों के लिए आदर्श हैं।

यहाँ पर हेमाडपंत के आचरण से हमें यही बात सीखनी चाहिए। मेरे साईनाथ ही मेरे लिए सर्वप्रथम हैं और इसीलिए उनके बोल भी मेरे लिए सर्वोच्च हैं। जिन भक्तों ने साईनाथ के मुख से निकलने वाले बोल को अपने प्राणों से अधिक प्रिय माना, उन्होंने आगे चलकर साईनाथ के प्रत्येक शब्द भी कितना प्राणप्रिय बनाकर रखा होगा! निश्‍चित ही यह सच्चा गुरुमंत्र है। बाबा जो कहते हैं,वही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और वही सर्वोच्च कारण बाबा सदैव मेरे लिए जो उचित है वही मुझे देते रहते हैं। ये साईनाथ मुझे जो कुछ भी कहते हैं, वही मेरे लिए प्रमाण है।‘बाबा के शब्द यही प्रमाण’ यह हम आगे चलकर पढ़ते ही हैं और वही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भी है। बाबा समय-समय पर जो कुछ भी कहते हैं, उसे पूरी श्रद्धा के साथ सूनकर तुरंत ही अपने आचरण में उतारना यह सबसे अधिक श्रेयस्कर है। कोई मुझे जो चाहे कहे, मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं करनी हैं, ये साईनाथ मुझसे जो कह रहे हैं, केवल वही मेरे लिए उचित है क्योंकि मेरे सखा एकमेव केवल यही साईनाथ ही हैं।

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