श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- २०)

श्रीसाईनाथ की कथाओं के माध्यम से मन सहज ही श्रीसाईनाथ का ध्यान करने लग जाता है और साई के सहज-ध्यान के ज़रिये ही मन में परमात्मा के नव-अंकुर ऐश्‍वर्य प्रवाहित होते हैं। मनुष्य का सर्वोच्च ध्येय यानी समग्र विकास इसी मार्ग से साध्य होता है। साईनाथ के प्रेम से भक्त को प्रेमसमाधि लग जाती है, वह इसी सगुण ध्यान की राह से ही। समाधि यह ध्यान की परिपूर्ण विकसित अवस्था है, इसीलिए इस साई का सहज ध्यान करते-करते मन के विकास के साथ-साथ प्रेमसमाधि का भी अनुभव प्राप्त होता है। साई के प्रेम का सदैव अनुभव लेते हुए घरगृहस्थी एवं परमार्थ सुखमय बनाना और ‘मेरे साईनाथ मेरे हृदय में हैं’ इस बात की अनुभूति प्राप्त होकर बाबा की ओर से प्रवाहित होने वाला प्रेम लगातार मेरे अंदर में प्रवेश करता है। यह सर्वोच्च अनुभूति प्राप्त करना ही प्रेमसमाधि है। ऐसी समाधि प्राप्त करने वाला श्रद्धावान कोई घरबार छोड़कर बदन पर राख पोतकर किसी गुफा में जाकर आँखे बंद करके नहीं बैठ जाता है, बल्कि आनंदपूर्वक घरगृहस्थी एवं परमार्थ दोनों को ही सफल करते हुए सभी को साई-प्रेम बाँटते ही रहता है। हेमाडपंत ठीक इसी तरह साई की प्रेमसमाधि में ही हैं और उसी स्थिति में उन से साईनाथ ने इस साईसच्चरित की रचना करवायी।

सद्गुरु-कथा सुनकर उसे बारंबार याद करता रहूँ। जितना हो सकेगा उतना अंतर्मन में रख लूँ।
प्रेमबंधन में उन्हें बाँध लूँ। इसके पश्‍चात् इन कथाओं को बाटेंगे आपस में॥ 

इस साई की कथा हम भी हेमाडपंत से सुनते रहें, उनमें से जो भी याद आती रहेंगी, उन्हें बारंबार याद करते रहें, मन में उन्हें सजोकर प्रेम के सूत्र से उन्हें मजबूती से गाँठ मार कर रख लें और फिर एक दूसरे को कथाएँ सुनाते रहें। यह प्रेमरूपी सोना जितना हो सके उतना लूटाता ही रहूँ, यही हेमाडपंत का भाव है। सवेरे उठने पर सर्वप्रथम श्रीसाईनाथ की जो भी कथा याद आती है उसी का हम स्मरण करते रहें, उसका चिन्तन-मनन करते रहें, दूसरों को बताएँ। हर रोज़ इसी तरह जो भी कथा सहज याद आ जाती हैं, उसे याद करते रहें, कराके हमारे जीवन का समग्र विकास करेंगी।

पंचशील परीक्षा के लिए अध्ययन करते समय हमें इसी तरह हर रोज एक-एक कथा को याद करते रहना चाहिए, मनन-चिंतन करते रहना चाहिए, इससे ही हमारी अपनी पढ़ाई सहज रूप में होगी एवं इससे ही बाबा को जो मुझे देना है, उसे मैं स्वीकार कर सकूँगा। वैसे तो हम सीधी-सादी पोथी को भी हाथ लगाने में आलस करते हैं, ङ्गिर कथा का अध्ययन करना तो दूर की बात है और इसीलिए श्रीअनिरुद्ध ने पंचशील परीक्षा की योजना बनाई है। हेमाडपंत के कहेनुसार प्रेमपूर्वक इन कथाओं का अध्ययन करके हम अपनी प्रगति यक़ीनन ही कर सकते हैं।

हेमाडपंत कहते हैं कि श्रीसाईसच्चरित की विरचना करते समय कौन सी कथा कहाँ पर लेनी है, कथाओं का क्रम कैसा होना चाहिए आदि बातें मेरे द्वारा निश्‍चित नहीं की गई हैं, बल्कि बाबा जैसी प्रेरणा देंगे, वैसी कथाएँ अपने-आप ही लिखती चली गईं। साई की सहज प्रेरणा के द्वारा ही इस साईसच्चरित ग्रन्थ की रचना हुई है और यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है। मानवी अहंकार का ज़रा सा भी स्पर्श इस रचना को नहीं हुआ है। यह पूर्णत: श्रीसाई ने साईइच्छा से ही जैसी उन्हें चाहिए उसी प्रकार उसकी रचना की है और इसीलिए साईसच्चरित यह ग्रंथ ‘अपौरुषेय’ है। अपौरुषेय रचना अर्थात किसी मनुष्य के द्वारा न रची गई, साक्षात ईश्‍वर द्वारा निर्मित इस प्रकार की रचना। इसीलिए साईसच्चरित यह सर्वथा पवित्र, निर्दोष एवं संपूर्ण ही है। मानव कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो फिर भी उसके द्वारा की जानेवाली रचना में पूर्णत्व आ ही नहीं सकता है। कुछ न कुछ न्यूनता उसमें होती ही है। भगवान की इच्छा से भगवान द्वारा रची गई रचना मात्र सर्वथा सुसंपूर्ण ही होती है, उसमें कही भी जरा सी भी कमी नहीं होती। श्रीसाईनाथ ने ही स्वयं इस साईसच्चरित की निर्मिती, करने के कारण यह ग्रंथ सत्य, प्रेम, आनंद एवं पावित्र्य को पूर्ण रूप में धारण करने वाली परमेश्‍वरी रचना ही है। इसमें कोई संदेह नहीं। यहाँ पर यदि हेमाडपंत लिख रहे हैं ङ्गिर भी वह सर्वथा साईमय हो जाने के कारण उनमें ‘मैं’ का किंचित्-मात्र भी अंश नहीं है और इसीलिए साई को जैसा चाहिए वैसा यह ग्रंथ लिखे जाने में कोई भी अवरोध नहीं था। हेमाडपंत ने स्वयं का ‘मैं’ बाबा के चरणों पर समर्पित कर दिया था और इसलिए यह साईसच्चरित श्रीसाई की ही कृति है, इस बात को वे पूरे विश्‍वास के साथ कहते हैं।

इसमें मेरा कुछ भी नहीं। साईनाथ की ही प्रेरणा है यह।
वे जैसे भी कहते हैं । वैसे ही मैं करता हूँ।
‘मैं कह रहा हूँ’ यह कहना भी होगा अहंकार। साई स्वयं ही सूत्रधार।
वे ही हैं वाचा के प्रवर्तनकर्ता। तब लिखनेवाला मैं कौन॥

साईसच्चरित लिखने की प्रेरणा जिस तरह साईं ने गेहूँ पीसनेवाली लीला द्वारा हेमाडपंत को दी, उसी प्रकार ग्रंथ में होनेवाली कथाओं की प्रेरणा भी बाबा ने ही दी। इसी कारण साईसच्चरित में मुख्य कथाओं में उपकथा, गौण कथा भी हमें कई स्थानों पर दिखाई देती हैं। इसका कारण यह है कि वे कथाएँ हेमाडपंत की ओर से लिखती चली गईं। हर एक अध्याय के अन्त में आगे के अध्यायों की कथाओं के बारे में हेमाडपंत निर्देश करते हैं, इसके पिछे भी यह साई प्रेरणा ही है। उन अध्यायों के कथावर्णन समाप्ति पश्‍चात् साईप्रेरणा से आगे की जो कथाएँ हेमाडपंत के मन पर अंकित हुई, उनका निर्देश वे अध्यायों के अंत में करते हैं एवं आगे के अध्याय में उन कथाओं का वर्णन वे करते ही हैं।

हमारे अपने जीवन प्रवास में भी जब हम अपने इस ‘मैं’ को छोड़कर बाबा के शरण कें पूर्णरूप में जाकर साईनाथ को ही अपने जीवन का कर्ता बना लेते हैं, इसके पश्‍चात् अपने-आप ही साईप्रेरणा हमारे जीवन में प्रवाहित होती है तथा किस स्तर पर कौन सा निर्णय लेना चाहिए इस बात का मार्गदर्शन इस प्रेरणाद्वारा साईनाथ ही हमें करते हैं। हम सामान्य मनुष्य हैं जीवन के प्रवास में एक के पिछे एक, एक-एक पाड़ाव पर रुकते हुए हमारा जीवन प्रवास चलते रहता है। एक पड़ाव तक पहुँचने के पश्‍चात् आगले पड़ाव के लिए किस मार्ग का अवलंबन करना है, किस दिशा को चुनना है, निश्‍चित तौर पर हमें करना क्या है इस बात का निर्णय हमें वहाँ पर लेना होता है। भविष्यकाल के गर्भ में क्या छिपा हुआ है इस बात का पता हमें नहीं चलता है, इसके साथ ही उपलब्ध अनेक विकल्पों में से कौनसा विकल्प हमें चुनना है इसके प्रति हम गड़बड़ा जाते हैं। हम पूरे आत्मविश्‍वास के साथ उचित निर्णय नहीं कर पाते हैं। कभी-कभी योग्य लगने के कारण चुना गया मार्ग गलत दिशा में ले जाता है, हमारी दिशा भटक जाती है इससे अगले पड़ाव तक हम नहीं पहुँच पाते हैं। हमारी जीवन नैय्या इस भवसागर में इसी तरह भटक जाती है। उचित समय पर उचित निर्णय लेना यह जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। और कई बार इस निर्णय के चूक जाने से हमारा जीवन चिंताजनक बन जाता है।

इसीलिए यह ‘साईप्रेरणा’ जीवन में प्रवाहित होना ज़रूरी है। क्योंकि इससे ही ‘किस पल क्या करना है’ इस बात का एहसास हमें साईनाथ की प्रेरणा ही करवाती रहती है और इससे हमारा प्रवास प्रेमप्रवास बन जाता है। हम एक-एक पड़ाव को पार करते हुए अपने ध्येय को अचूकता के साथ सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। श्रद्धावान को उचित निर्णय शक्ति मिलती है वह भी साईनाथ की प्रेरणा से ही। कारण जब ये साईनाथ हमारे जीवन के ‘कर्ता’ होते हैं, तभी वे मुझे कभी भी भटकने नहीं देते। ये साईनाथ मेरा ध्यान रखते हुए मेरे साथ-साथ चलते रहते हैं और हर एक पड़ाव पर ये साई प्रेरणा मुझे उचित मार्ग एवं दिशा दिखाती रहती है। जब भी हम मन में उठनेवाली कल्पनाओं के आधार पर निर्णय लेते हैं, तब उन कल्पनाओं पर आधारित निर्णय गलत मार्ग प्रदान करनेवाला ही साबित होता है। हमारी अपनी निरिक्षण शक्ति भी हमारी क्षमतानुसार ही सीमित ही होती है। इसीलिए वह भी एक विशिष्ट मर्यादा में ही हमें निर्णय लेने में सहायक साबित होती है। इसीलिए जो सब कुछ जानते हैं और जो मेरे लिए सर्वथा उचित होता है वही देते हैं, उन्हीं साईनाथ की प्रेरणा से ही हमारा जीवन परिपूर्ण हो जाता है, सफल होता है। इन सबके लिए हमें केवल इतना ही करना होता है और वह है- इस साई प्रेरणा को जीवन में प्रवाहित होने में अवरोध उत्पन्न करनेवाले अहंकार की बाधा को हमें आडे नहीं आने देना चाहिए।

 

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