श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १३) सत्यसंकल्प के स्वामी साईनाथजी

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एके दिवशी सकाळी जाण। बाबा करोनि दंतधावन। सारोनि मुखप्रक्षाळण। मांडू दळण आरंभिले॥ – श्रीसाईसच्चरित

एक दिन प्रात:काल में साईबाबा दंतधावन एवं मुखप्रक्षालन करके महीन आटा पीसने लगे।

हेमाडपंत प्रथम अध्याय के आरंभ में ही हमें सतर्क कर रहे हैं कि ये सहजसिद्ध साईनाथ कैसे हैं, उन्हें ठीक से जान लो। महामारी का विनाश करने के लिए बाबा को आटा चाहिए था। लेकिन इसलिए बाबा ने हवा में से आटा नहीं निकाला या जवारी को गेहूँ बनाकर उससे गेहूँ का आटा चमत्कार करके उत्पन्न नहीं किया। बाबा ने स्वयं अपने हाथों से गेहूँ पीसकर, मानव देह की मर्यादा का पूर्णत: पालन करते हुए ही आटा तैयार किया।

सर्वसामान्य मनुष्य हर एक कार्य को स्वार्थवश ही करता है, वहीं मेरे साईनाथ हर एक कार्य केवल निरपेक्ष प्रेम से ही करते हैं। सामान्य मानव के मन में कोई भी कार्य करते समय अनेक कल्पनाएँ उठती रहती हैं और वे सभी कल्पनाएँ फलाशा ही होती हैं। परन्तु मेरे साईनाथ सदैव परमेश्वर का यानी दत्तगुरु का जाप करते हुए फलाशा-विरहित निष्काम कर्मयोग का आचरण करते रहते हैं। सामान्य मानवों का कर्म भावनाओं में उलझकर चलते रहता है, वहीं सद्गुरु साईनाथ शुद्ध प्रेमभाव के साथ हर एक लीला करते रहते हैं। इसीलिए सामान्य मानव की कृति (कार्य) को हम ‘कर्म’ कहते हैं, वहीं सद्गुरु की कृति (कार्य) को ‘लीला’ कहते हैं।

आटा पीसनेवाली कथा के आरंभ की पंक्ति को पढते ही झट से हमारी समझ में यह आ जाता है कि मानवदेह की सारी मर्यादाओं का पालन साईनाथजी बडी बारीकी से करते हुए यह लीला कर रहे हैं। आगे की सभी पंक्तियों में इस साईनाथ का ‘मर्यादा-पुरुषोत्तम-स्वरूप’ ही हमारी नज़रों के सामने आ जाता है। एक सर्वसामान्य मनुष्य को यदि आटा पीसना होगा, तो वह जिस प्रकार से हर कार्य करेगा, उसी प्रकार साईनाथ भी यहॉं पर हर कार्य कर रहे हैं।

सुबह उठते ही जैसे मनुष्य दॉंत साफ करता है, मुँह धोता है, उसी प्रकार यह मेरे साईनाथ भी सुबह उठकर वही क्रिया करते हैं। ‘सहजता’ यह इन सारी कथाओं में बाबा का विलक्षण गुण दिखाई देता है। महामारी का नाश करने के लिए बाबा अत्यन्त सहजतापूर्वक सभी क्रियाएँ करते हैं। स्वयं ‘साक्षात् ईश्वर’(सा=साक्षात् और ई=ईश्‍वर) होकर भी मानवदेह धारण करने पर मनुष्य के आचरण के अनुसार ही व्यवहार करते दिखाई देते हैं।

‘साई’ अर्थात् ‘साक्षात् ईश्वर’! परन्तु जब ये परमात्मा मनुष्य की काया धारण करते हैं, तब वे अपना प्रत्येक कार्य एक मानव के समान ही करते हैं, मर्यादा का सदैव ध्यान रखकर ही ये साईनाथ सारी लीलाएँ बिलकुल सहज रूप में करते हैं। ये ‘सहजसिद्ध’ तो दर असल सभी योग शक्तियों के स्वामी हैं, सारी सिद्धियॉं इनकी अंकित हैं। मनुष्य को सिद्धियॉं प्राप्त करनी पड़ती हैं और ये सिद्धियॉं कब मनुष्य पर हावी हो जाती हैं इसका पता उसे चल ही नहीं पाता। योगमार्ग की ये सिद्धियॉं यानी मनरूपी इन्द्र के दरबार में नाचनेवाली अप्सराएँ। ये अप्सरायें ही मनुष्य को मोह बंधन में बॉंधकर नाच नचाती हैं और इसी कारण उसका पतन होकर पथभ्रष्ट होने की नौबत उसपर आ जाती है। इन सिद्धियों के मोहपाश में न फँसकर योगमार्ग पर से प्रवास करना अत्यन्त कठिन होता है, इसीलिए हम जैसे सामान्य मानवों के लिए इस साईनाथ का ‘पिपिलिका पंथ’ ही सर्वथा श्रेयस्कर है। ‘सहजसिद्ध’ सिर्फ़ एक ये साईनाथ ही हैं। बाबा के संकरी तख़्ती पर शयन करनेवाली कथा के बारे में हम जानते ही हैं और यह काम सिर्फ़ बाबा ही कर सकते हैं।

‘‘नाना, प्याज़ को जो आसानी से हज़म कर सकता हो, उसीको प्याज़ खाना चाहिए’’, इस वाक्य के द्वारा बाबा ने नानासाहब चांदोरकर के सामने उस योगी को यही रहस्य बताया है। इन सिद्धियों को ही नहीं, बल्कि सब कुछ पचाने की ताकत सिर्फ़ इस एक सहजसिद्ध साईनाथ में ही है, ऐरे-गैरे का यह काम नहीं है। इस सहजसिद्ध की विलक्षण सहजता ही यहॉं पर हेमाडपंत हमें बताते हैं।

बाबा को महामारी को खत्म करने के लिए, उसे शिरडी में आने से रोकने के लिए, गेहूँ पीसना था और उससे तैयार होनेवाले आटे को गॉंव की सीमा पर डालना था। इस कार्य के लिए आटा निर्माण करते समय बाबा ने एक मानव के समान ही आटे का निर्माण किया। बाबा ने स्वयं अपने हाथ में सूप लेकर गेहूँ निकाला, स्वयं गोनी फैलाकर उस पर जॉंता रखा, खूंटे को मज़बूत किया और गेहूँ पीसकर आटा तैयार करना शुरू किया। बाबा ने कहीं भी हवा में हाथ फिरा कर या किसी भी सिद्धि का उपयोग करके आटा नहीं निकाला। एक मनुष्य के समान गेहूँ पीसने की क्रिया के द्वारा ही आटा प्राप्त किया। यहीं पर हेमाडपंत प्रथम अध्याय के आरंभ में ही हमें सावधान कर रहे हैं कि ये सहजसिद्ध साईनाथ कैसे हैं, उन्हें ठीक से पहचानो। महामारी का नाश करने के लिए आटा चाहिए था, परंतु इसके लिए उन्होंने कोई चमत्कार नहीं किया। स्वयं गेहूँ पीसकर ही, मानव देह की मर्यादा का पालन पूर्णत: करते हुए ही आटा तैयार किया।

हेमाडपंत यहीं पर हमारी आँखों में तेज़ अंजन (सूरमा) डालकर हमारी दृष्टि को स्वच्छ करते हैं। सच्चा सद्गुरु कैसा होता है, इसका अचूक वर्णन वे यहीं पर करते हैं। सच्चा सद्गुरु कभी भी हातचालाकी करके अथवा लोगों को हातचालाकी वाले चमत्कारों से प्रभावित करके या चमत्कारों का प्रदर्शन करके सर्वसामान्य लोगों के आँखों में धूल नहीं झोकतें। सच्चा सद्गुरु ‘लीला’ करता है। उनकी सहजता से, भोले भक्तभाविकों के प्रति उनके दिल में रहने वाले अकारण कारुण्य से यह प्रेममय ‘पुरुषार्थ’ होता रहता है। सच्चा सद्गुरु हवा में से उदी आदि निकालकर या मुर्गी को बकरी या बकरी को मुर्गी बनाकर जादू का खेल दिखाकर अपनी स्वयं की वाहवाही नहीं करवाता। सच्चा सद्गुरु इस प्रकार के दांभिक चमत्कार नहीं करता, बल्कि वह सहज लीला करते रहता है।

श्रीसाईसच्चरित में हम जिसे चमत्कार कहते हैं, वह मेरे इस साईनाथ की सहज लीलाएँ हैं और उन हर एक लीला के पीछे सिर्फ उनके अपने भक्तों का भला हो, भक्तों का जीवनविकास हो यह साईबाबा की आत्मीयता रहती है। बाबा का प्रेम और उसमें से प्रकट होनेवाली भक्तों की सहायता हेतु होनेवाली लीला हमारे बुद्धी से परे है, अचिन्त्य एवं अतर्क्य हैं, इसीलिए हम उन्हें चमत्कार कहते हैं। परन्तु सच में देखा जाये तो उस हर एक लीला में इस सहजसिद्ध साईनाथ का हर किसी के प्रति, फिर वह व्यक्ति महापापी भी क्यों न हो, उसके प्रति भी रहनेवाला सहज प्रेम ही हैं। इसीलिए यदि कोई स्वयं को सद्गुरु घोषित करके, जादू का खेल दिखाकर, हातचालाकी करके भक्ति का ढोंग एवं पाखंड रचकर स्वयं की जेब भरने के लिए सर्वसामान्य लोगों को फँसाता है, लूटता है और अपना ही पेट भरता है, तो वह सद्गुरु तो क्या, एक मानव कहलाने के लायक भी नहीं है। मनुष्य की चमडी वाला वस्त्र धारण करनेवाला राक्षस ही ऐसे विकृत कारनामे करके दुनिया को भुलावे में रख सकता है, ऐसा दुष्कर्मी ‘मायावी’ जातुधान ही हो सकता है।

सच्चा सद्गुरु कैसा होता है, यह हेमाडपंत इस कथा के आरंभ में ही हमें बताते हैं। किसी भी चमत्कार के द्वारा आटा निर्माण न करते हुए भक्तों के प्रेमवश ये साईनाथ स्वयं ही एक मानव के ही समान गेहूँ पीसकर आटा तैयार करते हैं और उस आटे के अद्भुत प्रभाव का अनुभव हम करते ही हैं। एक सामान्य मनुष्य का गेहूँ पीसना और बाबा का गेहूँ पीसना यह ऊपर से तो एक ही क्रिया लगती है, मग़र फिर भी उसमें ज़मीन आसमान का अन्तर है।

सर्वसामान्य मनुष्य हर एक क्रिया अपने फायदे के लिए करता है, वहीं मेरे साईनाथ हर एक लीला नि:स्वार्थ प्रेम हेतु करते हैं। सामान्य मनुष्य के मन में हर कार्य करते समय अनेक विचार उठते रहते हैं और वे सारी कल्पानाएँ तो फलाशा ही होती है। परन्तु मेरे ये साईनाथ सदैव परमेश्वर अर्थात दत्तगुरु का जाप करते हुए फलाशा विरहित निष्काम कर्मयोग का आचरण सदैव करते रहते हैं। सामन्य मनुष्य का कर्म भावानाओं में उलझकर चलता रहता है, वहीं पर ये सद्गुरुनाथ शुद्ध प्रेम-भाव से हर एक लीला करते रहते हैं। इसीलिए सामान्य मनुष्य की कृति को ‘कर्म’ कहते हैं, वहीं सद्गुरु की कृति को ‘लीला’ कहते हैं। सामान्य मनुष्य का कर्म पूर्ण रूप से निर्दोष नहीं होता, वहीं पर सद्गुरुनाथ की लीला में कभी भी कोई दोष हो ही नहीं सकता।

बाबा सिर्फ और सिर्फ अकारण कारुण्य हेतु ही महामारी का नाश हो इसलिए दत्तगुरु का जप करते हुए, दत्तगुरु से प्रार्थना करते हुए गेहूँ पीसने की लीला करते हैं और बाबा के इसी प्रेमभाव के कारण उस आटे में महामारी का विनाश करने का सामर्थ्य सहज ही उत्पन्न हो गया। ये साईनाथ ही एकमात्र ‘सत्यसंकल्प’ होने के कारण उनके द्वारा किया जानेवाला संकल्प ही सत्य साबित हुआ और आटे के कारण ही महामारी का विनाश हुआ।

‘राम सत्यसंकल्पप्रभु सभा कालबस तोरी।’ बिभिषण के द्वारा रावण को कहे गए इस सत्य को सदैव ध्यान में रखना चाहिए्। मेरे ये साईनाथ ही सिर्फ़ ‘सत्यसंकल्पप्रभु’ हैं, इसीलिए बाबा ने जो भी संकल्प किया, वह सत्य हुआ ही। हेमाडपंत इस कथा के माध्यम से बाबा का ‘सत्यसंकल्प-प्रभु’-स्वरूप हमें बता रहे हैं। हमारे जीवन के सभी स्तरों पर महामारी का विनाश होने के लिए हमें अपने जीवन में इस ‘सत्यसंकल्प-प्रभु’ रहनेवाले साईनाथ से ‘बाबा, आप मेरे हृदयसिंहासन पर मेरे राजाधिराज बनकर विराजमान हो जाइए’ यह प्रार्थना करनी चाहिए।

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