सत्येन्द्र बोस (१८९४-१९७४)

गणित विषय में ‘हिन्दू हायस्कूल’ (कलकत्ता) के एक विद्यार्थी को बिलकुल सौ में सौ की बजाय एक सौ दस अंक प्राप्त हुए। एक अनोखा रिकार्ड बन गया, यह बात सभी लोगों को पता चली। इस विद्यार्थी ने गणित का पेपर विभिन्न प्रकार से हल करके बताया था। इसी कारण शिक्षकों ने खुश होकर उसे अपनी ओर से अतिरिक्त अंक दिए थे। यह विद्यार्थी थे- ‘सत्येंद्रनाथ बोस’। जो स्कूल में हुआ वही पुन: विदेश में भी हुआ। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक निल्स बोहर व्याख्यान दे रहे थे। एक मुद्दा समझाने के पश्चात वे कहीं पर रुक गए, वर्ग के श्यामपट पर लिखते समय उन्होंने तुरंत ही मुड़क़र प्रो. बोस को आगे बढ़कर उस मुद्दे को समझाने की विनती की। आंखें मूदकर शांति से सुनने वाले प्रो. बोस के प्रति सभी के मन में संदेह उत्पन्न हुआ। परन्तु प्रो. बोस तुरंत ही उठ कर आगे आये और निल्स बोहर के उलझे हुए मुद्दे को प्यार से सुलझाकर वे अपने स्थान पर जाकर बैठ गए।

भौतिकी शास्त्र विशेषज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त सत्येंद्रनाथ का जन्म १८९४ में कलकत्ता में हुआ। पिता सुरेंद्रनाथ बोस ईस्ट इंडिया रेल्वे के इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत थे। सत्येंद्रनाथ अपनी छ्ह बहनों में सबसे बड़े थे। हिंदू हायस्कूल; प्रेसिडेन्सी कॉलेज़ शैक्षिक संस्थान से उन्होंने स्नातकोत्तर शिक्षा पूर्ण की। सभी स्थानों पर उच्च श्रेणीसहित अधिकतम अंक प्राप्त करनेवाले तीव्रबुद्धि के विद्यार्थी के रूप में उनकी अपनी पहचान थी।

१९१६-२१ के दौरान वे कलकत्ता महाविद्यालय में भौतिकशास्त्र विभाग में प्राध्यापक थे। १९२१ में ढाका महाविद्यालय में (आज बांगलादेश में होने वाले) भौतिकशास्त्र विभाग के कार्य का स्वीकार कर वहां पर भी उन्होंने अध्यापक का कार्य किया। १९२४ में ‘प्लँक’ नामक संशोधक के ‘क्वांटम रेडिएशन’ नियम पर उन्होंने संपूर्ण जानकारी सहित शोध निबंध प्रस्तुत किया। परन्तु इसके प्रस्तुतीकरण में अनेक रूकावटें आईं। फिर उन्होंने अल्बर्ट आईनस्टाइन (जर्मनी) इस महान संशोधक के पास वह शोध निबंध भेजा। आईनस्टाइन ने सर्वप्रथम उसे जर्मन भाषा में भाषांतरित करके वहां पर उसे प्रस्तुत किया और मान्यता प्राप्त होने के पश्चात बोस को यूरोप में बुला लिया।

सत्येंद्रनाथ बोस ने इलेक्ट्रॉन, फोटॉन आदि कणों के समूहों का संख्याशास्त्रीय नियम ढूंढ़ निकाला। इन कणों के संख्याशास्त्र का ‘बोस-आईनस्टाइन स्टॅटिस्टिक्स’ नाम है। जो मूलकण बोस-आईनस्टाईन स्टॅटिस्टिक्स के नियमों का पालन करते हैं, उन्हें ‘बोसान्स’ कहा जाता है। प्रोटॉन, न्युट्रॉन आदि कण फर्मी-डिरॅक स्टॅटिस्टिक्स’ का पालन करते है, वे ‘फर्मिऑन्स’ इस नाम से जाने जाते हैं। इलेक्ट्रॉन, फोटॉन आदि मूलकण एक संख्याशास्त्रीय नियमानुसार चलते हैं, वहीं न्यूट्रॉन, प्रोटॉन आदि कणों का संख्याशास्त्रीय नियम भिन्न हैं।

सभी मूलकणों को दो भागों में विभाजित किया जाता है। जिन मूलकणों का परिवलन ०, १, २ …….आदि पूर्णांकों से दर्शाया जा सकता है, उन कणों को ‘बोसॉन्स’ नाम दिया गया है। जिन कणों का परिवलन १/२, ३/२ ऐसे अपूर्णंको में दर्शाया जाता है उन्हें ‘फर्मिऑन्स’ कहा जाता है। बोसॉन्स एवं फर्मिऑन्स इन मूलकणों का व्यवहार पूर्णत: भिन्न होता है। बोसॉन कण ‘सुपर ऍटम’ तैयार करते हैं तथा फर्मिऑन अणू की सारी ऊर्जा को प्रतलों में भर देते हैं। किसी संकरे स्थान पर जैसे-तैसे लोग खड़े रहते हैं कुछ ऐसी ही अवस्था इनकी होती है, इस स्थिति को ‘फर्मी डिजनरेट स्टेट’ नाम दिया गया है।

१९२४ पश्चात के दो वर्ष सत्येंद्रनाथ बोस ने यूरोप में व्यतीत किये। इस दौरान उन्होंने लुईस-डी-ब्रॉगली, मेरी क्युरी के समान महान संशोधकों के साथ काम किया। साल भर बर्लिन में आईनस्टाईन के साथ संशोधन का काम किया।

१९२६ के पश्चात हिन्दुस्तान में लौटने वाले बोस ने ढाका महाविद्यालय में भौतिकशास्त्र विभाग के प्रमुख के रूप में कार्यभार संभाला। १९५६ तक कलकत्ता महाविद्यालय में अध्यापन का काम करते हुए वे सम्माननीय प्राध्यापक के रूप में ही सेवा निवृत्त हो गए।

अल्बर्ट आईनस्टाईन को सत्येंद्रनाथ बोस गुरु मानते थे, वहीं कलकत्ता में विद्यार्थी अवस्था में उन्हें जगदीशचंद्र बोस, प्रफुल्लचंद्र रॉय के समान संशोधक गुरुओं का साथ मिला। जीवन में उच्च स्तर का ध्येय संपादन करने वाली कला की प्रेरणा उन्हें मिली। स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस का सहवास भी उन्हें प्राप्त हुआ। वहीं निखिलरंजन बोस, जे. सी., घोष, मेघनाद साहा समान सहपाठी उन्हें मिले। इतने महान लोगों का उस वक्त एक साथ होना, यह प्रेसिडेन्सी कॉलेज की दृष्टि में मानों ‘सुवर्णयुग’ ही था।

बोस ने भौतिकशास्त्र के अलावा जीवरसायनशास्त्र में भी संशोधन किए थे। बंगाली एवं अंग्रेजी साहित्य का अभ्यास भी उन्होंने किया था। विज्ञान एवं संशोधन इस संबंध में प्राप्त जानकारी वे बंगाली भाषा में रूपांतरित करते थे क्योंकि बंगाली समाज को विज्ञान-अभिमुख होना चाहिए यह उनका ध्येय था। १९४४ में वे इंडियन सायन्स कॉंग्रेस के अध्यक्ष बन गए। १९५८ में वे रॉयल सोसायटी के सदस्य बनें। सत्येंद्रनाथ बोस द्वारा किए गए मूलभूत कार्य के काफी वर्ष पश्चात कुछ संशोधकों को नोबेल पुरस्कार दिया गया, परन्तु बोस को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। ‘इसराज’ नामक एक वायोलिन समान होने वाला वाद्य बजाने की कला से वे अवगत थे। विविध भाषाओं में बात करने कौशल्य उनमें था।

उस दौरान हिन्दुस्तान के महाविद्यालयों में आधुनिक विज्ञान संबाधित पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं। साथ ही संशोधन के लिए उपयुक्त साबित होने वाली मासिकपत्रिकाओं की भी कमी थी। ऐसी परिस्थिति में बोस के संशोधन के प्रति ‘आगे बढ़ाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम’ इस प्रकार का प्रशंसनीय उल्लेख आईनस्टाईन ने किया है। आज ‘बोस आईनस्टाईन स्टॅटिस्टिक्स’ सर्वसामान्य है एवं संख्याशास्त्रीय मूलकणों को ‘बोसॉन’ यह नाम बोस के सम्मान में दिया गया है।

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