समर्थ इतिहास-११ (अखंड भारत के आद्य जनक – महर्षि अगस्ति – अगस्त्य)

महर्षि अगस्ति से मेरी पहली मुलाकात हुई, रामचरित में और वहाँ निर्माण हुआ स्नेह आगे चलकर बढ़ता ही गया। चारों वेद और पुराण तथा दक्षिण भारत की लोककथाएँ, प्रथाएँ एवं लोकगीत, साथ ही महर्षि अगस्ति के मंदिर इनके एकत्रित तेज से, अनंत की प्राप्ति करनेवाले इन ऋषिश्रेष्ठ की एक प्रतिमा बनती गयी। इन्होंने क्या कुछ नहीं किया? जवाब एक ही है। इन्होंने जो जो उत्कृष्ट, परममंगल और भारतीय संस्कृति का संवर्धन करनेवाला है, वह सब प्रचंड परिश्रमों से साध्य भी किया और सिद्ध भी किया।

लिखित साहित्य में से महर्षि अगस्ति का अध्ययन करते हुए अचानक से मैं दक्षिण भारत के छोटे से गाँव में रहनेवाले अगस्तिमंदिर में जा पहुँचा और वहाँ से अगस्ति नामक दिव्य एवं भव्य चरित्र के अनेक गुह्य सूत्र स्पष्ट होने लगे। उसी मंदिर में मुझे दक्षिण भारत स्थित अन्य, अक्षरशः सैंकड़ों अगस्ति-मंदिरों की जानकारी मिली। उन सभी मंदिरों के आचार्यों, उपासकों और शिल्पाकृतियों के भाव-अविष्कार से अगस्ति सदैव मेरी बुद्धि में डटे रहे।

जिस तरह समुद्रगुप्त की बराबरी का अन्य कोई हो नहीं सकता, उसी तरह दूसरे अगस्ति का होना भी संभव नहीं है।

आज हमें, एक अंजलि में समुद्र को पी लेनेवाले अगस्ति के बारे में जानकारी होती है, कभी कभार कोई विंध्य पर्वत को झुकाने वाले अगस्ति को जानता है, वहीं, गाँवों के किसानों को उनके नाम के (महर्षि अगस्ति के नाम के) तारे के बारे में जानकारी होती है। परंतु ये अत्यंत महान ऋषि, तपस्वी, वैज्ञानिक, धर्माचार्य, संस्कृतिप्रतिपालक, शस्त्रविद्यानिपुण, कई ऋचाओं के कर्ता, एकसंघ विशाल भारतीय उपखंड को सांस्कृतिक परम उत्कर्ष पर ले जानेवाले द्रष्टा, सर्वमतसहिष्णु तथा सृजनात्मक क्रियाशीलता के अपरंपार सागर ऐसे अगस्ति की हम भारतीयों को जानकारी होना, यह वर्तमान समय के लिए अत्यंत आवश्यक है।

भारत के लगभग सभी प्रांतों के विभिन्न मानव समूहों में, विशेष रूप से गाँवों में अब भी अगस्ति तारे का दर्शन करके प्रवास शुरू किया जाता है, तो प्रवास में आनेवाली सभी बाधाएँ दूर होकर प्रवास निष्कंटक (बाधारहित या बिना किसी रुकावट के) होता है, ऐसा माना जाता है और यदि अगस्ति तारा नहीं दिखायी देता, तो मंगल कलश के दर्शन को ही अगस्तिदर्शन मानकर प्रवास आरंभ करने की संकल्पना दिखायी देती है।

भारत को (सन २००६ के बाद) अगले १९ सालों में जिस कालखंड से प्रवास करना है, वह प्रवास सङ्गल, सुमंगल और निष्कंटक होने के लिए अगस्ति तारे का केवल दर्शन करने से काम नहीं होगा; बल्कि इन महान ऋषि के प्रचंड जीवनकार्य की जानकारी लेकर उनके परामर्श के अनुसार आचरण करना आवश्यक है।

अगस्ति और वसिष्ठ ये दोनों सगे जुड़वा भाई थे; अगस्ति बड़े थें, वहीं, वसिष्ठ छोटे थें। वेदकालीन एवं वेदप्रणित उपासनामार्ग में मित्र-वरुण इस जोड़ी का स्थान सर्वोच्च है। ऋग्वेद में इस जोड़ी का सविस्तार एवं गहराई से किया गया गुणवर्णन भी है और अगस्ति इन मित्र-वरुण के ही पुत्र हैं। मित्र यानी सूर्य और वरुण यानी पर्जन्य के अधिष्ठाता ऐसा स्थूल रूप से बताया जाता है, परन्तु सत्य अधिक ही सुंदर एवं अधिक ही ऊपर के स्तर का है।

मित्र यानी केवल इस आकाशगंगा में स्थित पृथ्वी का सूर्य नहीं, बल्कि मित्र यानी अनादि, अनंत ब्रह्माण्डों में रहनेवाली सौरशक्ति का उद्गमस्थान यानी गति, प्रगति, विकास, वृद्धि और पराक्रम का मूल स्रोत और वरुण यानी केवल इस पृथ्वी पर बरसात करनेवाले और नदियों-समुद्रों के देवता नहीं है; बल्कि वरुण यह अनादि, अनंत ब्रह्माण्डों में रहनेवाले बल, पुष्टि, तृप्ति, विश्राम और नीतिपालन (मर्यादा) का मूल स्रोत है।

वेदों के अनुसार इन दोनों का अस्तित्व अलग अलग हो ही नहीं सकता। एक है तो ही दूसरा है और एक नहीं है, तो दूसरा भी नहीं है। लोहचुंबक (मॅग्नेट) में जिस प्रकार उत्तर और दक्षिण ध्रुव (पोल्स) हमेशा होते ही हैं, मूल लोहचुंबक की पट्टी के चाहे कितने भी टुकड़े क्यों न कर दिये जायें, मग़र तब भी हर एक टुकड़े में उत्तर और दक्षिण ध्रुव होते ही हैं, ठीक उसी तरह विश्‍वरचना की हर एक प्रक्रिया में ये मित्र-वरुण दो ध्रुवों के समान होते ही हैं। अनंत का पर्यवेक्षण करनेवाले ऋषियों की प्रज्ञा को, ईश्‍वरीय प्रतिभा को परमेश्‍वर के गुणों का जो दर्शन हुआ, उस दर्शन का सगुण आविष्करण ही है मित्र-वरुण।

वेदों में रहनेवाली मित्र-वरुण की उपासना आज लुप्त हो गयी है, उसके अवशेष कुछ यज्ञविधानों में दिखायी देते हैं। वेदों में रहनेवाले पराक्रमी, पवित्र एवं उदार इंद्र को दूर करके उसका स्थान पुराणो में वर्णित विषयलंपट, स्वार्थी एवं डरपोक इंद्र द्वारा लिया गया और वेदों में वर्णित शौर्यदाता (शूरता प्रदान करनेवाले) इंद्र की उपासना भी धीरे धीरे कम होती गयी। आज के दौर में अल्प मात्रा में ही सही, बाकी बची है, वेदों में वर्णित अग्नि की उपासना।

अगस्ति इन मित्र-वरुण के पुत्र हैं; इंद्र, प्रभु रामचंद्र और भगवान श्रीकृष्ण इनके परामर्शदाता आचार्य और अग्नि के संरक्षक है।
(क्रमशः)

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है।)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

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