एक लाख सेवाप्रकल्पों की घोषणा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ६१

भयानक रक्तपात घटित होने के बाद पंजाब धीरे धीरे शांत होने लगा। पंजाब का जनजीवन सुचारु रूप से चलने लगा। कट्टरपंथियों के हिंसाचार से त्रस्त हुई पंजाब की जनता ने ही दरअसल इस समस्या को एकता से सुलझाया। इसका एक ज़बरदस्त उदाहरण देता हूँ। एक जगह कट्टरपंथियों ने बस को रोककर इस बस में रहनेवाले सिख समुदाय के लोगों को बस से बाहर निकलने के लिए कहा। उन्हें छोड़कर बाक़ी जो लोग बस में थे, उन सबको वे लोग ख़त्म करना चाहते थे। लेकिन इस बस में बैठे सिखों ने बाहर आने से साफ़ इन्कार कर दिया। ‘यदि मारना ही चाहते हो, तो सबको मारो, लेकिन हम बस से नहीं उतरेंगे’ यह सुनकर कट्टरपंथियों को मजबूरन् इस बस को छोड़ देना पड़ा। इस तरह की एकता के कारण पंजाब में शांति स्थापित होने लगी। लेकिन देश के दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर में भी अलगाववादियों के देशविघातक कारनामें तीव्र बनते जा रहे थे।

MadhukarDattatraya

जम्मू-कश्मीर और ईशान्य के राज्यों में अलगाववादी आंदोलन ज़ोर पकड़ रहे थे। तमिळनाडू में लिट्टे का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा था। देश की एकसंघता के लिए यह बहुत बड़ा ख़तरा साबित हो रहा था। कुल मिलाकर १९८० के दशक मे, देश के सामने रहनेवालीं चुनौतियाँ बहुत बड़े प्रमाण में बढ़ गयी थीं। कश्मीर को भारत से छीनने का ख्वाब देखनेवाले पाक़िस्तान ने, पंजाब में चले आतंकवादी कारनामों के लिए हरसंभव कोशिशें की ही थीं। अब कश्मीर के आतंकवादियों के पीछे पाक़िस्तान ने अपनी सारी ताक़त खड़ी की। ईशान्य के राज्यों में अलगाववादियों की सहायता करके चीन भारत में अस्थिरता फैला रहा था। संघ इन सारे हालातों का बारिक़ी से अवलोकन कर रहा था। ये समस्याएँ आज-कल की नहीं हैं। उनकी जड़ें देश के भूतकाल में ही दृढ़ होती गयी थीं। उसके विरोध में संघ ने समय समय पर सरकार और समाज को आगाह भी कर दिया था। संघ द्वारा दी गयीं चेतावनियों को नज़रअंदाज़ कर देने के भयानक परिणाम देश को भुगतने पड़ रहे थे।

श्रीगुरुजी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूजी को‘ कश्मीर के बारे में एहतियाद बरतने की चेतावनी दी थी। ‘कश्मीर को विशेष दर्जा मत दीजिए, वह घातक सिद्ध होगा’ ऐसा गुरुजी ने डटकर कहा था। सन १९६५ के युद्ध में गँवाये हुए कश्मीर के सारे भूभाग पर पुनः कब्ज़ा करने के, खुद अपने पैरों से चलकर आये स्वर्णिम अवसर को ज़ाया मत कीजिए, ऐसा आवाहन गुरुजी ने, उस समय प्रधानमंत्री रहनेवाले लालबहादूर शास्त्रीजी से किया था। दुर्भाग्य की बात यह है कि किसी ने भी उस समय संघ का कहा नहीं माना। कुछ दशकों के बाद इसके दुष्परिणाम देश के सामने खड़े हो ही गये। ईशान्य के राज्यों के अलगाववादियों के कारनामों के बारे में भी संघ ने समय समय पर आगाह किया था। अलगाववादी शक्तियों की साज़िशें नाक़ाम करने के लिए संघ ने ईशान्य के राज्यों में अपने कार्य का विस्तार किया था। इस क्षेत्र में वनवासी कल्याण आश्रम तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्य की व्याप्ति जानबूझकर बढ़ायी गयी थी। यहाँ पर संघ ने बड़े पैमाने पर पूर्णकालीन (फुलटाईम) कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की थी।

देशभर में शुरू रहनेवाले अलगाववादियों के कारनामें और उसके पीछे रहनेवाली, देश को अस्थिर बनाने की विदेशी शक्तियों की साज़िश, इसका संघ को पूर्ण रूप से एहसास हो चुका था। हमारा समाज विदेशियों की इस साज़िश का शिक़ार न बनें इसके लिए, शरीर के क्षीण होते रहने के बावजूद भी बाळासाहब ने अपनी सारी शक्ति दाँव पर लगा दी। देशभर में यात्रा करके, जनता को इस साज़िश के विरोध में जागृत करने का काम बाळासाहब ने किया। विदेशों से चाहे कितनी भी बड़ी साज़िशें क्यों न बनायी जायें, मग़र फिर भी जब तक हमारे समाज में फूट नहीं पड़ जाती, तब तक इन साज़िशों को सफलता मिलना मुमक़िन नहीं है। समाज एक होगा, तो राष्ट्र के विरोध में रहनेवाले किसी भी कारस्तान को नाक़ाम बनाया जा सकता है। इसीलिए समाज को संघटित करने के काम को पूजनीय सरसंघचालक ने सर्वाधिक अहमियत दी। ऐक्य के महत्त्व को बार बार समाज के मन पर अंकित किया।

सन १९८८ में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में, ‘सामाजिक समरसता मंच’ के द्वारा देशभर में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इन कार्यक्रमों में साधुसंतों से लेकर वनवासी बांधवों तक सभी ने सहभाग लिया। इनमें, स्वयं को संघ से जानबूझकर दूर रखनेवाले लोगों का भी समावेश था। यहाँ पर कुछ लोग पैदल चलकर आये, कुछ बस में से आये, कुछ सायकिलों पर सवार होकर, तो कुछ घोड़ों पर सवार होकर भी आये थे। कुछ वनवासी बांधव, उनकी पहचान रहनेवाला ‘तीर-कमान’ लेकर आये थे। महिलाओं ने भी हज़ारों की तादाद में इन कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था। कुछ स्थानों से, ‘डॉ. हेडगेवार ज्योति’ लेकर प्रवास करनेवाले लोग इस कार्यक्रम के स्थान पर आ रहे थे। जगह जगह पर इस सम्मेलन के विराट स्वरूप एवं विविधता को देखकर सभी लोग दंग रह गये थे।

समाचारपत्रों को इसकी दख़ल लेनी ही पड़ी। उस समय संघ के साहित्य का बड़े पैमाने पर वितरण किया गया। इस कार्यक्रम का बहुत बड़ा लाभ मिला। क्योंकि इसके बाद संघ की शाखाओं की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई। यहाँ तक कि वनवासी क्षेत्र में भी संघ की शाखाएँ शुरू हुईं। देश के सामने जब अलगाववादी शक्तियों की चुनौती खड़ी है, उस समय जो सरकार नहीं कर सकती, वह समाज कर दिखा सकता है, ऐसा संघ का कहना था। इन कार्यक्रमों का आयोजन कर संघ ने उसे साबित भी कर दिखाया।

डॉ. हेडगेवार की जन्मशताब्दि के उपलक्ष्य में पूजनीय सरसंघचालक बाळासाहब ने एक लाख सेवाप्रकल्पों की शुरुआत करने की घोषणा की थी। इस सपने को साकार बनाने के लिए संघ के सभी संगठन काम में जुट गये थे। इसके लिए लगनेवाली प्रचंड सेवानिधि इकट्ठा करने के लिए स्वयंसेवकों ने घर घर में जाकर लोगों से आवाहन किया। संघ यह निधि अपने लिए नहीं माँग रहा था, बल्कि सेवाकार्य को आगे ले जाने के लिए इस निधि की आवश्यकता थी। उसे समाज से प्रतिसाद मिलेगा, ऐसा संघ का विश्‍वास था। विलक्षण आत्मीयता के साथ खुले हाथों से सहायता कर समाज ने इस विश्‍वास को सार्थ बनाया।

दिहाड़ी (डेली वेजेस) पर ख़ेतों में काम करनेवाले मज़दूर, गरीब क़िसान, शहर के होटलों में काम करनेवाले सेवक से सधन लोगों तक, सभी ने आगे आकर सेवानिधि दी। पाँच और दस रुपयों की रसीदें फ़ाड़नेवालों से लेकर लाखों रुपयों की निधि देनेवाले आगे आये। गृहिणी, छात्र इन्होंने भी अपनी अपनी क्षमता के अनुसार इस विशाल कार्य में अपना हाथ बटाया। समाज का कायापालट करने के लिए, समाज को सशक्त बनाने के लिए इतने व्यापक प्रमाण में कार्य करने की आवश्यकता थी ही। देशभर में इस कार्य के चलते, बाळासाहब प्रवास कर स्वयं होकर मार्गदर्शन करते थे। उनका शरीर थक रहा था। लेकिन उसका असर बाळासाहब का प्रवास और कार्य इनपर नहीं हुआ।

संघ की प्रेरणा से देशभर में अफाट सेवाकार्य शुरू था। लेकिन हमारे समाज को एक अलग ही चेतना की आवश्यकता थी। हज़ारों वर्षों का इतिहास रहनेवाले इस देश को जिन प्रभु श्रीरामचंद्रजी से चेतना मिल सकती है, उन श्रीराम की जन्मभूमि को मुक्त करने में समाज को सफलता नहीं मिल रही थी। न्यायालय और सरकार के दरवाज़ें कई बार खटखटाकर भी इन्साफ़ नहीं मिल रहा था। इस मामले में रहनेवाली दोनों की भी उदासीनता को देखकर समाज की सहनशीलता ख़त्म होने की कगार पर थी। इसके लिए व्यापक जनआंदोलन की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। रामजन्मभूमि को लगा ताला खुल गया था, यहाँ पर पूजन-अर्चन भी शुरू हो चुका था; मग़र फिर भी कई सालों से इन्साफ़ के लिए प्रयास करके भी समाज के पल्ले निराशा पड़ने के बाद समाज की सहनशीलता धीरे धीरे ख़त्म होते रहना यह बिलकुल स्वाभाविक है। ‘हमारे राष्ट्र का मानबिंदु रहनेवाले प्रभु श्रीरा मचंद्रजी के जन्मस्थल पर भव्य मंदिर बनाना, यह हिंदु समाज का अधिकार है और वह पवित्र कर्तव्य भी है’ ऐसे बाळासाहब ने ज़ाहिर रूप में कहा था।

(क्रमश:)

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