परमहंस-८७

रामकृष्णजी के साथ की दो मुलाक़ातों के बाद उनके बारे में नरेंद्र को जो प्रश्‍न सता रहा था, उसका उत्तर जानने की कोशीश वह जी-जान से कर रहा था।

उसके बाद उन दोनों की एक और तीसरी मुलाक़ात भी हुई। दक्षिणेश्‍वर के पास ही होनेवाले, विख्यात बंगाली इतिहास संशोधक यदुनाथ सरकारजी के बगीचे में चक्कर मारने के बाद वहाँ के फार्महाऊस में वे दोनों बैठे थे। उस समय भी बैठक के अन्य लोग अभी पहुँचने होने के कारण, थोड़े समय के लिए ये दोनों ही थे। इस बार नरेंद्र ने ठान ली थी कि यदि पिछली बार जैसा कुछ घटित हुआ ही, तो मानसिक दृष्टि से उसे शुरू से ही जमकर विरोध करूँगा। लेकिन बैठने के बाद थोड़े ही समय में रामकृष्णजी भावसमाधि को प्राप्त हुए। नरेंद्र यह सबकुछ देख ही रहा था। बीच में ही रामकृष्णजी ने नरेंद्र को स्पर्श किया और नरेंद्र भी भावसमाधि में चला गया। थोड़ी देर बाद जब उसने होश सँभाला, तब उसे अच्छा महसूस हो रहा था। लेकिन बीच की कालावधि में क्या घटित हुआ, वह उसे थोड़ा भी याद नहीं आ रहा था। ‘इस बीच की कालावधि में मैंने नरेंद्र के भूतकाल में झाँककर देखा, उसके भूतकाल की छानबीन करके उसके भूतकाल के बारे में जान लिया’ ऐसा रामकृष्णजी ने आगे चलकर इस तीसरी मुलाक़ात के बारे में अपने शिष्यगणों के साथ बात करते हुए कहा? था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवैसे तो नरेंद्र तथा अन्य नज़दीकी शिष्यगणों के आगमन के बारे में रामकृष्णजी को भावावस्था में बहुत पहले से ही पता चला था, लेकिन नरेंद्र के बारे में उनके मन में कुछ प्रश्‍न बाक़ी रह गये थे, जिनके उत्तर रामकृष्णजी को इस तीसरी मुलाक़ात में प्राप्त हुए, ऐसा उन्होंने अपने शिष्यों को बताया।

इस तीसरी मुलाक़ात के बाद नरेंद्र में भी आमूलाग्र बदलाव हुआ और रामकृष्णजी के प्रति उसके मन में होनेवाले सभी सन्देह ख़त्म होकर वह रामकृष्णजी का भक्त बन गया था।

वे नरेंद्र के बारे में हमेशा बताते थे कि ‘नरेंद्र के पास इतनी क्षमता है कि यदि उसकी थोड़ीसी भी झलक दुनिया को देखने को मिलेगी, तो दुनिया उसे सिर पर बिठायेगी। लेकिन यहीं पर ख़तरा है। उस प्रचण्ड क्षमता को आध्यात्मिक दायरे में रहना ज़रूरी है। यदि उसका ग़लत तरह से इस्तेमाल हुआ, तो उसका दुरुपयोग हो सकता है।’

मुख्य बात यानी, भारतीय तत्त्वज्ञान आध्यात्मिक उन्नति के लिए जो गुरु की आवश्यकता प्रतिपादित करता है, उसकी कुछ ख़ास ज़रूरत नरेंद्र को उस ज़माने में नहीं महसूस हो रही थी। उस कारण भी रामकृष्णजी को नरेंद्र की चिन्ता होने लगी थी और वे हमेशा ईश्‍वर, ब्रह्म, अद्वैतसिद्धांत आदिविषयक संभाषणों में नरेंद्र को शामिल करा लेते थे। लेकिन शुरू शुरू में नरेंद्र को यक़ीन नहीं होता था। ख़ासकर, ‘ईश्‍वर के सगुण साकार रूप’ यह बात ही उसे हज़म नहीं होती थी। इस बात को लेकर उसके रामकृष्णजी के साथ विवाद भी होते थे। एक बार तो उसने ऐसे ‘ब्रह्म’ विषयक संभाषण के बाद, उसके बारे में अपने दोस्तों से बात करते हुए उसका मज़ाक भी उड़ाया था। लेकिन ठीक उसी समय रामकृष्णजी वहाँ पर आये और उन्होंने नरेंद्र को हल्के से स्पर्श किया। ‘उसके बाद मुझे वाक़ई मेरे संपर्क में आनेवाली हर चीज़ में ‘ब्रह्म महसूस होने लगा था’ और उसके बारे में मेरे मन में होनेवालीं आशंकाएँ ख़त्म होने के बाद ही वह वाक़या थम गया’ ऐसा रामकृष्णजी के ‘उस’ स्पर्श के बारे में बोलते हुए आगे चलकर नरेंद्र ने बताया था।

इस बीच रामकृष्णजी के पास अन्य भी शिष्यगण आ रहे थे। साथ ही, बंगाल की, ख़ासकर कोलकाता की तत्कालीन सुविख्यात हस्तियों के साथ उनकी मुलाक़ातें हो रही रही थीं। उनकी सन्निधता में आया व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हों, वह उनके प्रभाव से भारित हुए बिना नहीं रहता था।

ऐसा ही एक बंगाल का सुविख्यात व्यक्तित्व था – पंडित ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर। कोलकाता के संस्कृत कॉलेज के मुख्याध्यापक होनेवाले ईश्‍वरचंद्र अपने ज्ञान के कारण, शिक्षा के कारण, सुधारक विचारधारा के कारण, विनम्रता के कारण, साथ ही पवित्रता के आग्रह के कारण और ख़ास कर उनकी उदारता एवं दानधर्म के कारण बंगाल में और देशभर में भी सुविख्यात थे। उनकी उदारता की ख्याति को सुनकर उन्हें हररोज़ देशभर में से सहायता-याचना करनेवाले अनगिनत पत्र आते थे। लेकिन इतना होकर भी ज़रासा भी अहंकार न होनेवाले ईश्‍वरचंद्रजी को मिलने की तीव्र इच्छा एक दिन रामकृष्णजी के मन में उठी। रामकृष्णजी के एक क़रिबी शिष्य ‘महेंद्रनाथ गुप्ता’ (‘एम्.’ नाम से विख्यात) इनके ईश्‍वरचंद्रजी से घरेलु संबंध थे। उनके ज़रिये अगाऊ समय निर्धारित कर रामकृष्णजी ईश्‍वरचंद्रजी के घर गये। लेकिन वहाँ पहुँचते समय किसी छोटे बच्चे की तरह – ‘मेरे हुलिये पर कहीं ईश्‍वरचंद्रजी ग़ुस्सा तो नहीं होंगे? मैंने अंगरखे के बटन नहीं लगाये हैं, उन्हें बुरा तो नहीं लगेगा?’ ऐसा वे लगातार अपने शिष्यों से पूछ रहे थे।

रामकृष्णजी की ख्याति सुनने के कारण उनसे मिलने उत्सुक होनेवाले ईश्‍वरचंद्रजी ने उनका प्यार से और नम्रतापूर्वक स्वागत किया। ‘मैं आज साक्षात् विद्या के सागर से मिल रहा हूँ, लेकिन वह ज़रासा भी नमकीन न होकर, उल्टा ज्ञान की मधुरता के कारण वह मीठा ही हुई है – मानो दुग्धसागर ही है’ ऐसे शब्दों में रामकृष्णजी ने ईश्‍वरचंद्रजी का गौरव किया। उसके बाद एक छोटासा प्रवचन ही रामकृष्णजी ने किया। ईश्‍वरचंद्र, उनके परिजन और उनसे मिलने आये लोग एकचित्त होकर उस प्रवचन को सुन रहे थे।

रामकृष्णजी शाम को पुनः दक्षिणेश्‍वर जाने निकले, वह ईश्‍वरचंद्रजी का दिल जीतकर ही!

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