परमहंस-१२६

रामकृष्णजी द्वारा दक्षिणेश्‍वर से शुरू किया गया भक्तिप्रसार का कार्य अब तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था। रामकृष्णजी ने चुने हुए संन्यस्त भक्तों का पहला समूह रामकृष्णजी की सीख को भक्तों तक पहुँचाने का काम जोशपूर्वक कर रहा था और उस माध्यम से वृद्धिंगत होते जा रहा ‘रामकृष्ण-संप्रदाय’ अब सुचारू आकार धारण कर रहा था।

ऐसे में सन १८८५ की शुरुआत हुई। उस साल की गर्मी कुछ ज़्यादा ही कड़ी थी और उष्मे ने सभी को ‘त्राहि भगवान’ कर छोड़ा था। रामकृष्णजी से मिलने दक्षिणेश्‍वर आनेवाले भक्तों में से कुछ लोग कई बार उनके लिए अन्य पदार्थों के साथ ही, गर्मी पर इलाज़ के तौर पर बरफ़ भी ले आते थे। बरफ़मिश्रित ठण्ड़े पानी से रामकृष्णजी को गर्मी से थोड़ी राहत मिलें, यह इसके पीछे का हेतु रहता था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णयह हेतु काफ़ी हद तक साध्य भी होता था। लेकिन अक़्सर इस तरह बाहर के बरफ़ का सेवन करने के कारण या फिर अन्य कुछ कारणवश, धीरे धीरे रामकृष्णजी का गला दुखना शुरू हुआ था। शुरू शुरू में जलन के रूप में होनेवाली यह वेदना, ध्यान में भी नहीं आयेगी इस क़दर नगण्य थी; लेकिन अप्रैल महीने के ख़त्म होने तक यह पीड़ा अधिक तीव्र भी होने लगी और बार बार भी होने लगी। ख़ासकर जब रामकृष्णजी का अपने भक्तों के साथ होनेवाला संभाषण प्रदीर्घ होता था या फिर वे समाधिअवस्था में अधिक समय तक रहते थे, तब गला दुखने की शुरुआत होती थी।

उनके क़रिबी भक्तों को इस बात को लेकर चिन्ता होने लगी और उन्होंने गले की बीमारियों के कोलकातास्थित एक विशेषज्ञ डॉ. राखालचंद्र हलधर को पाचारण किया। डॉ. राखालचंद्र ने रामकृष्णजी की जाँच कर उन्हें दवाइयाँ दीं और परहेज़ के बारे में भी सूचनाएँ कीं।

ख़ासकर उनकी बीमारी जिनके बाद बढ़ती थी, उन दो बातों को – अर्थात् प्रदीर्घ समय तक संभाषण करना और समाधिअवस्था में जाना – इन्हें टालने के लिए डॉ. हलधर ने रामकृष्णजी से कहा।

परहेज़-दवाइयों तक ठीक था, लेकिन संभाषण को टालना और समाधिअवस्था को टालना, ये बातें रामकृष्णजी के लिए अशक्यप्राय थीं। मूलतः ‘समाधिअवस्था में जाना’ यह बात तो उनपर निर्भर ही नहीं करती थी – वह अपने आप घटित होनेवाली बात थी। अब रही बात ‘संभाषण को टालने की’। तो रामकृष्णजी का आनेवाले भक्तों के प्रति होनेवाला प्रेम, उनके प्रति होनेवाली अनुकंपा इन्हें देखते हुए, भक्तों को भक्तिमार्ग में मार्गदर्शन करने की उनकी नितांत लगन को देखते हुए, ‘संभाषण को टालना’ यह भी उनके लिए बहुत कठिन बात थी।

उतने में ही मई महीने में, दक्षिणेश्‍वर से कुछ मील पर होनेवाले पानिहाटी गाँव में हर साल मनाया जानेवाला ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ का उत्सव नज़दीक आया। इस उत्सव के लिए रामकृष्णजी को प्रेमल निमंत्रण रहता था और इस उत्सव में रामकृष्णजी गत कई सालों से उपस्थित रहते थे। गौरांग चैतन्यजी के ‘रघुनाथ दास’ नामक एक शिष्य ने १६वीं सदी में शुरू किये इस उत्सव में हर साल हज़ारों वैष्णव भाविक सत्संग में भक्तिप्रेम का आनंद उठाने के लिए सम्मिलित होते थे। गंगाजी के तट पर स्थित इस गाँव में होनेवाला राधा-कृष्ण का मंदिर यह इस उत्सव का केंद्रस्थान था और इस उत्सव में आये हुए भाविकों को प्राप्त होनेवाला दहीपोहे का प्रसाद यह यहाँ का ख़ास आकर्षण होता था।

इस उत्सव का इस साल (१८८५) भी जब निमंत्रण आया, तब प्रफुल्लित होकर रामकृष्णजी ने वहाँ जाने का अपना मन्तव्य ज़ाहिर किया। तब उनके नज़दीकी शिष्यों की मानो साँस ही रूक गयी। क्योंकि वहाँ जाने के बाद रामकृष्णजी का, भजन में तल्लीन होकर गाते हुए भावसमाधि-अवस्था में जाना यह तो नित्य की बात थी और शिष्यगणों तथा उपस्थितों के लिए भी वह आनंददायी नज़ारा होता था। लेकिन अब उनकी इस नये से शुरू हुई बीमारी के लिए यह बात ख़तरनाक साबित हो सकती थी।

लेकिन चाहे कितना भी समझा-बुझाया, रामकृष्णजी नहीं मान रहे थे। ‘पुराने शिष्यगणों को इस भक्ति के उत्सव का अनुभव करने का लाभ प्राप्त हुआ है, लेकिन नये शिष्यों का क्या? वे भला कब इस भक्तिसमारोह का अनुभव करेंगे?’ ऐसा युक्तिवाद कर रामकृष्णजी ने उन्हें निरुत्तर किया और अपने साथ लगभग २५-३० शिष्यों को लेकर पानिहाटी जाने का निर्णय ज़ाहिर किया, जिनमें नये से संप्रदाय में शामिल हुए कई शिष्य थे।

रामकृष्णजी जब एक बार कुछ बात ठान लेते हैं, तब वे उसे कर दिखाते ही हैं, यह बात उनके पुराने शिष्यगण अनुभव से जानते थे। इसलिए अब वहाँ रामकृष्णजी का क्या और कैसे खयाल रखा जायें, इसपर उनमें विचारविमर्श शुरू हुआ….

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