७०. अंतिम संघर्ष की तैयारी

सन १९३९ की ज्यू-अरब लंडन परिषद के असफल होने के बाद ब्रिटीश सरकार ने इस मामले में इकतरफ़ा ही श्‍वेतपत्रिका जारी की।

इस श्‍वेतपत्रिका में दरअसल अरबों को बहुत ही ‘फेवर’ किया गया था (पॅलेस्टाईन प्रान्त की अधिकांश ज़मीन अरबों को, तो बहुत ही मामूली ज़मीन ज्यूधर्मियों को; ज्यूधर्मियों के स्थलांतरण पर और ज़मीनखरीदारी पर स़ख्त पाबंदियाँ आदि) और ज्यूधर्मियों का केवल नाम के लिए विचार किया गया था।

ब्रिटिशों की १९३९ की श्‍वेतपत्रिका के विरोध में ज्यूधर्मियों ने पॅलेस्टाईन में जगह जगह पर निदर्शन किये।

लेकिन ग्रँड मुफ्ती अल-हुसैनी तथा अन्य कुछ अरब नेता, पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों का अस्तित्व ही नहीं चाहते थे। इस कारण, दरअसल कई अरबी नेताओं का मत इस श्‍वेतपत्रिका को मंज़ूर करने के पक्ष में होने के बावजूद भी, अरबों ने ग्रँड मुफ्ती अल-हुसैनी के दबाव में आकर इस श्‍वेतपत्रिका को भी ठुकरा दिया;

और ज्यूधर्मियों के दुनियाभर से पॅलेस्टाईन में होनेवाले स्थलांतरण पर हमेशा के लिए रोक लगायी जाने की और मुख्य रूप में, ‘पॅलेस्टाईन में ज्यूधर्मियों के लिए नॅशनल होम’ यह विषय ही हमेशा के लिए बन्द कर देने की माँग की।

साथ ही, इस अंतिम श्‍वेतपत्रिका में भी ब्रिटिशों ने ज्यूधर्मियों के पॅलेस्टाईन में होनेवाले स्थलांतरण पर पूर्ण रूप से रोक नहीं लगायी, इसके निषेध में अरबों ने पॅलेस्टाईन में कई स्थानों पर प्रदर्शन शुरू किये।

वहीं, दूसरी तरफ़ – ‘हमारे स्वतंत्र ज्यू-राष्ट्र की माँग पर यह आख़िरी घाव है’ इसका यक़ीन हो चुके ज्यूधर्मियों ने भी तत्काल इस श्‍वेतपत्रिका को नकार दिया। उनमें से जहालमतवादियों की सहनशीलता तो पहले ही ख़त्म हो चुकी थी। ज्यूधर्मियों ने भी पॅलेस्टाईन के कई प्रान्तों में प्रदर्शन शुरू किये।

उसीके अनुसार ज्युईश नेता डेव्हिड बेन-गुरियन ने – ‘अब पॅलेस्टाईनस्थित ज्यूधर्मियों की सहनशक्ति ख़त्म हुई होकर, उनके साथ अब तक किये अन्याय्य सुलूक़ के कारण उनमें प्रचंड असंतोष उबल रहा है। इस कारण, यदि उनपर अधिक अन्याय करने की कोशिश की गयी, तो फिर उन्होंने अब तक रखा हुआ – ‘स्वयं होकर पहले आक्रमण/हिंसा न करने का’ सब्र टूटने की संभावना है। अरब दंगों के अंतिम दौर में इसकी थोड़ीबहुत झलक देखने को मिली ही है। वैसा यदि पुनः घटित हुआ, तो अरब दंगों जितने ही भयावह परिणाम पॅलेस्टाईन प्रांत को भुगतने पड़ेंगे, इस बात पर ब्रिटीश प्रशासन ग़ौर करें’ ऐसी चेतावनी ब्रिटिशों को दी।

ब्रिटीश सरकार द्वारा पाबंदी लगाये गये जॅबोटिन्स्की जैसे ज्यूधर्मीय जहाल नेताओं के नेतृत्व में सशस्त्र और प्रशिक्षित ज्यू सैनिक पॅलेस्टाईन प्रान्त में घुसाये जायेंगे; और सारे ब्रिटीश आस्थापनों एवं सत्ताकेंद्रों पर कब्ज़ा कर, उनपर ज्युइश ध्वज लहराकर उनकी हिफ़ाज़त करना, ऐसी रणनीति सोची गयी थी।

यह चेतावनी कितनी गंभीर थी, उसकी झलक ब्रिटिशों को तथा पॅलेस्टाईनस्थित अरबों को जल्द ही देखने को मिली। ‘इरगन’ जैसे जहाल झायॉनिस्ट गुटों ने सरकारी मालमत्ता पर और ज्यू स्थलांतरण के ख़िलाफ़ पॅलेस्टाईन भर में प्रदर्शन करनेवाले अरबों पर हमले करने का सत्र शुरू किया। अगले कुछ महीनों तक यह सिलसिला जारी था। ज्यूधर्मियों की उम्मीदों एवं माँगों को पैरों तले कुचल देनेवाली इस श्‍वेतपत्रिका को ‘जैसे को तैसा’ जवाब देकर, ज्यू स्वतन्त्रता का सपना साकार करने का निश्‍चय ज्यूधर्मियों के जहाल गुटों ने किया था।

इसके अलावा एक और व्यापक योजना बनायी गयी थी। युरोप में लष्करी प्रशिक्षण लिये और हथियारों से लैस ऐसे ज्यूधर्मीय सैनिक, ब्रिटीश सरकार द्वारा पाबंदी लगाये गये जेबोटिन्स्की जैसे ज्यूधर्मीय जहाल नेताओं के नेतृत्व में पॅलेस्टाईन प्रान्त में घुसाये जायेंगे; और सभी ब्रिटीश आस्थापनों और सत्ताकेंद्रों पर कब्ज़ा कर, उनपर ज्युइश ध्वज लहराकर उनकी हिफ़ाज़त करेंगे ऐसी रणनीति सोची गयी थी। पोलंड जैसे देशों ने इस योजना को समर्थन भी दिया था और ज्यूधर्मियों को लष्करी प्रशिक्षण प्रदान करने जैसे उपक्रम शुरू भी किये थे। लेकिन उसी दौरान दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हुआ होने के कारण सारे आंतर्राष्ट्रीय समीकरण बदल गये और यह योजना कार्यान्वित होने से पहले ही ख़ारिज़ हो गयी।

युरोप में बढ़ते ज्यूविद्वेष के कारण अब स्वतंत्र ज्यूराष्ट्र का होना यह वक़्त की ज़रूरत बन गयी थी। अब अमरिकी ज्यूधर्मीय भी खुले आम स्वतंत्र ज्यूराष्ट्र को समर्थन देने लगे थे। मई १९४२ में न्यूयॉर्क में आयोजित की हुई झायॉनिस्ट काँग्रेस में – पॅलेस्टाईन प्रान्त को ज्यू-राष्ट्र घोषित करना, ज्यूधर्मीय सेना का गठन करना और मुख्य रूप से, पॅलेस्टाईन में होनेवाले ज्यूधर्मियों के स्थानांतरण पर अंशमात्र भी रोक न होना; इन डेव्हिड बेन-गुरियन ने प्रस्तुत की माँगों को उपस्थित जागतिक ज्यूधर्मियों से बिनविरोध समर्थन प्राप्त हुआ।

दूसरे विश्‍वयुद्ध में पॅलेस्टाईनस्थित ज्यूधर्मीय सैनिक ब्रिटिशों के पक्ष में लड़े।

इस तरह इस श्‍वेतपत्रिका के साथ साथ ब्रिटीश और ज्यूधर्मियों के बीच के अच्छे संबंध ख़त्म हो चुके थे। लेकिन फिर भी इस विश्‍वयुद्ध में ज्यूधर्मियों ने ब्रिटिशों को ही समर्थन दिया। ‘(हालाँकि इस ब्रिटीश श्‍वेतपत्रिका द्वारा ज्यूधर्मियों का विश्‍वासघात किया गया है, फिर भी) श्‍वेतपत्रिका प्रकाशित हुई ही नहीं ऐसा मानकर हम इस युद्ध में ब्रिटिशों के पक्ष में लड़ेंगे और हालाँकि हम इस युद्ध में ब्रिटिशों के पक्ष में लड़ेंगे, हम श्‍वेतपत्रिका का विरोध करते ही रहेंगे’ इस आशय का विधान डेव्हिड बेन-गुरियन ने ‘ज्युईश एजन्सी’ की ओर से जारी किया। (‘वी वुड फाईट द वॉर अ‍ॅज इफ देअर इज नो व्हाईट पेपर अँड वी वुड फाईट द व्हाईट पेपर अ‍ॅज इफ देअर इज नो वॉर.’)

तक़रीबन २७ हज़ार ज्यूधर्मीय दूसरे विश्‍वयुद्ध में ब्रिटीश सेना में भर्ती होकर ब्रिटिशों की ओर से लड़े।

वहीं, दूसरी ओर – देश से भाग गये और विभिन्न देशांतरण कर आख़िरकार जर्मनी पहुँचे अल्-हुसैनी ने हालाँकि इस विश्‍वयुद्ध में खुलेआम ब्रिटन का विरोध कर जर्मनी का साथ दिा था और जर्मनी में से हो रहे उसके प्रक्षोभक रेडिओ प्रसारणों द्वारा वह पॅलेस्टाईन के अरबों को भी वैसा करने के लिए उक़सा रहा था, मग़र फिर भी कुछ अरब नेताओं को छोड़कर, आम अरब उसके इस उक़साने का शिकार नहीं बने। उन्होंने ब्रिटिशों का ही साथ दिया।

एक ओर ज्यूधर्मियों ने अपनी हक़ की भूमि प्राप्त कर लेने के लिए कड़े अंतिम संघर्ष की तैयारी शुरू की थी;

वहीं, दूसरी ओर जो ज्यूधर्मीय तब तक पॅलेस्टाईन प्रान्त में आकर बसे थे, उनके जीवनमान को बेहतर बनाने के लिए, बतौर एक समाज भी उनका विकास हों और उस विकास के फल सभी ज्यूधर्मीय समान रूप से चखें इसके लिए भी उन्होंने कोशिशें शुरू की थीं। शुरू शुरू में बतौर एक ‘प्रयोग’ किये हुए इनमें से कई उपक्रम आगे चलकर स्वतंत्र इस्रायल की पहचान बन गये।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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