प्रयाग (भाग-२)

प्रयाग पर मुघलों की हु़कूमत स्थापित हो जाने के बाद उसका नाम ‘इलाहाबाद’ रखा गया। अकबर ने इस शहर में संगम के पास नदी के किनारे पर एक क़िले का निर्माण भी किया। मुघलों के बाद कुछ समय के लिए इस शहर पर मराठों ने शासन किया। साधारणतः १८ वी सदी में अवध का नवाब और मुघल संयुक्त रूप से अंग्रे़जों के साथ लड़ते हुए बक्सर की जंग हार गये। इस जंग में हासिल हुई जीत के बाद अंग्रे़जों की चालाक ऩजर प्रयाग शहर में स्थित इस क़िले पर पड़ी और अपने साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी सेना को इस क़िले में रख दिया।

Fortआगे चलकर कुछ समय बाद इस पूरे शहर पर अंग्रे़जों का ही शासन स्थापित हुआ। अंग्रे़जों ने अलाहाबाद और उसके आसपास के जिन प्रदेशों को जीत लिया था, उन सभी प्रदेशों को जोड़कर एक नये प्रान्त का निर्माण किया और उस प्रान्त को नाम दिया गया ‘नॉर्थ वेस्टर्न प्रोव्हीन्स ऑफ  आग्रा’। इस प्रान्त की राजधानी यदि आग्रा थी, मग़र अलाहाबाद इस प्रान्त को भी एक महत्त्वपूर्ण शहर माना जाता था। इसवी १८५७ में भारतीयों द्वारा किये गए स्वतन्त्रता क्रान्तियुद्ध के बाद इस स्थिति में कुछ परिवर्तन हो गया और अंग्रे़जों ने अलाहाबाद को नॉर्थ वेस्टर्न प्रोव्हीन्स की राजधानी का दर्जा दिया और फिर  लगभग २०  सालों तक अलाहाबाद यह शहर इस प्रान्त की राजधानी बना रहा। लेकिन इसवी १८७७ में इस ‘नॉर्थ वेस्टर्न प्रोव्हीन्स’ के कुछ प्रान्तों को जोड़कर अंग्रे़जों ने उसका नाम ‘युनायटेड प्रोव्हीन्स’ रख दिया और इसवी १९२०   तक अलाहाबाद शहर इस प्रान्त की राजधानी बना रहा। भारत की स्वतन्त्रता के बाद अलाहाबाद का समावेश उत्तर प्रदेश में किया गया और आज यह उत्तर प्रदेश का एक महत्त्वपूर्ण शहर माना जाता है।

इस शहर की एक विशेषता यह है कि हमारे भारत के सात प्रधानमन्त्रियों का इस शहर के साथ कुछ न कुछ रिश्ता अवश्य था। इनमें से कुछ का जन्म यहाँ हुआ था, वहीं कुछ प्रधानमन्त्रियों ने यहाँ से चुनाव जीता था। इनके नाम पढ़ने से ही आप इस बात को समझ सकते हैं – जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, गुलझारीलाल नंदा, विश्‍वनाथप्रताप सिंग एवं चंद्रशेखर।

त्रिवेणि संगम के पास यमुना नदी के तट पर अकबर ने इसवी १५८३  में एक क़िले का निर्माण किया। निर्माण और शिल्पकला की दृष्टि से भी यह क़िला मुगलों के जमाने से एक उत्तम क़िले के रूप में माना जाता था। अर्थात् अंग्रे़जों ने अपनी सेना को इस क़िले में रखकर उसका बहुत अच्छा उपयोग किया। लेकिन काल के शिकंजे से कोई भी नहीं बच पाता, तो फिर  यह क़िला कैसे छूटेगा? अपने गतवैभव के कुछ चिह्न साथ लेकर आज भी यह क़िला यमुना नदी के तट पर स्थित है, लेकिन आजकल यह भारतीय सेना के अधिकार में है। इस क़िले के कुछ हिस्से को यात्रीगण देख सकते हैं। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित शिलालेखों में से एक शिलालेख इस क़िले में मौजूद है। साधारणतः १०.७ मीटर ऊँचाई के चिकने पत्थर पर इस शिलालेख को तराशा गया है, अर्थात् इस शिलालेख की भाषा और लिपि उसके निर्माण के जमाने की है। इसवी सन पूर्व ३ री सदी में निर्मित इस शिलालेख को अकबर द्वारा इस अलाहाबाद के क़िले में लाया गया, ऐसा कहा जाता है।

Prayagइस क़िले में और एक विशेष बात देख सकते हैं और वह है बरगद का पेड़। अब आप कहेंगे, इसमें क्या खास बात है, ऐसे कईं बरगदों के पेड़ जगह जगह पर दिखाई देते हैं।लेकिन इस बरगद के पेड़ की विशेषता उसके नाम में है। यह बरगद का पेड़ ‘अक्षय वट’ (अक्षय बरगद का पेड़) इस नाम से जाना जाता है। अक्षय वट यह एक प्राचीन और पवित्र बरगद का पेड़ है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किये गए वर्णन के अनुसार, प्राचीन काल में प्रयाग क्षेत्र में एक वटवृक्ष (बरगद का पेड़) था और उसका अस्तित्व मध्ययुग तक था। रामायण काल में श्रीराम-जानकीजी ने और महाभारत काल में पाण्डवों ने भी इस वटवृक्ष के दर्शन किये थें, ऐसा कहा जाता है। महाभारत के आरण्यक पर्व में इस अक्षय वट के अक्षयत्व के बारे में कहा गया है। उसके अनुसार महाप्रलय के समय इस वृक्ष की एक शाखा प्रलयकालीन जल पर तैरती रहती है और उस शाखा पर श्रीविष्णुजी बालरूप में मार्कंडेयमुनि को दिखायी देते हैं। अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि प्रलय के चपेट में आ जाने के बाद भी जिसका अस्तित्व बना रहता है, ऐसा यह अक्षय वट है, जिसका कभी भी क्षय-नाश नहीं होता। इस वृक्ष के साथ जुड़ी हुई अक्षयता के कारण ही यह वृक्ष धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस अक्षयवट का मोक्ष तथा पितरों के उद्धरण के साथ सम्बन्ध माना जाता है। इसी कारण इस अक्षयवट का दर्शन पुण्यप्रद है, यह धारणा भी है। अलाहाबाद के क़िले में स्थित एक वृक्ष के तने का निर्देश ‘अक्षय वट’ के तौर पर किया जाता है।

प्राचीन समय से प्रयाग का धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक और अपरम्पार महत्त्व है। वैसे देखा जाये तो भारत की प्रमुख दो नदियाँ, गंगाजी और यमुनाजी इन दोनों के साथ भारतीयों का एक गहरा रिश्ता है और साथ ही भारतीयों की पाप-पुण्य की, मोक्षप्राप्ति की संकल्पना इन दोनों नदियों के साथ बहुत ही घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। अर्थात् जहाँ केवल ये दो नदियाँ ही नहीं, बल्कि गुप्त रूप में विद्यमान तीसरी नदी सरस्वती भी एकसाथ मिल जाती हैं, ऐसे इस क्षेत्र को ‘तीर्थराज’ की उपाधि प्राप्त हो जाना स्वाभाविक ही है।

प्रयाग क्षेत्र में किये जानेवाले तीर्थविधियों में से कुछ का निर्देश इस तरह से किया जाता है – त्रिवेणिसंगम का पूजन, मुण्डन, स्नान, श्राद्ध, सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा किया जानेवाला बेनी (चोटी) का दान और कुछ देवताओं के दर्शन।

पुराणों में कहा है कि महिलाएँ इस स्थान में अपनी बेनी का दान करें। मध्ययुगीन काल में इस प्रकार त्रिवेणि संगम में महिलाएँ अपनी बेनी का दान करती थीं। लेकिन आगे चलकर यह प्रथा बन्द हो गयी और उसके बाद चोटी का केवल एक सिरा (चोटी का ऊँगली जितने आकार का हिस्सा) काटकर उसे बेनीदान के रूप में अर्पण किया जाता था।

प्रयागक्षेत्र जाने के बाद कुछ विशिष्ट स्थानों के दर्शन करना आवश्यक माना जाता है। इनमें त्रिवेणि संगम, सोम, भरद्वाज एवं शेष, अक्षय वट, माधव तथा वासुकि इन स्थानों के दर्शन करना आवश्यक माना जाता है। इनमें से त्रिवेणि संगम अर्थात् गंगाजी, जमुनाजी एवं गुप्त सरस्वतीजी इन तीन नदियों का संगम। सिर पर बनायी जानेवाली बालों की चोटी के समान ये तीन नदियाँ एक-दूसरे में मिल जाती हैं, ऐसा माना जाता था और सम्भवतः इसी कारण यहाँ स्त्रियों द्वारा बेनी दान करने की प्रथा शुरू हो चुकी होगी। सोम यह यमुनाजी के दूसरे तट पर स्थित छोटासा शिवमन्दिर है। भरद्वाजऋषि का आश्रम जहाँ पर विद्यमान था, वहाँ पर एक शिवलिंग स्थापित किया गया है, जिसे‘भरद्वाजेश्वर’ कहते हैं। इस मन्दिर में सहस्र फनों के शेषजी की मूर्ति है। अक्षय वट के बारे में हम पहले ही देख चुके हैं। माधव अर्थात् अक्षयवट की दाहिनी ओर स्थित माधव क्षेत्र, जिसे ‘वेणीमाधव’ कहा जाता है। ये प्रमुख माधव हैं और इनके अलावा अन्य बारह माधव इस क्षेत्र में विद्यमान हैं। गंगाजी के तट पर वासुकि मन्दिर है।

इस प्रयाग क्षेत्र में होनेवाले कुम्भमेले के बारे में आप जानते ही होंगे, लेकिन उसीके साथ हर वर्ष के माघमास में (माघ के महीने में) प्रयाग में बड़ी यात्रा होती है, जिसे ‘माघ मेला’ कहा जाता है। इस माघमेले के दरमियान एक महीने तक या जितने दिन सम्भव हो सके, उतने दिनों तक संगम पर या गंगा-यमुनाजी के मध्यभाग में वास्तव्य किया जाता है, जिसे ‘कल्पवास’ कहते हैं। मकरसंक्रान्ति से लेकर कुम्भसंक्रान्ति तक कल्पवास करने की परिपाटी है।

इस क्षेत्र में जिस तरह कुछ स्थानों का दर्शन करना आवश्यक माना जाता है, उसी तरह इस क्षेत्र की परिक्रमा का भी अपना एक महत्त्व है, जिसे ‘क्षेत्रपरिक्रमा’ कहते हैं। यह क्षेत्रपरिक्रमा अन्तर्वेदी और बहिर्वेदी इस तरह से दो प्रकार की होती है। इनमें से पहली परिक्रमा को दो दिनों में और दूसरी परिक्रमा को दस दिनों में पूरा करना पड़ता है। इस परिक्रमा में कईं देवस्थान तथा पवित्र एवं प्रसिद्ध क्षेत्रों का अन्तर्भाव होता है।

ऐसे इस पवित्र स्थान पर अंग्रे़जों के शासनकाल में युनिव्हर्सिटी की स्थापना की गयी और मानों ज्ञानयज्ञ का ही आरम्भ किया गया। ‘अलाहाबाद युनिव्हर्सिटी’ की स्थापना २३  सितम्बर १८८७ को की गयी। उस समय अलाहाबाद और आसपास के इलाक़ों में शिक्षा के बीज बोने का महत्त्वपूर्ण कार्य इस युनिव्हर्सिटी ने किया। इस युनिव्हर्सिटी ने अब तक के इतिहास में अपनी उज्ज्वल शिक्षा की गौरवशाली परम्परा को कायम रखा है। स्थापना के बाद धीरे धीरे यह युनिव्हर्सिटी विकसित होने लगी। इस विकासक्रम के कुछ प्रमुख पड़ाव इस तरह हैं – इसवी १९०४   में इस युनिव्हर्सिटी ने स्वयं के शिक्षा विभाग तथा डाक्टरेट हासिल करने के लिए जरूरी रहनेवाले संशोधन प्रकल्पों की शुरुआत की। इसवी १९२१ में यहाँ के छात्रों के लिए होस्टल में रहकर शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा उपलब्ध करायी गयी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय पार्लियामेंट ने इस युनिव्हर्सिटी को ‘युनिव्हर्सिटी ऑफ  नॅशनल इम्पॉर्टन्स’ (राष्ट्रीय महत्त्व का विश्‍वविद्यालय) यह सम्मान बहाल किया।

प्रयाग के जिस संगम का हम कईं बार जिक्र कर चुके हैं, वह वास्तव में कैसा है? मटमैले रंग के जल की गंगाजी की धारा और नीले रंग के जल की यमुनाजी की धारा यहाँ आपस में मिल जाती हैं और अपनी पुरानी पहचान को त्यागकर ‘संगम’ इस नाम को धारण कर लेती हैं।

भारतीय संस्कृति ने हमेशा ही एक सुदृढ़ समाज के निर्माण के लिए मनुष्यों के आपसी मनोमीलन को महत्त्वपूर्ण माना है। इसीलिए इस संगम पर इकठ्ठा होनेवाले लोगों के मन भी इसी तरह से सांघिक भावना के साथ आपस में मिल जायें, शायद ऐसा ही कुछ उद्देश्य इस संगमस्थल पर होनेवाली यात्राओं का भी हो सकता है।

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