५३. ‘नेक्स्ट इयर इन जेरुसलेम’

‘नेक्स्ट इयर इन जेरुसलेम….’

हर साल ‘पासओव्हर’ और ‘योमकिप्पूर’ इन ज्यूधर्मीय त्यौहारों में की जानेवालीं प्रार्थनाओं के अन्त में, सालों साल….सदियों से, दुनिया के किसी भी कोने में होनेवाला (‘ज्यू डायस्पोरा’ में स्थित) हर एक ज्यूधर्मीय उपरोक्त शब्द कहता आया है….और ये शब्द बिलकुल भक्तिभाव के साथ और विश्‍वासपूर्वक कहते हुए वह थोड़ासा भी ऊबा नहीं है और ‘हम अगले साल का पासओव्हर और योमकिप्पूर जेरुसलेम में मनायेंगे’ यह उसकी दुर्दम्य आशा भी कभी कम नहीं हुई।

(आज इस्रायल यह स्वतंत्र राष्ट्र बन जाने के बाद दुनियाभर के ज्यूधर्मियों पर जेरुसलेम जाने के लिए कोई भी पाबन्दी नहीं है। लेकिन उनके भावविश्‍व में सर्वोच्च महत्त्व होनेवाले (तीसरे) होली टेंपल का निर्माण अभी तक नहीं हुआ है। इस कारण, इस्रायल में बसेरा किये हुए ज्यूधर्मियों में से कई लोग इन प्रार्थनाओं का समारोप करते हुए – ‘नेक्स्ट इयर इन जेरुसलेम….द री-बिल्ट’ इस प्रकार करते हैं, जिसमें ‘अगले साल, होली टेंपल का पुनर्निर्माण किये गये जेरुसलेम में’ यह भाव होता है।)

लेकिन यह हुई आगे की बात। इसवीसन अठारहवी सदी तक तो ज्यूधर्मीय जेरुसलेमप्रवेश के सन्दर्भ में अन्धेरे में ही तीर मार रहे थे।

ईश्‍वर ने आद्यपूर्वज अब्राहम को बहाल किये हुए कॅनॉन प्रांत पर, ४०० सालों की इजिप्त की ग़ुलामी ख़त्म कर, आख़िरकार ज्यूधर्मियों ने महत्प्रयासों से कब्ज़ा कर लिया, कुछ समय बाद ज्यू राज्य को वैभव की बुलंदी तक भी पहुँचाया। होली टेंपल का निर्माण भी किया। लेकिन उसके बाद के दो हज़ार सालों में जेरुसलेम पर पहले असिरियन, फिर बॅबिलोनियन, पर्शियन, ग्रीक, रोमन, अरबी, मुस्लीम, तुर्की, क्रुसेडर्स, मामलुक, ऑटोमन्स ऐसे कई आक्रमकों ने आक्रमण किये।

इन आक्रमणों के दौरान दो बार होली टेंपल ध्वस्त तो हो ही गया; साथ ही, इस हर एक आक्रमण के समय अधिक से अधिक ज्यूधर्मियों को उनके हक़ की भूमि से – ‘प्रॉमिस्ड लँड’ से निष्कासित होना पड़ा। इस तरह जेरुसलेम में से निष्कासित होना पड़े हुए ज्यूधर्मीय फिर मध्यपूर्व, एशिया, युरोप, अफ्रिका, रशिया ऐसे दुनिया के दूरदराज़ के विभिन्न प्रान्तों में जाकर स्थायिक हुए। इसी घटनाक्रम को आगे चलकर ‘ज्यू डायस्पोरा’ कहकर बुलाने लगे।

ज्युईश डायस्पोरा

दुनिया के कोने में कहीं भी गये, तो भी ज्यूधर्मीय उस उस प्रदेश के स्थानीय लोगों से, उनके रीति-रीवाज़ों से दोस्ती करते हुए, कुछ समय बात अपनी मेहनती वृत्ति के कारण आर्थिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, राजनीतिक दृष्टि से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ गये। लेकिन उनकी सफलता के कारण उनसे जलने लगे अन्यधर्मियों के उनके विरोध में किये गये क़ारनामें धीरे धीरे सफल होने लगे। दरअसल अधिकांश स्थानों पर ज्यूधर्मीय बतौर ‘व्यापारी समाज’ (‘ट्रेडिंग कम्युनिटी’) ही जाने जाते थे। कई महत्त्वपूर्ण स्थानों की आर्थिक बाग़डोरें अनौपचारिक रूप में वहाँ के ज्यूधर्मियों के हाथ में ही होती थीं। साथ ही, उनसे भारी मात्रा में कर (टॅक्सेस) भी प्राप्त होते होने के कारण राज्यों का राजस्व भरने में उनका अहम हिस्सा रहता था। इस कारण कई स्थानों के राजा शुरू शुरू में ज्यूधर्मियों के साथ ग़ौण सुलूक़ न करते हुए उनसे सम्मान के साथ पेश आते थे। लेकिन इन अन्यधर्मियों द्वारा राजा को मनगढ़न्त बातें बताकर राजा का मन कलुषित किया जाने के कारण और विभिन्न स्थानीय गुटों द्वारा राजाओं पर दबाव डाला जाने के कारण कई प्रदेशों के राजाओं ने ज्यूधर्मियों के साथ अपमानजनक सुलूक़ करना शुरू किया।इसवीसन के दूसरे सहस्राब्द (मिलेनियम) में अब विविध प्रदेशों से, साम्राज्यों से ज्यूधर्मियों का देशनिकाला करनेवाले अध्यादेश वहाँ के राजाओं द्वारा जारी किये जाने लगे।

इनमें – ‘एडिक्ट ऑफ एक्स्पल्शन’ यह इसवीसन १२९० में इंग्लंड के तत्कालीन राजा ‘एडवर्ड-पहला’ ने जारी किया हुआ अध्यादेश; फ्रेंच सम्राट ने इसवीसन १३०६ में जारी किया हुआ अध्यादेश; इसवीसन १४९२ में स्पेन के राजा ने जारी किया हुआ ‘आल्हाम्ब्रा डिक्री’ के नाम से जाना गया अध्यादेश; इसवीसन १४९७ में पोर्तुगाल के राजा ने जारी किया हुआ – पहले ज्यूधर्मियों का पोर्तुगाल में से देशनिकाला करने का अध्यादेश (बाद में इसी का रूपान्तरण, ज्यूधर्मियों को देश से बाहर न जाने देते हुए स़ख्ती से धर्मांतरण ही करने के लिए मजबूर करनेवाले अध्यादेश में हुआ) ऐसे प्रमुख अध्यादेश इतिहास में विख्यात हैं।

विभिन्न साम्राज्यों में से, धर्मांतरण न करनेवाले ज्यूधर्मियों का देशनिकाला करने के अध्यादेश इसवीसन ११०० से १६०० के बीच जारी किये गये।

इन विभिन्न प्रदेशों से निकाल बाहर कर दिये गये ज्यूधर्मियों ने फिर अफ्रिका और मध्यपूर्वी प्रदेशस्थित ऑटोमन साम्राज्य का आश्रय करने की शुरुआत की। यहाँ तीनचारसौ वर्ष हालाँकि ज्यूधर्मियों के लिए शांतिमय साबित हुए और हालाँकि आर्थिक-सामाजिक जीवन मेें उन्होंने अपना स्थान मज़बूत किया, लेकिन यहाँ पर भी उनके साथ ‘ग़ौण दर्ज़े के नागरिक’ के रूप में सुलूक़ किया जाता था।

गत हज़ारों वर्षों से ज्यूधर्मियों के साथ जगह जगह पर किये जा रहे ग़ौण दर्ज़े के सुलूक़ के कारण वे हालाँकि संतप्त हो रहे थे, लेकिन इसपर ठोस उपाय क्या है, इसके बारे में अभी भी उनमें गंभीरता से विचार शुरू नहीं हुआ था। ‘प्रॉमिस्ड लँड में अपना हक़ का राज्य’ यह बात अभी भी ज्यूधर्मियों के लिए बहुत ही दूर की प्रतीत हो रही थी।

लेकिन इसवीसन १९वीं सदी में जागतिक परिस्थिति में काफ़ी बदलाव आया था। अब बाक़ी प्रायः सभी साम्राज्य अवनति के रास्ते पर होकर, पहले के साम्राज्यों में से केवल ब्रिटीश साम्राज्य और ऑटोमन साम्राज्य ये दो ही प्रमुख बड़े साम्राज्य युरोप, अफ्रिका और एशिया में बचे थे; वहीं, मध्य युरोप में जर्मन और ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्यों का उदय हो चुका था। पहले के प्रायः सभी ताकतवर साम्राज्य अब केवल कुछ छोटे-बड़े उपनिवेशों तक मर्यादित रहे थे। लेकिन ऑटोमन साम्राज्य भी अब अवनति की कगार पर था।

दुनियाभर में उपनिवेश होनेवाला ब्रिटीश साम्राज्य

कई देशों में, राजेशाही को नकारकर जनतन्त्र लाने के आन्दोलन शुरू हुए थे और वहाँ पर नवस्वतंत्रता की, समता की नयीं हवाएँ बहने लगी थीं।

इस बदलते युग में, ज्यूधर्मीय और उनकी समस्या के साथ हमदर्दी होनेवाले देशों की संख्या बढ़ रही होने के अनुकूल संकेत मिलने लगे थे। उन देशों में स्थायिक हुए ज्यूधर्मीय विचारक ज्यूधर्मियों के प्रश्‍न को किसी न किसी माध्यम से जी-जान से दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे थे।

लेकिन अब तक के अनुभवों से अब ऐसी विचारधारा इन विचारकों में उद्गमित होने लगी थी कि ज्यूधर्मीय अन्यत्र चाहे कितने भी सुख-चैन में क्यों न हों, उन्हें उन देशों में बतौर ‘ग़ौण नागरिक’ ही जीना पड़ेगा। ‘प्रथम दर्ज़े के नागरिक’ वे बन सकेंगे, वह केवल और केवल उन्हें ईश्‍वर ने प्रदान की हुई उनकी हक़ की भूमि में – ‘प्रॉमिस्ड लँड’ में – इस्रायल में!

इसी में से जन्म हुआ ‘झायॉनिझम’ आन्दोलन का!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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