नेताजी- १८०

२९ मई, १९४२। सुभाषबाबू की हिटलर के साथ होनेवाली उस ऐतिहासिक मुलाक़ात की घड़ी क़रीब आ रही थी। शाम को ठीक ४ बजे, आदिमाता चण्डिका का स्मरण करके सुभाषबाबू ने रास्टेनबर्ग स्थित हिटलर के सेना मुख्यालय के उसके व्यक्तिगत अध्ययन कक्ष में प्रवेश किया। उनके साथ जर्मन विदेशमन्त्री रिबेनट्रॉप, अ‍ॅडम ट्रॉट आदि कुछ गिने-चुने ही लोग थे।

बिलकुल साधारण से लगनेवाले उस अध्ययनकक्ष में बस एक बड़ा टेबल, चार-पाँच कुर्सियाँ, क़िताबों की अलमारी ऐसी कुछ गिनीचुनी वस्तुएँ ही थीं। दीवार पर दो मॅप्स टाँग दिये गये थे। केवल क़रीबी अतिउच्चपदस्थ सहकर्मियों से ही हिटलर यहाँ पर चर्चा करता था।

मीटिंग शुरू हुई। हालाँकि सुभाषबाबू टूटी-फ़ूटी जर्मन भाषा में बात कर सकते थे, लेकिन उसपर निर्भर न रहते हुए उन्होंने अँग्रेज़ी में बात करना शुरू कर दिया। ट्रॉट ने उन दोनों के बीच में दुभाषिये की भूमिका निभायी। प्रारम्भिक अभिवादन के बाद हिटलर ने सुभाषबाबू से उनके काम की प्रगति के बारे में पूछा और यह आशा जतायी कि उनकी अपेक्षा के अनुसार उन्हें जर्मनी से सहयोग मिल रहा होगा। दोनों भी एक-दूसरे का अनुमान करते हुए, एक-दूसरे की प्रशंसा करते हुए बातचीत कर रहे थे। दिखावे के तौर पर ही सही, लेकिन हिटलर सुभाषबाबू को ‘महोदय’ (‘युवर एक्सलन्सी’) कहकर उनके साथ इ़ज़्ज़त से पेश आ रहा था। सुभाषबाबू भी उसी अँदाज़ में उसके साथ बात कर रहे थे। बातचीत की शुरुआत में ही ‘ओल्ड रिव्होल्युशनरी’ सम्बोधित करके सुभाषबाबू ने हिटलर की तारी़फ़ की।

उसके बाद सुभाषबाबू ने, भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम को जर्मनी-इटली-जापान का समर्थन घोषित करने का मुद्दा उपस्थित कर दिया। तब हिटलर ने जागतिक हालात इस विषय पर एक लम्बाचौड़ा भाषण किया। हाथ में एक लंबी छड़ी लेकर दीवार पर टँगे नक़ाशे के विभिन्न स्थानों में निर्देश करते हुए उसने विभिन्न जगहों के मौजूदा हालात बयान किये। चन्द कुछ हज़ार सशस्त्र सैनिक लाखों-करोड़ों निहत्थे लोगों पर हुकूमत कर सकते हैं, यह अपना पसन्दीदा तत्त्वज्ञान उसने इस बार सुनाया। भारत के मौजूदा हालात को देखते हुए, भारत यदि केवल अपने बलबूते पर यह करना चाहे, तो उसे इसमें कम से कम डेढ़-सौ वर्ष की अवधि लग सकती है, यह भविष्यवाणी भी उसने की। इसीलिए भारत को किसी विदेशी सत्ता से सहायता लेने की आवश्यकता है, यह भी दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित किया।

हालाँकि जर्मनी यह सहायता कर सकता है, लेकिन युद्ध में जर्मनी के मौजूदा हालात को देखते हुए जर्मनी को भारत तक पहुँचने के लिए कम से कम दो साल का वक़्त लग सकता है। उससे पहले इस तरह की घोषणा करना, यह महज़ ख़ोख़लापन एवं अपरिपक्वता का लक्षण साबित होगा, क्योंकि ‘किसी भी देश की ताकत उसकी तलवार की नोंक जहाँ तक पहुँचती है, वहाँ तक ही होती है’, यह उसने सुभाषबाबू से कहा। एक बार रशिया को परास्त करने के बाद फ़िर रशिया की ज़मीन का इस्तेमाल करके हम भारत तक बेझिझक पहुँच सकते हैं। अन्य मार्गों का इस्तेमाल करने में कई ब्रिटन-नियंत्रित देश राह में बाधा डाल सकते हैं, इस वास्तविकता पर भी उसने सुभाषबाबू को ग़ौर करने के लिए कहा।

इस मुलाक़ात से पहले, सुभाषबाबू के मन में का़फ़ी समय से एक मुद्दा बार बार दस्तक दे रहा था – हिटलर के ‘माईन काम्फ़’ इस आत्मचरित्र में भारतीयों के प्रति उसके द्वारा लिखे गये अनुद्गार-

‘अँग्रेज़ी हु़कूमत के ख़िला़फ़ जो जंग भारतीय लड़ रहे हैं, उससे कुछ ख़ास हासिल नहीं होगा, ऐसा मेरा मानना है। राजकीय एवं फ़ौजी दृष्टि से दुर्बल रहनेवाले राष्ट्र कभी भी, फ़ौजी दृष्टि से ताकतवर रहनेवाले राष्ट्रों का सामना नहीं कर सकते। जब कोई ब्रिटन से भी अधिक ताकतवर रहनेवाली विदेशी ताकत ब्रिटन को युद्ध में मात दे देगी, तब ही जाकर भारत को स्वतन्त्रता मिलने की आशा है, वरना नहीं। लेकिन भारत पर सोव्हिएत रशिया या जापान की हु़कूमत रहने की अपेक्षा अँग्रेज़ वहाँ पर राज करें, यही मुझे ठीक लगता है।’

अब इस मुद्दे को छेड़ना चाहिए या नहीं, यह द्वन्द्व सुभाषबाबू के मन में चल रहा था। ज़ाहिर है कि यह मुद्दा हिटलर को अप्रिय ही रहेगा और शायद इससे इस मुलाक़ात के मक़सद की पूर्ति होने पर भी पानी ङ्गेर सकता था। साथ ही, हिटलर यदि अत्यधिक क्रोधित हो जाता, तो वहाँ पर कुछ भी हो सकता था और अब तक के सारे प्रयास मिट्टी में मिल जाने की सम्भावना थी। लेकिन इस मुद्दे को स्पर्श न करना यह भी भारतीयों में कुछ दम नहीं है, इस हिटलर की राय को पुष्टि देने जैसा ही होता था। इसलिए सुभाषबाबू का मन उन्हें खाये जा रहा था। आख़िर उनसे नहीं रहा गया और उस विषय को स्पर्श करने का फ़ैसला सुभाषबाबू ने कर लिया।

हिटलर की उस बात पर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए अगली आवृत्ति में इस बात का अन्तर्भाव न करने की गुज़ारिश उन्होंने हिटलर से की। स्वाभाविक है कि जर्मनी में स्वयं की बात को ‘पत्थर की लक़ीर’ माननेवाले हिटलर को यह बात मंज़ूर नहीं थी। जिस ग्रन्थ के जर्मनी में पारायण किये जाते हैं, उस ग्रन्थ के सन्दर्भ में, जर्मनी में पनाह ले चुके इस भारतीय नेता द्वारा किया गया यह भाष्य हिटलर को रास नहीं आया। मग़र तब भी अपनी नाराज़गी ज़ाहिर न करते हुए – ‘महज़ लगभग एक लाख संख्या वाली अँग्रेज़ी सेना अड़तीस करोड़ की आबादी वाले आपके विशाल देश को कब्ज़े में रख सकती है, इसकी वजह आपके नागरिकों में रहनेवाली ग़ुलामी मानसिकता यही है। आपके देशवासियों की तरह ग़ुलामी मानसिकता मेरे देश के नागरिकों में पैदा न हों, इसीलिए मैंने वह उदाहरण दिया है’ यह कहकर उसने उस बात को टाल दिया।

मिलने के लिए हालाँकि हिटलर ने आधे घण्टे का ही समय दिया था, लेकिन बातों बातों में घण्टे भर का वक़्त बीत चुका था। अब सम्भाषण की दिशा महायुद्ध के, तब तक अच्छी तरह धधक रहे पूर्वी मोरचे की ओर मुड़ गयी। इस मोरचे पर हो रहे घमासान के बावजूद भी जर्मनी द्वारा प्रत्यक्ष कृति करने में किये जा रहे विलंब को देखकर सुभाषबाबू का मन जापान की ओर आगे बढ़ रहा था। लेकिन जर्मनी द्वारा इतनी सहायता देने के बाद क्या हिटलर इस बात को मान जायेगा, यह आशंका सुभाषबाबू के मन में थी। इस पहेली को तो बस मानो भगवान ने ही सुलझाया। भारत तक पहुँचने के लिए जर्मनी को कम से कम दो साल तक का समय लग सकता है, यह कहकर हिटलर ने ही – ‘इसके बजाय अब चूँकि जापान युद्ध में उतर ही चुका है, तब आप भारत से क़रीब रहनेवाले जापान में रहकर अगली कोशिशें क्यों नहीं करते?’ यह उलटा उन्हीं से पूछा।

अन्य सभी मुद्दों के मामले में जहाँ निराशा ही हाथ लग रही थी, वहाँ इस मुला़क़ात में पहली बार ही सुभाषबाबू जैसा चाहते थे, वैसा हो रहा था।

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