नेताजी- १७८

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए मुसोलिनी का अधिकृत समर्थन प्राप्त करने के कारण, अब जर्मनी से जापान जाकर अगली जंग जारी रखी जाये, यह विचार सुभाषबाबू के मन में ज़ोर पकड़ रहा था। स्वतन्त्रतासंग्राम को निर्णायक पड़ाव तक ले जाने की दृष्टि से, फ़िलहाल जापान में चल रहीं सक्रिय गतिविधियों को मद्देनज़र रखते हुए उनके मन में उठनेवाले इस विचार को, मुसोलिनी ने ही उनकी मुलाक़ात में मूर्तस्वरूप दे दिया था। उनके मन में यह विचार आने का कारण महज़ जर्मनी का ठण्डा प्रतिसाद यह नहीं था, बल्कि उसके पीछे व्यवहार्य विचार भी था। ‘हम इस फ़ौज को रशिया के ज़रिये भारत भेजेंगे’ यह विश्‍वास हालाँकि रिबेनट्रॉप ने सुभाषबाबू को दिलाया था, लेकिन उसके लिए इस रशियामुहिम में जर्मनी का निर्णायक रूप में विजयी होना आवश्यक था। जर्मनी से अन्य किसी भूमार्ग द्वारा फ़ौज को भारत ले जाना का़फ़ी मशक्कतभरा साबित होता, क्योंकि भौगोलिक दृष्टि से भारत के लिए जर्मनी जापान की तुलना में बहुत ही ज़्यादा दूरी पर था। अत एव, लॉजिकली जापान के लिए प्रयाण करना, यह एक ही मार्ग सुभाषबाबू को व्यवहार्य प्रतीत हो रहा था और इसीलिए बर्लिन पहुँचते ही हिटलर से जल्द से जल्द मुलाक़ात के लिए समय प्राप्त करने में अपनी सारी कोशिशें जुटाने का उन्होंने तय किया था।

इसी दौरान भारत में भी कई घटनाएँ घटित हो रही थीं। ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ पर से अपनी पहचान ज़ाहिर कर देने के बाद ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ से प्रसारित होनेवाले सुभाषबाबू के भाषण अब और भी ज़्यादा तेज़ होने लगे थे और परिणास्वरूप भारत में ‘आज़ाद हिन्द रेडिओ’ की श्रोता-संख्या में का़फ़ी बढ़ोतरी हो रही थी। ‘क्रिप्स मिशन’ यह महज़ ब्रिटीश सरकार द्वारा, भारत से युद्धसहायता खंडित न हों इस हेतु से, भारत की आँखों में झोंकी गयी धूल ही है; अत एव इस योजना को नकार दो, ऐसी भावना उनके भाषणों से व्यक्त हो रही थी। ‘एक ज़माना था, जब अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष को भी ब्रिटन के प्रधानमन्त्री की राय जानने के लिए लंदन आना पड़ता था और ‘लंदन तो सारी दुनिया की राजधानी है’ ऐसे अहंमन्य उद्गार सुनने मिलते थे; वहीं, आज ब्रिटीश प्रधानमन्त्री चर्चिल को अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष रूझवेल्ट के सामने नाक रगड़नी पड़ रही है और यह इसी बात का संकेत है कि ब्रिटीश साम्राज्य के दिन अब भर चुके हैं और इसीलिए भारत की आज़ादी अब दूर नहीं’, यह अपने भाषणों में से वे दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करते थे।

उनके इस अथक प्रचारकार्य के अपेक्षित परिणाम भारत में दिखायी देने लगे थे और ‘ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े देशों को महायुद्ध के ख़त्म होने पर आज़ादी प्रदान करने के विषय में तैयार किया गया ‘अटलांटिक चार्टर’ भारत के लिए लागू नहीं है, ऐसी साम्राज्यवादी भूमिका चर्चिल यदि खुलेआम ले रहा है, तो भारत क्यों उन्हे युद्धसहायता करें’ यह सवाल विभिन्न व्यासपीठों पर से लोग करने लगे थे।

इतना ही नहीं, बल्कि जब जापानी आक्रमण के ख़ौंफ़ से चिनी नेता चेंग-कै-शेक, भारत की ओर से ब्रिटन को मिल रही युद्धसहायता क़ायम रखने की विनती भारतीय नेताओं से करने के लिए, अँग्रेज़ सरकार की ‘प्रेरणा से’ भारत आये; तब – ‘ब्रिटन ने यदि, महायुद्ध के ख़त्म होते ही भारत को आज़ादी दिलाने की दृष्टि से कुछ ठोंस समयबद्ध कार्यक्रम तुरन्त ही घोषित नहीं किया, तो उन्हें भारत से युद्धसहायता मिलना मुश्किल है’ ऐसी भूमिका स्वयं गांधीजी ने ली थी।

साथ ही, जब क्रिप्स आकर गाँधीजी से मिला और ‘ब्रिटन की इस मुश्किल की घड़ी में ब्रिटन की सहायता न करना, यह बात तानाशाह हिटलर की तथा फ़ॅसिस्ट प्रवृत्तियों की सहायता करने के बराबर है’ ऐसा ताना जब उसने गाँधीजी को मारा; तब – हिटलर का नाझी भस्मासुर इतना प्रबल होने का कारण स्वयं ब्रिटीश सरकार ही है, क्योंकि युद्ध के शुरू होने से पहले, उन्होंने ही हिटलर के साथ मित्रता-क़रारनामा किया था और जब तक बात उनके फ़ायदे की थी, तब तक हिटलर की युद्धख़ोरी को भी उन्होंने नज़रअन्दाज़ कर दिया था, इस बात का गाँधीजी ने क्रिप्स को ‘स्मरण’ दिला दिया।

 ‘भारत यदि स्वतन्त्रता चाहता ही है, तो उसे केवल उपनिवेशी स्वराज्य पर काम चलाना होगा और वह भी महायुद्ध के ख़त्म होने के बाद ही’ इस चर्चिल के दर्पोक्तिपूर्ण आश्‍वासन को गाँधीजी ने – ‘जिसका दिवाला निकल चुका है, ऐसी बँक पर दिया गया अगली तारीख़ का (पोस्ट-डेटेड) चेक़’ बताया था। अन्त में, ‘अटलांटिक चार्टर भारत को लागू नहीं होगा’ यह कहनेवाला चर्चिल और हिटलर इनमें भारत की दृष्टि से क्या फ़र्क़ है, यह सवाल क्रिप्स से करते हुए गाँधीजी ने, पाकिस्तान का निर्माण और भारतीय रियासतदार इनके लिए ‘ख़ास अलग मुद्दों का’ समावेश रहनेवाले ‘क्रिप्स प्लॅन’ को ठुकरा दिया।

 इतना ही नहीं, बल्कि २७ अप्रैल की काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में, अँग्रेज़ों को भारत छोड़कर जाने की अंतिम चेतावनी देनेवाला प्रस्ताव भी गाँधीजी ने प्रस्तुत किया था। लेकिन संघर्ष से दूर भागनेवाले काँग्रेस के कुछ नेता, ‘क्रिप्स योजना’ का स्वीकार करना चाहिए इस राय के थे। गाँधीजी की इस अन्तिम चेतावनी की भाषा का कारण ‘तानाशाह की पनाह में जा चुका सुभाष ही है और उसीने उनपर कुछ तो जादू चलाया है’ ऐसी राय वे एकान्त में ज़ाहिर करते। जो भी हो, सुभाषबाबू की कोशिशों का असर होता हुआ दिखायी दे रहा था।

 इसी पार्श्‍वभूमि पर अपनी इटाली मुहिम सफ़ल करके सुभाषबाबू रोम से बर्लिन लौट रहे थे।

बर्लिन पहुँचने पर एक और ख़ास आनन्ददायी ख़बर उनका इन्तज़ार कर रही थी।

हिटलर ने आख़िर उनसे मिलने के लिए ‘हाँ’ कर दी थी।

यह ख़बर सुनते ही वे खुशी से झूम उठे। भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम की उनकी संकल्पना और योजना पक्की बुनियाद पर आधारित थीं और अपनी योजना हिटलर को सुनाने के लिए वे पहले दिन से ही कोशिश में लगे थे। लेकिन हिटलर के इर्दगिर्द इकट्ठा हुए भाटों की दीवार को लाँघकर हिटलर से मिलना यह कोई आसान काम नहीं था। क्योंकि उन भाटों में से सभी लोग सुभाषबाबू के हितैषी नहीं थे। इसलिए हालाँकि हिटलर सुभाषबाबू की महानता को भली-भाँति जानता था, लेकिन उस समय लगभग आधे युरोप के स्वामी रहनेवाले हिटलर के सामने विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों को दूम हिलाते हुए देखने के आदी रहनेवाले उन भाटों को; एक ‘आश्रित’ प्रतीत होनेवाले सुभाषबाबू को हिटलर से मिल रही इज़्ज़त रास नहीं आ रही थी। इसलिए कई बार मुलाक़ात का समय तय होते होते ही बीच में कुछ विघ्न उत्पन्न हो जाता था। ऐसा दो-तीन बार होने पर ट्रॉट आदि लोगों के प्रयासों के कारण; साथ ही मुसोलिनी के हिटलर को ङ्गोन कर देने के कारण, २९ मई १९४२ को हिटलर के साथ सुभाषबाबू की मुलाक़ात का समय तय किया गया था।

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