नेताजी-१६२

२८ मई १९४१ को सुभाषबाबू पॅरिस गये। पॅरिस में ए.सी.एन. नंबियार जैसे हरफनमौला एवं युरोपीय राजनीति की नस नस से वाक़िब रहनेवाले व्यक्ति को अपने कार्य में जोड़कर सुभाषबाबू १४ जून १९४१ को रोम पहुँच गये।

लेकिन आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में खाने के दाँत अलग और दिखाने के दाँत अलग रहते हैं, इस बात का अनुभव सुभाषबाबू को कदम कदम पर मिल रहा था। दरअसल वे रोम में आये थे, युद्ध के विभिन्न मोरचों पर अक्षराष्ट्रों की साझा सेना द्वारा पकड़े गये भारतीय युद्धबन्दियों के साथ बातचीत करने के लिए इटली से स्थायी रूप में इजाज़त प्राप्त करने के लिए और यदि मुमक़िन हो सका, तो इटली के सर्वसत्ताधीश मुसोलिनी के साथ चर्चा करने के लिए। हालाँकि जर्मनी ने उन्हें अच्छे दरज़े के होटल में रहना-खाना, उनकी ख़ातिरदारी करने के लिए स्टाफ आदि बातें उपलब्ध करायी थीं, मग़र फिर भी अपेक्षित तेज़ी से बात आगे बढ़ नहीं रही थी। गत युरोप दौरे में उनकी योजना के प्रति का़फी दिलचस्पी दिखानेवाला मुसोलिनी इस मामले में कुछ न कुछ मदद अवश्य कर सकता है, इस आशा के साथ सुभाषबाबू रोम आये थे।

यहाँ पर भी उनका शाही स्वागत किया गया और उनके ठहरने की व्यवस्था रोम के सबसे बेहतरीन होटल ‘एक्सलसियर’ में की गयी थी, खाने-पीने की व्यवस्था में कोई क़सर छोड़ी नहीं गयी थी, उनकी सेवा में नौकर-चाकर हाज़िर थे, किसी स्वतन्त्र राष्ट्र के राजदूत का दर्जा उन्हें यहाँ पर भी दिया गया था। लेकिन सुभाषबाबू इन बातों में फँसनेवाले नहीं थे। एक के बाद एक करके फिज़ूल जा रहे दिन देखकर उनका दिल तड़प रहा था।

आख़िर एक दिन चीढ़कर उन्होंने आर-पार के शब्दों में मुसोलिनी की कचहरी में सन्देश भेजने के बाद, वहाँ के अ़ङ्गसरों से – ‘ड्युस (मुसोलिनी) फिलहाल युद्धकार्य के भारी तनाव में रहने के कारण मिल नहीं सकते, इसलिए तब तक आप विदेशमन्त्री काऊंट सियानो (मुसोलिनी के दामाद) से मिल लीजिए’ यह सन्देश भेजा गया। हालाँकि सुभाषबाबू इस बात से का़फी नाराज़ थे, लेकिन कार्यहानि को टालने की दृष्टि से उन्होंने उसे मान लिया।

पहली बात तो यह थी कि ठाठमाठ के रहनसहन का आदी रहनेवाला, भोगविलासी प्रवृत्ति का रंगेल सियानो उन्हें स़ख्त नापसन्द था। सुभाषबाबू को जिन बातों से बड़ी चीढ़ थी, ऐसी कई बातें करने के बारे में वह मशहूर था। मग़र तब भी वे सियानो से मिले। सियानो महज़ मुसोलिनी का दामाद होने के कारण विदेश मन्त्री जैसे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पद पर विराजमान है, यह पहली ही मुलाक़ात में सुभाषबाबू की समझ में आ गया। वरना उसे आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का कोई ख़ास ज्ञान नहीं था। सुभाषबाबू द्वारा पूछे गये युद्धविषयक मामूली से प्रश्‍नों के उसने इतने अजीबोंग़रीब एवं छीछले जवाब दिये थे कि सुभाषबाबू तो चकरा ही गये। वहाँ पर अधिक समय न गँवाते हुए वे होटल में लौट गये।
पिछली द़फा भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के प्रति बहुत ही दिलचस्पी दिखानेवाले मुसोलिनी का प्रतिसाद इस बार भला इतना ठण्ड़ा क्यों है, यह गुत्थी उनसे नहीं सुलझ रही थी। आगे चलकर बर्लिन लौटने के बाद उनके जर्मन दोस्तों के साथ हुई बातचीत में से इस पहेली का जवाब उन्हें मिला था। सुभाषबाबू से न मिलने का ‘आदेश’ स्वयं हिटलर के कहने पर रिबेनट्रॉप ने मुसोलिनी को दिया था। दरअसल सुभाषबाबू का यह दौरा ही न हों, इस उद्देश्य से वह कई कोशिशें कर चुका था, लेकिन वह मुमक़िन नहीं है, यह समझते ही – ‘इस भारतीय नेता के प्रति इटली ज्यादा दिलचस्पी न दिखायें और जर्मनी के साथ विचारविमर्श किये बग़ैर उससे कोई भी वादा न किया जाये’ ऐसी सुस्पष्ट सूचना रिबेनट्रॉप ने इटली के विदेशमन्त्री को – काऊंट सियानो को फोन पर से दी थी।

सुभाषबाबू केवल एक निर्वासित की तरह, महज़ एक व्यक्ति के रूप में हालाँकि जर्मनी आये थे, मग़र तब भी ‘जो हुकूमत सूर्य का अस्त नहीं देखती’ ऐसी अँग्रेज़ी हुकूमत जब सुभाषबाबू को भारत का अपना एक नंबर का दुश्मन मानती है, तब इससे यह सा़फ ज़ाहिर था कि उनकी क्षमता, उनका प्रभाव, उनकी ताकत यक़ीनन ही उतने दर्जे का है और इस बात को हिटलर भी यक़ीनन ही जानता था। साथ ही उसकी गुप्तचर यन्त्रणा के ज़रिये, सुभाषबाबू के प्रति भारतवासियों के मन में कितने सम्मान की भावना है और गत युरोप दौरे में वे कई युरोपीय राष्ट्रप्रमुखों से कितना ‘गुडविल’ प्राप्त कर चुके हैं, यह भी उसे ज्ञात हो चुका था। महायुद्ध केवल शस्त्र-अस्त्रों के साथ लड़े और जीते नहीं जाते, बल्कि उनमें प्रसार और प्रचार का भी अहम हिस्सा होता है। इसीलिए हिटलर ने प्रसार-प्रचार की ज़िम्मेदारी गोबेल्स जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति को सौंपकर प्रसार-प्रचार को ज़ोरों से आगे बढ़ा दिया था। इस प्रसार-प्रचार युद्ध में ब्रिटन की नाक में दम करने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहनेवाला सुभाषबाबू जैसा मोहरा अपने हाथ से निकलकर कहीं इटली के हाथ न लग जाये, इसी वजह से हिटलर यह चाल चल रहा था।

यहीं पर यह बात हमारी समझ में आती है कि विभिन्न राष्ट्रप्रमुखों को अपनी ऊँगली पर नचाने का आदी रहनेवाला हिटलर, उसके इशारों पर नाचने के लिए ना कहनेवाले सुभाषबाबू को भला इतनी इ़ज़्ज़त, इतनी सुखसुविधाएँ प्रदान करके, आर्थिक सहायता भी क्यों कर रहा था! हिटलर को ना तो भारत के प्रति कोई दिलचस्पी थी और ना ही भारत की समस्याओं से कोई लेनादेना था। लेकिन अँग्रेज़ी हुकूमत के ख़िला़ङ्ग भारत में रहनेवाले असन्तोष का डंका सुभाषबाबू के ज़रिये पीटना, यह शत्रुराष्ट्र ब्रिटन के लिए निश्चित ही सिरदर्द का मुद्दा बन सकता था। मग़र हिटलर इस बात को, ब्रिटन के साथ खुलेआम पंगा न लेते हुए, परस्पर सुभाषबाबू के माध्यम से करना चाहता था और इसीलिए वह ‘भारतीय स्वतन्त्रता को अक्षराष्ट्रों का समर्थन है’ यह घोषित करने की सुभाषबाबू की माँग को जानबूझकर अनदेखा कर रहा था और इसी वजह से ‘सुभाषबाबू के प्रति अतिउत्साह न दिखायें और जर्मनी से सलाह-मशवरा किये बग़ैर स्वतन्त्र रूप से कोई फैसला न करें’ इस तरह से हिटलर ने मुसोलिनी के कान ऐठे थे।

….और इसी वजह से, सुभाषबाबू से मिलने की मुसोलिनी की व्यक्तिगत इच्छा होने के बावजूद भी, जर्मनी की बात टालने की हिम्मत उसमें न रहने के कारण वह सुभाषबाबू से मिलने से टालमटोल कर रहा था। यह सबकुछ जानने के बाद सुभाषबाबू ग़ुस्से से आगबबूले हो गये। लेकिन कोई भी राजनीति, ङ्गिर चाहे वह आन्तर्राष्ट्रीय भी क्यों न हो, वह ताकतवरों की ही मोहताज रहती है, इस नियम से वाक़िब रहने के कारण, बाक़ी ‘कारजहानि’ न होने के उद्देश्य से उन्हें उस ग़ुस्से को थूक देना पड़ा।

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