नेताजी-१५८

गुज़र रहे व़क़्त के साथ साथ सुभाषबाबू की बेचैनी बढ़ने लगी थी। हालाँकि योजना के अनुसार काम तो हो रहा था, मग़र फ़िर भी अब तक उसमें मनचाही तेज़ी नहीं आयी थी। सुभाषबाबू बर्लिन में हमेशा कान और आँखें खुली रखकर ही घूमते-फ़िरते थे; साथ ही उन्होंने वहाँ की सरकार के विभिन्न मन्त्रालयों में और नाझी पक्ष में भी व्यक्तिगत संबंधों को विकसित करके, उनपर आधारित अपनी संपर्क यन्त्रणा का निर्माण करने का काम भी शुरू किया था। उसके ज़रिये उन्हें कई रहस्यों की जानकारी मिल रही थी।

नाझी पक्ष जितना दिखायी देता है, उतना एकसन्ध नहीं है; बल्कि वह भी गुटबाज़ी से घिरा हुआ है, यह भी सुभाषबाबू को अपनी इस सम्पर्क यन्त्रणा के ज़रिये ही ज्ञात हो चुका था। हिटलर की देशभावना के प्रति हालाँकि किसीको कोई शक़ नहीं था, मग़र फ़िर भी देश को गतवैभव का स्थान पुनः प्राप्त कर दिलानेवाला नेता एकमात्र मैं ही हूँ, यह जताकर अपने स्थान को मज़बूत बनाने के लिए हिटलर दमनतन्त्र की जिन खूँख़ार पद्धतियों का इस्तेमाल कर रहा था, उसे कई गुटों का सुप्त विरोध था। इतना ही नहीं, बल्कि नाझी पक्ष स्थित ‘के्रइसू’ नामक एक बहुत ही घातक गुट जर्मन प्रशासन में इतना बख़ूबी घुल मिल चुका है और हिटलर की अतिमहत्त्वकांक्षा के कारण विनाश की ओर जा रही जर्मनी को उससे बचाने के लिए हिटलर की ही हत्या करने की कोशिश कर रहा है, इस बात की भनक भी उन्हें अपनी संपर्क यन्त्रणा के ज़रिये ही लग चुकी थी। उनका एक नेता तो हिटलर के का़फ़ी क़रीबी नेताओं में से एक है और हिटलरविरोधी साज़िश रचने के लिए वह अमरीकी राष्ट्राध्यक्ष रूझवेल्ट से भी मिलकर आया है, इस सनसनीख़ेज़ रहस्य का पता भी उन्हें चल चुका था। लेकिन उस नेता के अतिचौकन्ने व्यवहार के कारण रूझवेल्ट को वह नाझी पक्ष की ही कोई चाल प्रतीत हुई और उसने इस योजना को समर्थन नहीं दिया।

यदि हुआ तो इसी नेता का मुझे अच्छा़ खासा उपयोग होगा, यह बात सुभाषबाबू ने अपने दिमाग़ में दृढ़ की थी। लेकिन वह नेता है कौन, इसके बारे में अबतक किसी को पता नहीं चला था। कौन कितने पानी में है, यह बात कोई भी भरोसे के साथ न कह सकने के कारण और ख़ासकर चारों ओर फ़ैले हुए जर्मन गेस्टापों (गुप्तचरों) के कारण जर्मन सरकार के सभी अ़फ़सर और कर्मचारी हमेशा ‘मुझपर यक़ीनन कोई नज़र रखे हुए है’ इसी तनाव में रहते थे। अत एव इस विषय में किसी का भी उनसे खुलकर बात करना लगभग नामुमक़िन ही था। इसलिए इस मामले में फ़िलहाल तो चुप्पी साधकर, जैसे ही मौक़ा मिलें, उसका फ़ायदा उठाया जायेगा, यह उन्होंने तय किया।

साथ ही, सभी मन्त्रालयों और विभागों की आपसी अनबनी थी और सभी एक-दूसरे को हिटलर की नज़रों से गिराने का एक भी मौक़ा हाथ से नहीं गँवाते थे, यह भी सुभाषबाबू के ध्यान में आ चुका था। विदेश मन्त्रालय विदेश मन्त्री रिबेनट्रॉप की अगुआई में था; वहीं, प्रचार का ज़िम्मा गोबेल्स के कन्धों पर था। रिबेनट्रॉप और विदेश मन्त्रालय के अन्य कई अ़फ़सर पहले विश्‍वयुद्ध में से तैयार हुए बुज़ुर्ग एवं जानकार राष्ट्रभक्त थे और हर बात को राष्ट्रहित के नज़रिये से ही देखते थे। वहीं, गोबेल्स यह हिटलर के उदय के साथ केंद्रस्थान पर आये हुए नाझी गुटप्रमुखों में से एक था। उस नयी संरचना में से केंद्रस्थान पर आये हुए अधिकतर लोग गुंडागर्दी के बल पर अपने प्रभाव को बढ़ानेवाले विभिन्न नाझी गुटों के प्रमुख थे। उन्हें देशहित की कोई परवाह नहीं थी, बल्कि हिटलर ही उनका भगवान, उनका सबकुछ था। वे इन बुज़ुर्ग लोगों से ऩफ़रत करते थे; वहीं, केवल गुंड़ागर्दी के बल पर और हिटलर के प्रति रहनेवाली निष्ठा इस एक ही निकष पर केंद्रस्थान में आये हुए इन नये लोगों की बुज़ुर्ग लोग एकान्त में चोरी-छिपे आलोचना करते थे।

जर्मन उच्चाधिकारी केपलर, ट्रॉट, वेर्थ इनके साथ होनेवालीं चर्चाओं में से नाझी जर्मनी का एवं हिटलर का एक नया ही स्वरूप सुभाषबाबू की मनश्‍चक्षुओं के सामने साकार हो रहा था। हिटलर को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में कोई दिलचस्पी नहीं थी; दरअसल युरोप के बाहर की दुनिया में ब्रिटन क्या करता है, इससे वह कोई संबंध नहीं रखना चाहता था। युरोप के बाहर आप क्या करते हैं, उसे मैं अनदेखा करूँगा; उसके बदले में मैं युरोप में क्या करता हूँ, उसे आप अनदेखा कीजिए, ऐसी स्पष्ट भूमिका ब्रिटन के सन्दर्भ में उसने समय समय पर ली थी। युरोप का सत्ताधीश होने के ख्वाब देखनेवाले हिटलर ने ब्रिटन के साथ भले ही जंग छेड़ दी हो, मग़र फ़िर भी ब्रिटन के साथ वह दीर्घकालीन संघर्ष नहीं चाहता था। इस दिशा में चर्चिल को संकेत भेजने की शुरुआत भी वह कर चुका था। ब्रिटन से सदिच्छा (‘गुडविल’) कमाने हेतु ही उसने, ङ्ग्रान्स को परास्त करते समय डंकर्क में फ़ॅंस चुकी तीन लाख असहाय ब्रिटीश सेना को युद्ध़कैदी बनाने के बजाय अथवा उसका संहार करने के बजाय उसे मातृभूमि लौट जाने दिया था। दरअसल मौत की छाया में हौसला पूरी तरह टूट चुकी वह असहाय ब्रिटीश सेना और जीत के उन्माद में उस ब्रिटीश सेना को रौंद देने के लिए आतुर बन चुकी जर्मन सेना इनके बीच केवल एक छोटी-सी नदी थी। उस नदी के एक छोर पर इस ब्रिटीश सेना का सर्वनाश करने आतुर हुए जर्मन बॅटलटँक्स तैयार खड़े थे, वे पूरे तीन दिन तक वैसे ही खड़े रहे। इन तीन दिनों में जर्मन सेनाधिकारियों ने कई बार बर्लिन के साथ संपर्क कर हमले की इजाज़त माँगी, लेकिन हिटलर ने वह नहीं दी और उस ब्रिटीश सेना को सुखपूर्वक मातृभूमि लौट जाने दिया। तीन लाख यह संख्या कोई मामूली संख्या नहीं थी। जहाँ समूचे भारत पर ढ़ाई लाख की ब्रिटीश सेना नियन्त्रण रख सकती है, वहाँ पर तान लाख यह यक़ीनन एक बड़ी संख्या थी। इन तीन लाख ब्रिटीश सैनिकों को जर्मनी द्वारा युद्ध़कैदी बनाया जाता या फ़िर उसका संहार किया जाता, तो विश्‍वयुद्ध में जर्मनी का पलड़ा वहीं पर निर्णायक रूप से भारी हो जाता। लेकिन विधि का लिखा कुछ और था। नाझी भस्मासुर जीतनेवाला नहीं था।

इसलिए हिटलर का अँदाज़ा ग़लत निकला और यह सदिच्छाकृति (‘गुडविल गेश्‍चर’) हिटलर के लिए भारी साबित हुई। आज यदि इस नाझी भस्मासुर को छोड़ दिया जाये, तो कल वह हमपर ही पलटवार करेगा, इस बात का यक़ीन रहनेवाला चर्चिल राजनीति में हिटलर से बढ़कर साबित हुआ। ब्रिटीश सेना के सुखपूर्वक इंग्लैंड़ लौट आने के बाद उसने हिटलर द्वारा बढ़ाये गये समझौते के हाथ को ठुकरा दिया। अब हिटलर के पास मजबूरन् ब्रिटन के साथ आख़िर तक लड़ने के सिवाय और कोई चारा ही नहीं था।

जर्मन सरकार स्थित अपने ‘दोस्तों’ के साथ की हुईं चर्चाओं में से ऐसी कई बातें सुभाषबाबू की समझ में आ जाती थीं।

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