नेताजी- १४१

सुभाषबाबू ठेंठ जर्मन एम्बसी के बाहर पहरा दे रहे अ़फ़गाणी पुलीस से मिलने जा रहे हैं, यह देखकर भगतराम की तो साँस ही फ़ूल गयी। लेकिन मौ़के की नज़ाकत को देखते हुए वह भी आगे जाकर उनसे बात करने लगा। उसने स्थानिक भाषा में – ‘ये मूकबधीर गृहस्थ बहुत बीमार हैं और इनका भतीजा तेहरानस्थित जर्मन एम्बसी में नौकरी करता है। बहुत दिन उसकी कोई ख़बर न मिलने के कारण चिन्ताग्रस्त होकर वे ‘क्या इस एम्बसी के ज़रिये उसकी कोई ख़बर मिल सकती है?’ यह देखने के लिए यहाँ पधारे हैं’ ऐसा उस पहरेदार से कहा।

उस अ़फ़गाण पहरेदार ने एक बार उनकी ओर घूरकर देखा और दरवाज़ा खोला।

सुभाषबाबू खुले आम उसकी आँखों के सामने गर्दन उँची करके भीतर चले गये।

भगतराम बाहर ही रुक गया। का़फ़ी समय तक सुभाषबाबू बाहर नहीं आये, इसका मतलब शायद इधर काम बन गया होगा, ऐसा सोचकर वह सराई की ओर निकला। लेकिन वहाँ जाते समय, कोई तो मुझे निरन्तर घूर रहा है, ऐसा उसे बार बार लग रहा था। इसलिए सीधे सराई में जाने के बजाय वह बाज़ार की ओर चल पड़ा और भीड़ में सम्मीलित हो गया। उसके बाद, कोई उसे न पहचानें इसलिए एक और तरक़ीब सोची। उसका कोट उसने दूरदृष्टि से बाहर से एक रंग का और भीतर से दूसरे रंग का, ऐसा जानबूझकर सिला लिया था। वह कोट अब उसने उल्टा पहन लिया। उसके बाद उसने एक अच्छे से होटल में जाकर भरपेट खाना खाया और कोई अपना पीछा नहीं कर रहा है, इसका यक़ीन हो जाने के बाद ही वह सराई में गया। वहाँ जाकर देखता है तो क्या, सुभाषबाबू उसकी राह देखते हुए सराई के बरामदे में रुके हुए थे। उनके पास कमरे की चाभी न होने के कारण भगतराम के लौटने तक उसकी राह देखने के सिवाय और कोई चारा भी तो नहीं था।

आख़िरकार भगतराम लौट आया और सुभाषबाबू को वहाँ देखकर हैरान ही हो गया। सुभाषबाबू ने उसे जल्दी से क़मरा खोलने के लिए कहा और वे आसपास देखने लगे। उन्हें शक़ हो गया था कि कोई उनका पीछा कर रहा है। वैसे भी, एक तगड़ा सा अ़फ़गाण आदमी उनकी सराई के हमेशा बैठा रहता था। उन्हें ऐसा लगने लगा था कि जब वे सराई से बाहर निकलते थे और फ़िर सराई में लौट आते थे, तब वह उन्हें घूरता रहता है। इसलिए उन्होंने क़मरे में जाकर तुरन्त ही दरवाज़ा बन्द किया और आसपास का अन्दाज़ा लेते हुए जर्मन एम्बसी में जो कुछ हुआ, वह भगतराम को नीची आवाज़ में बताने लगे –

जर्मन गार्ड ने उन्हें व्हिज़ीटर्स रूम में बिठाया और अन्दर बैठे जर्मन अ़फ़सर से बताया कि उन्हें कोई मिलने आया है। उस जर्मन अ़फ़सर ने बाहर आकर उनकी पूछताछ की। सशस्त्र भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिए विदेशी राष्ट्रों से मदद माँगने की इस मुहिम की शुरुआत में ही रशिया से अपेक्षित प्रतिसाद न मिलने के कारण ज़िदपूर्वक सुभाषबाबू ने ठेंठ मुद्दे की बात करते हुए उस अ़फ़सर से कहा – ‘मैं सुभाषचंद्र बोस! मैं भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के लिए जर्मनी से मदद चाहता हूँ।

अपने सामने पठाणी पोषाक़ में बैठा यह आदमी ‘सुभाषचन्द्र बोस’ है, यह सुनकर वह अ़फ़सर हक्काबक्का रह गया। वह सुभाषचन्द्र बोस के बारे में केवल जानता ही नहीं था, बल्कि ब्रिटीश गुप्तचरों को भनक तक न लगने देते हुए किये हुए उनके साहसपूर्ण पलायन के बारे में भी उसे पता था और उनके इस साहसपूर्ण कृत्य से वह अच्छाख़ासा प्रभावित हो चुका था। बिना किसी अधिक पूछताछ के, वह सीधे सुभाषबाबू को वहाँ के एम्बसीहेड – जर्मन राजदूत हॅन्स पिल्गर के पास ले गया। पिल्गर कई वर्षों से अफ़गाणिस्तान में जर्मन राजदूत के तौर पर काम कर रहे थे और भारत की घटनाओं पर बारीक़ी से नज़र रखे हुए थे। विशेष बात यह थी कि जब सुभाषबाबू अपने पहले युरोपवास्तव्य के दौरान, विभिन्न देशों के पास भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए सहायता माँगते हुए जर्मनी आये थे, तब उन्होंने जर्मन विदेशमन्त्रालय को भेंट दी थी। उस समय पिल्गर वहाँ पर तैनात थे। सुभाषबाबू की उस भेंट के दौरान पिल्गर की उनसे पहचान हो गयी थी और जाज्वल्य देशाभिमान ठसठसकर भरे हुए इस भारतीय के प्रति पिल्गर के मन में सम्मान की भावना निर्माण हुई थी।

इस ‘पुरानी पहचान’ के बारे में उन्होंने ही सुभाषबाबू को याद दिलाया। सुभाषबाबू के साहसपूर्ण पलायन के बारे में उन्होंने अख़बार में पढ़ा था और अपनी मातृभूमि को ग़ुलामी के शिकंजे से आज़ाद कराने के लिए किसी अकेले योद्धा की तरह सुभाषबाबू की निरन्तर चल रहीं कोशिशों के बारे में जानकर पिल्गर के मन में सुभाषबाबू के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना और भी बढ़ गयी थी। इसीलिए सुभाषबाबू को इस तर काबूल में प्रत्यक्ष देखने के बाद उन्हें बड़ा ताज्जुब त्तई हुआ। इस शक़्स को जितनी मुझसे बन पड़ेगी, उतनी मदद मुझे करनी चाहिए ऐसा उन्होंने मन ही मन ठान लिया और उन्होंने सुभाषबाबू को वैसा आश्‍वासन भी दिया।

अचरज के प्राथमिक दौर के ख़त्म होने के बाद अब पिल्गर, सुभाषबाबू को किस तरह मदद की जा सकती है, इसके बारे में सुभाषबाबू से वार्तालाप करने लगे। सबसे पहले उन्होंने – सुभाषबाबू काबूल तक आये ही कैसे और ख़ासकर वे यहाँ पर एक सराई में रह भी कैसे सकते हैं, इस बारे में चिन्ता ज़ाहिर की; क्योंकि काबूल में भारी संख्या में रहनेवाले ब्रिटीश एजन्टों ने स्थानीय ‘इन्फ़ॉर्मर्स’ के ज़रिये लगभग सभी जगह अपना जाल बिछाकर रखा है, ऐसी उन्होंने सुभाषबाबू को आगाह कराया। चन्द कुछ पैसों की लालच में आकर कोई भी उनका घात करने के लिए तैयार हो जाता, ऐसे उस समय वहाँ के हालात थे; इसलिए उन्होंने जल्द से जल्द अपने आगामी कार्यवाही शुरू करने का तय किया और सर्वप्रथम ‘सुभाषबाबू काबूल की एम्बसी में आकर मुझसे मिलने आये और उन्हें जर्मनी में राजाश्रय चाहिए’ ऐसा सन्देश बर्लिन भेज दिया। लेकिन सुरक्षा के कारण क्या मुझे एम्बसी में ही रहने की अनुमति मिल सकती है, इस सुभाषबाबू की विनती को उन्होंने निश्‍चयपूर्वक ना कह दिया और उसका कारण भी बताया। अपनी एम्बसी में जर्मन कर्मचारियों के साथ साथ स्थानीय कर्मचारी भी बड़े पैमाने पर तैनात हैं और उनमें से ब्रिटीश एजंटों के लिए जासूसी करनेवाले कौन लोग हैं, इसके बारे में यहाँ पर किसी को भी पता न होने के कारण, सुभाषबाबू को एम्बसी में आश्रय देने से सुरक्षा की समस्या सुलझने के बजाय और ज़्यादा उलझ सकती है, ऐसा पिल्गर ने उन्हें समझाया। उसकी अपेक्षा, यहाँ से कुछ ही दूरी पर जर्मन कंपनी सिमेन्स की कचहरी है; आप वहाँ के ‘हेर थॉमस’ नामक अ़फ़सर के सम्पर्क में रहें, ऐसा उन्होंने सुभाषबाबू से कहा।

सुभाषबाबू सन्तोष के साथ वहाँ से बाहर निकले। इस मुहिम की शुरुआत के बाद पहली बार ही उनके कलेजे को वास्तविक ठण्ड़क पहुँची थी।

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