नेताजी-१४०

लाख कोशिशें करने के बावजूद भी रशिया के दरवाज़ें नहीं खुल रहे हैं, यह देखकर परेशान हुए सुभाषबाबू ने रशिया जाने का प्लॅन रद करके जर्मनी के दरवाज़े पर दस्तक देने की बात तय कर ली। और ताज्जुब की बात यह थी कि जिस दिन वे जर्मन एम्बसी में जाकर कोशिश करने की ठानकर निकल चुके थे, उसी दिन, इतने दिनों से जिसे मिलने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, वह रूसी राजदूत रास्ते में बन्द पड़ी हुई अपनी गाड़ी में बैठकर, गाड़ी के शुरू होने का इन्तज़ार करता हुआ उन्हें दिखायी दिया।

वह देखते ही नये जोश के साथ सुभाषबाबू और भगतराम गाड़ी की तऱफ़ दौड़ पड़े। भगतराम गाड़ी के पास जाकर टूटी-फ़ूटी स्थानीय भाषा में उसके साथ बात करने लगा। सुभाषबाबू कुछ ही दूरी पर खड़े थे।

सुभाषबाबू

भगतराम ने सीधे मुद्दे को स्पर्श करते हुए उस रूसी राजदूत से – ‘हम अ़फ़गाणी नहीं, बल्कि भारतीय हैं। हम आपकी सहायता चाहते हैं….क्या आप सुभाषचन्द्र बोस को जानते हैं?’ यह पूछा। वह उन्हें जानता था और उनके अचानक घर से ग़ायब हो जाने की ख़बर भी उसे मिल चुकी थी। भगतराम ने सुभाषबाबू की तऱफ़ इशारा करते हुए ‘ये ही वे सुभाषचन्द्र बोस हैं’ यह कहते ही वह रूसी राजदूत हक्का-बक्का रह गया। अब भी उसे उस बात पर भरोसा नहीं हो रहा था। उसके द्वारा पूछे गये ‘कैसे यक़ीन कर लूँ कि ये सुभाषचन्द्र बोस हैं’ इस सवाल के जवाब में भगतराम ने उसे उनकी ओर ध्यान से देखने के लिए कहा। का़फ़ी देर तक उन्हें निहारने के बाद, ‘मोहम्मद झियाउद्दिन’ बन चुके सुभाषबाबू की छबि, पहले कभी अख़बार में देखे हुए एवं स्मृति में बसे हुए सुभाषबाबू के छायाचित्रों के साथ मेल तो खा रही थी….लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? सुभाषचन्द्र बोस भला यहाँ पर क्या कर रहे हैं? इन विचारों के बवण्डर ने उसके मन को घेर लिया और वह हैरानी उसके चेहरे पर सा़फ़ सा़फ़ नज़र आ रही थी। साथ ही ‘कहीं यह ब्रिटीश सीक्रेट एजंट्स की कोई चाल तो नहीं है’ यह विचार भी उसके मन में बीच बीच में उठ रहा था। इसीलिए भगतराम द्वारा सुभाषबाबू के वहाँ होने की सम्पूर्ण पार्श्‍वभूमि को स्पष्ट करने के बाद भी – ‘सुभाषचन्द्र बोस भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में रशिया से सहायता माँगने के लिए आपके ज़रिये रशिया जाना चाहते हैं’ इस भगतराम के निवेदन के प्रति उसने थोड़ीसी भी हमदर्दी नहीं दिखायी। उतने में उसकी गाड़ी के ठीक हो जाने की बात ड्रायवर ने उसे बतायी और भगतराम की एक न सुनते हुए – ‘मुझे भी पहले मॉस्को ऑफ़िस से पूछना पड़ेगा, आप बाद में सम्पर्क कीजिए’ यह घीसापीटा जवाब देकर मुँह फ़ेरकर वह गाड़ी में बैठकर चला गया।

बुझ गयी….भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में रशिया से सहायता मिलने की टिमटिमाती हुई आशा की ज्योति भी बुझ गयी। भगतराम को तो यक़ायक़ निराशा की खाई में गिरने जैसा ही महसूस हुआ, क्योंकि उसकी दृष्टि से यह सारी मुहिम रशिया-केन्द्रित ही थी। सुभाषबाबू भी मायूस तो हुए, लेकिन पलभर के लिए ही। दूसरे पल उन्होंने अपनी निराशा को झटककर अपना हमेशा का ‘सांकेतिक संवाद’ भगतराम के साथ करके उसका भी हौसला बढ़ाया और जर्मन एम्बसी की ओर आगे बढ़ने लगे। ‘इसमें कौनसी बड़ी बात है! रशिया अब नहीं तो बाद में ही सही! अब पहले जर्मनी क्या कहता है, वह देखते हैं! एक बार जर्मनी के हाँ भरने के बाद रशिया इनकार नहीं करेगा’ – उनके इस गगनस्पर्शी आशावाद से भगतराम हिल गया और चुपचाप उनके साथ चलने लगा।

दरअसल उनकी योजना के अनुसार इस मुहिम का अब तक अपने अंजाम तक पहुँचना आवश्यक था। पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार सुभाषबाबू का अब तक रशिया की सरहद में दाखिल होना ज़रूरी था। लेकिन रास्ते में आयी हुईं अनगिनत रुकावटें और अब हालात ने लिया हुआ यह अनपेक्षित मोड़ इस वजह से सबकुछ अब भी डामाडौल ही था। सबसे अहम बात यह थी कि ‘सुभाषबाबू काबूल में हैं’ यह बात अब एक अपरिचित (रूसी राजदूत) भी जान चुका था और उस रहस्य का इस्तेमाल वह किस तरह करेगा, इसका अनुमान लगाना बहुत ही मुश्किल था।

इन सभी बातों के कारण अब जल्द से जल्द अगला कदम उठाना ज़रूरी बन गया था और इसीलिए जर्मन एम्बसी में जाकर आरपार के प्रयास करने की सुभाषबाबू ने ठान ली।

गत दिन ही रात को सुभाषबाबू ने जर्मन राजदूत के लिए, अपनी योजना की जानकारी देनेवाला ख़त लिखकर तैयार किया हुआ था। साथ ही, अब सुभाषबाबू की ग़ैरमौजूदगी में उनके फ़ॉरवर्ड ब्लॉक पक्ष की अगुआई कर रहे नेता सरदार शार्दूलसिंह कवीश्वर के लिए, अख़बार में छापने के लिए ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक किसलिए?’ यह एक लेख छापने के लिए दिया था। साथ ही शरदबाबू को देने के लिए बंगाली में एक चिठ्ठी लिखकर भगतराम को सौंप दी। कौन जानें, कल ही यदि जर्मन एम्बसी में काम हो जाता है, तो…., कम से कम भगतराम तो यहाँ से वापस लौट सकता है!

उस चिठ्ठी को शरदबाबू तक कैसे पहुँचाना है, यह भी सुभाषबाबू ने उससे कहा। भगतराम ठेंठ कोलकाता न उतरें, कोलकाता के पहले के बरद्वान आदि किसी स्टेशन पर उतरकर होटल में ठहर जायें और शाम को जब शरदबाबू के द़फ़्तर में पक्षकारों की भीड़ लगी रहती है, तब जाकर शिशिर के ज़रिये उनसे मिलें, यह सुभाषबाबू ने उससे कहा था। वह भी काबूल से निकलकर ठेंठ कोलकाता जाकर, वह चिठ्ठी शरदबाबू तक पहुँचाने के बाद ही सरहद्द इला़के के अपने घर जानेवाला था।

अब रशिया से सहायता मिलने की आशा के ख़त्म हो जाने के बाद सुभाषबाबू दृढ़ निर्धार के साथ जर्मन एम्बसी की ओर आगे बढ़े। दरअसल रूसी एम्बसी में ठेंठ प्रवेश करने में जो ख़तरें थे वे सभी जर्मन एम्बसी में दाखिल होने में भी थे ही। लेकिन अब फ़िलहाल के इस तरह की निष्क्रिय व्यर्थ स्वतन्त्रता से अधिक बदतर तो अ़फ़गाणिस्तान का कैदख़ाना नहीं होगा; यह सोचकर, अब हद हो चुकी है, अब चाहे जो भी हो, जर्मन एम्बसी में मैं ठेंठ दाखिल होकर ही रहूँगा, यह निश्चय उनके चेहरे पर सा़फ़ सा़फ़ झलक रहा था।

वे दोनों भी जर्मन एम्बसी के पास पहुँचे। वहाँ का नज़ारा रूसी एम्बसी जैसा ही था – भीतर जर्मन गार्ड्स का स़ख्त पहरा था; वहीं, बाहर स्थानीय अ़फ़गाणी पुलीस बारीक़ी से नज़र रखे हुए थी और जर्मनी के साथ जंग छिड़ जाने के कारण इस सारे माहौल पर आँखों में तेल डालकर ब्रिटीश गुप्तचर ऩजर रखे हुए थे!

लेकिन ‘अटॅक इज द बेस्ट वे ऑफ़ डिफ़ेन्स’ इस प्राचीन भारतीय युद्धतन्त्र की जन्मघूँटी पचा चुके सुभाषबाबू अब पीछे हटनेवाले नहीं थे। वे ठेंठ मुख्य दरवाज़े पर पहरा दे रहे अ़फ़गाण पुलीस के पास गये और मैं भीतर जाना चाहता हूँ, यह इशारे से ही उन्होंने उसे बताया।

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