भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य के अधिकारी डॉ. कृष्णस्वामी कस्तुरीरंगन

एक छोटे पद से शुरुआत करते हुए उसी संस्था में सर्वोच्च पद हासिल कर लेना यह हर किसी के बस की बात नहीं होती, परन्तु डॉ. कस्तुरीरंगन ने यह महिमा कर दिखलायी है। भारतीय अंतरिक्ष संशोधन संस्था के प्रमुख के रूप में इस शास्त्रज्ञ ने अपने साथ-साथ संस्था का नाम भी रोशन किया है। उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने के काम में भारत का नाम प्रथम दस राष्ट्रों सूचि में पहुँचाने में डॉ. कस्तुरीरंगन का काफ़ी बड़ा योगदान है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है।

नैसर्गिक सौंदर्य से ओत-प्रोत एर्नाकुलम (केरल) में २० अक्तोबर १९४० के दिन इस शास्त्रज्ञ का जन्म हुआ। अहमदाबाद संस्थान से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर वहीं के इंडियन स्पेसरिसर्च ऑरगनायझेशन में रिसर्च असोसिएट के रूप में और इसके पश्‍चात् पदार्थ विज्ञान विभाग प्रमुख के रुप में कार्य किया। ‘भास्कर-१’ उपग्रह के संचालक के रूप में और इसके पश्‍चात् ‘भास्कर- २’ इस उपग्रह के संचालक पद की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई। इसके पश्‍चात् ‘रिमोट सेन्सिंग सॅटलाईट’ प्रकल्प के संचालक के रूप में उनकी नियुक्ति की गई।

डॉ. कस्तुरीरंगन आज उपग्रह विषयक शास्त्र के एक मान्यवर वैज्ञानिक के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। उनके अनुसार भारत के अनेक समस्याओं पर होनेवाला एक उपाय अर्थात विज्ञान का प्रसार वैज्ञानिक दृष्टि का स्वीकार, सावधानी बरतकर किये गए तर्कशुद्ध विधान यह उनकी विशेषता है। कर्तृत्व एवं संयम इनके बल पर मानव काफी कुछ प्राप्त कर सकता है, यह उनका विश्‍वास है।

उनके कार्य के दौरान घटित होनेवाली एक घटना है- ‘पोलर सॅटलाईट लाँच व्हेइकल’ (PSLV) नामक इस अग्निबाण का अंतरिक्ष में उड़ान भरने का कार्यक्रम हमारे ही वैज्ञानिकों ने आयोजित किया था। ‘इन्सॅट-२’ उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ने (प्रक्षेपित करने) वाले ‘जी एस एल व्ही’ के लिए (Geo Synchronous Satellite Launch Vahicle) क्रायोजनिक पद्धति के इंजिन की आवश्यकता होती है। परन्तु अंतर-राष्ट्रीय राजकारण के कारण इस इंजन की आपूर्ति भारत को न हो पायी। अपने देश के समक्ष काफ़ी बड़ी समस्या निर्माण हो गई। भारत सरकार, इस्त्रो एवं संपूर्ण वैज्ञानिक जगत में समस्या निर्माण हो गई। परन्तु कस्तुरीरंगन ने दिन-रात एक करके उसमें से रास्ता ढूँढ़ निकाला। भारत का उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने के कार्यक्रम में किसी भी प्रकार का व्यत्यय नहीं आने पाया।

१९७५ में भारतीय बनावट का ‘आर्यभट’ नामक यह सर्वप्रथम उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने वाले महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों के साथ काफी नज़दीकी संबंध है। भारत के ‘आय.आर. एस.-१ए’ ‘आय.आर. एस. – २बी’ (Indian Remots Sensing Satellites IRS-1A and IRS 1B) और इस श्रृंखला के अंतर्गत आनेवाले और भी कुछ उपग्रह साथ ही ‘इन्सॅट’ श्रृंखला के अंतर्गत ‘इन्सॅट-२ ए’ ‘इन्सॅट -१बी’ (Indian National Satellite- २) अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने के पिछे उनका महत्त्वपूर्ण सहभाग था।

डॉ. कस्तुरीरंगन के नेतृत्व के अन्तर्गत होनेवाले कार्यों के कारण ही देश का करोड़ो रूपयों का परकीय चलन बच सका है। अपने देश को एवं वैज्ञानिकों को जो अंतरराष्ट्रीय स्वरूप की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है वह काफी मूल्यवान है। आज हम घर बैठे ही विदेशों में होनेवाले उतार-चढ़ाव, क्रिकेट मैच की प्रतियोगिताएँ तथा अन्य कार्यक्रम भी देख सकते हैं। मौसम का अनुमान अधिक अचूक रूप में करना आदि अनेकों बातें आज उपग्रहों के कारण संभव हो सकी हैं। इस प्रकार के सभी कार्यों के पीछे डॉ. कस्तुरीरंगन का पूरा योगदान है।

१९८१ में उन्हें हरिओम आश्रम पुरस्कार, १९८३ में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त हुआ। वहीं भारत सरकार की ओर से १९८२ में ‘पद्मश्री’ पुरस्कार, १९९२ में ‘पद्मभूषण’ पुरस्कार एवं २००० में ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किया गया। २००४ से वे ‘नेशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ अ‍ॅडवान्सड् स्टडिज्’ बंगलोर नामक इस संस्था के संचालनकर्ता के रूप में कार्यरत है। पार्लमेन्ट के मेंबर (चझ) का सम्मान भी उन्हें प्राप्त हुआ है।

इस देश के वैज्ञानिक इस देश को प्रगति की मार्ग पर आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं। डॉ. कस्तुरीरंगन ने अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करनेवाले उपग्रहों के प्रति तकनीकी ज्ञान विकसित करने के कार्य में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया है। आज हमारे भारत देश को ऐसे ही होनहार वैज्ञानिकों की अत्यधिक आवश्यकता है।

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