क्रान्तिगाथा – ७

इंग्लैंड के एक आम आदमी को जो मिल रहा था, वह भारत के हर एक नागरिक से छीना जा रहा था। जब कोई मानवी समूह किसी अन्य मानवी समूह की ग़ुलामी के शिकंजे में आ जाता है, उसमें भी किसी विदेशी भूमि से आये हुए मानवों के कब्ज़े में आ जाता है, तब उस मानवी समूह को ग़ुलामी का दुख झेलना पड़ता है और उससे उसकी आज़ादी छीनी जाती है।

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रंगो बापुजी ने १४ वर्ष के इंग्लैंड के वास्तव्य के दौरान जिस विदारक वास्तविकता को बार बार देखा, महसूस किया और उसी से वहीं पर उनके मन में इस विचार की जड़ें मज़बूत हुईं – अपनी मातृभूमि को, अपने भाइयों को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ने वाले मुँहज़ोर अँग्रेज़ों के खिलाफ कुछ करने का विचार और यह विचार साकार हुआ, भारत लौट आने के बाद।

शस्त्र, अस्त्र और विशिष्ट योजना (विचार) के सहारे भारत और भारतवासियों पर ज़ुल्म-ज़बरदस्ती करनेवालें अँग्रेज़ों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना ज़रूरी था। इसीलिए इस स्वतन्त्रतासंग्राम के अग्रणी जब एक-दूसरे से मिले, तब उनका विचार यानी योजना तो पक्की हो ही चुकी थी, अब बाक़ी था उस योजना को कृति में उतारना।

सातारा रियासत से जुड़े हुए रंगो बापुजी ने फिर वहाँ का मोरचा सँभाला। सातारा, सांगली, धारवाड, कोल्हापुर, बेळगाँव में उन्होंने सशस्त्र सेना बनानी शुरू कर दी। वहाँ उत्तरी भारत में मोरचा सँभालनेवालें अग्रणी सक्रिय हो चुके थे। उस समय अँग्रेज़ों के अत्याचारों से पीड़ित हो रहे अचेतन मनों में इन स्वतन्त्रता समर-अग्रणियों की कृति से चेतना की लहर दौड़ गयी। उनके मनों पर छायी हुई उदासी हट गयी और उनके दिलों से आवाज़ उठी – हाँ, हमें भी अपना अस्तित्व है। हमारी इस मातृभूमि के लिए हम भी कुछ कर सकते हैं।

कैसे यह तो पता नहीं, लेकिन इस तैयारी की जानकारी की खबर अँग्रेज़ों को मिल गयी। फिर सिर्फ गिरफ्तारी तक ही अँग्रेज़ों की कार्रवाई सीमित नहीं रही, उन्होंने इस सशस्त्र सेना के सेनानियों को सीधे सीधे मार डालना शुरू कर दिया।

अब इस योजना का जनम कहाँ से हुआ, किसने यह योजना बनायी यह जानने के पीछे अँग्रेज़ पड़ गये और पश्‍चिमी और दक्षिणी भारत का मोरचा सँभालनेवालें रंगो बापुजी के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। लेकिन रंगो बापुजी को पकडने में वे नाकामयाब हो रहे थे। ऐसे में किसी पारिवारिक समारोह के लिए अपने किसी रिश्तेदार के घर रंगो बापुजी आये थे। अँग्रेज़ों को इस बात का पता चलते ही उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अँग्रेज़ निकल पड़े लेकिन अँग्रेज़ों से बचकर निकलने में रंगो बापुजी क़ामयाब रहे और वहाँ से रंगो बापुजी जो चले गये, वे उसके बाद कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।

१८५७ के स्वतन्त्रतासमर के ये अग्रणी कहाँ गये, आगे चलकर उनका क्या हुआ इस सवाल का जवाब इतिहास के पास नहीं है। एक बस वक़्त ही होगा, जो इसके बारे में जानता होगा।

बड़ी तेज़ी से कारतूसों की खबर ‘मेरठ’ पहुँच गयी। अब मई के महीने की तेज़ धूप उत्तरी भारत को तपा रही थी।

मेरठ यह अँग्रेज़ों का भारत स्थित एक बड़ा एवं शस्त्र-अस्त्रों से लैस रहनेवाला फौजी थाना था। दिल्ली से महज़ ४० मील की दूरी पर यह थाना था। यहाँ की फ़ौज में एवं फौजी थाने में दोनों तरफ के लोग काम कर रहे थे, ब्रिटन से भारत आये सैनिक और इसी भूमि के भारतीय सैनिक। लगभग ढाई हज़ार भारतीय सैनिक और लगभग दौ-पौने दो हज़ार ब्रिटिश सैनिक यहाँ पर थे।

इस स्थिति को देखते हुए यहाँ पर कुछ खास घटित नहीं होगा ऐसा अँग्रेज़ सेना के अफसरों का अनुमान था और यदि कुछ होता भी है, तो हालात को काबू में करने के लिए पर्याप्त संख्या में अँग्रेज़ सैनिक भी वहाँ पर उनके पास थे।

६ मई १८५७ का दिन, अब यहाँ के सैनिकों को कारतूस बंदूक में भरने का प्रशिक्षण देने का तय किया गया था। क्योंकि अब कारतूस ऐसे बनाये गये थे, जिन्हें मुँह के बजाय हाथों से खोलना था। इस बहाने से कारतूसों के मामले में सैनिकों की प्रतिक्रिया क्या होती है यह भी उन्हें ज्ञात होनेवाला था।

कुल ९० सैनिकों को ये कारतूस बंदूक में भरने के लिए दिये गये। लेकिन कारतूसों की (कु)ख्याति सैनिकों तक पहुँच ही चुकी थी और ९० सैनिकों में से महज़ ५ ही सैनिक कारतूस लेने के लिए आगे बढ़े और बाक़ी के ८५ ने उन कारतूसों को छूने तक से इनकार कर दिया।

बस, ब्रिटिश सेना के अफसरों को सैनिकों पर कार्रवाई करने का बहाना मिल गया। कारतूसों का इस्तेमाल करने के लिए इनकार करनेवाले ८५ सैनिकों की जाँच की जानेवाली थी। जाँच करने के लिए एक कमिटी भी नियुक्त की गयी। कार्रवाई में भी अँग्रेज़ों ने वक़्त नहीं गँवाया। घटना के फ़ौरन बाद कमिटी के द्वारा मामले की जाँच की गयी।

इस काम को तेज़ी से पूरा किया गया और ज़ाहिर है कि उन ८५ सैनिकों को दोषी क़रार दिया गया। अपने अफसर के आदेश का पालन न करना यह उनका गुनाह था और अब सब के सामने उन्हें उनके गुनाह की सज़ा सुनायी जानेवाली थी।

सेना के अफसर और अन्य सैनिक भी उस दृश्य को देखने के लिए इर्दगिर्द इकट्ठा हो गये थे। इन ८५ सैनिकों में से कुछ चुनिंदा सैनिकों के अलावा सभी को १० साल के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी और कुछ गिनेचुने सैनिक, जो नये नये भरती हुए थे, उन पर दया करके उन्हें ५ साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनायी गयी।

और यह सब देख रहे अन्य भारतीय सैनिकों के मन में उस वक़्त क्या चल रहा था, यह तो शायद सिर्फ वक़्त ही जानता होगा।

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