क्रान्तिगाथा- ९

११ मई १८५७ का वह दिन दिल्ली के लिए कुछ अनोखा ही था। मेरठ के सैनिक दिल्ली पहुँच गये और अब उन्होंने ठेंठ दिल्ली में स्थित मुग़ल बादशाह से ही इस स्वतन्त्रतासंग्राम के सूत्र अपने हाथ में ले लेने की दरख्वास्त की। ये आखिरी मुग़ल बादशाह उस वक़्त काफी बूढ़े हो चुके थे और ‘बादशाह’ यह उपाधि होने के बावजूद भी उनके राज्य पर अधिकार तो अँग्रेज़ों का था।

Bahadur_Shah_II_(r._1837-58),_last_Mughal_emperor_of_India

अब इस घटना से दिल्ली के सैनिकों का भी खून खौलने लगा ही था। कुछ सैनिक तो ठेंठ मेरठ से आये सैनिकों के साथ काम में जुट भी गये थे। मग़र यह तो बस शुरुआत ही थी। अब भी दिल्ली पर अँग्रेज़ों की गिरफ्त मज़बूत थी। वहीं दिल्ली के सैनिक भी मेरठ के सैनिकों के साथ तेज़ी से काम में जुट गये थे। मेरठ की तरह उनका एक ही ध्येय था, दिल्ली को अँग्रेज़ों से आज़ाद कराना और उस दिशा में वे कदम उठाने लगे थे।

मेरठ से आये हुए भारतीय सैनिकों का मुक़ाबला करने के लिए कुछ अँग्रेज़ अफसर अपने अधिकार में रहनेवाली भारतीय सेना को अपने साथ लेकर निकल पड़े। लेकिन अपने देशवासी सैनिकों की बहादुरी और उनका निर्धार देखते ही ये दिल्ली के सैनिक उनमें जाकर शामिल हो गये। सारांश, अब इन सभी भारतीय सैनिकों ने अँग्रेज़ों को खदेड़ना शुरू कर दिया।

उसी दौरान मेरठ से कुछ पैदल और कुछ घुड़सवार सैनिक दिल्ली में दाखिल हो गये और स्वतन्त्रता की जंग लड़नेवाले सैनिकों की संख्या बढ़ने लगी। हमारी मातृभूमि को ग़ुलामी की खाई में धकेल देनेवाले दुश्मन का खात्मा करना है, यही बात उनके दिल दिमाग़ पर छायी हुई थी और वही कृति में से प्रकट हो रही थी।

११ मई का दिन जैसे जैसे चढ़ता जा रहा था वैसे वैसे यह भिड़ंत तेज़ होने लगी थी। इसी दौरान भरी दोपहर में स़िर्फ दिल्ली शहर में ही नहीं, बल्कि वहाँ से कुछ मीलों तक भी एक विस्फोट की आवाज़ सुनायी दी और जहाँ यह हुआ उसके आसपास से आग की बड़ी बड़ी लपटें उठती हुई दिखायी देने लगीं।

हुआ क्या था? दिल्ली के राजमहल के पास ही अँग्रेज़ों का गोलाबारूद का भंडार था। उसमें शस्त्र-अस्त्रों के साथ साथ गोला-बारूद, कारतूस आदि युद्धसामग्री रखी गयी थी। अब यह सब यदि भारतीय सैनिकों के हाथ लग गया तो? फिर उनकी ताकत और भी बढ़ जायेगी इसमें कोई शक नहीं था। इस शस्त्रभंडार में कुछ कर्मचारी अँग्रेज़ थे, तो कुछ भारतीय। इस शस्त्रभंडार पर सीधे बिना किसी संघर्ष के कब्ज़ा करने में सफलता मिल जाए तो अच्छा है ऐसा मेरठ से आये सैनिक सोच रहे थें; लेकिन वक़्त आने पर संघर्ष करने के लिए भी वे तैयार थे। इस शस्त्रागार की रक्षा करने के लिए नियुक्त किये गये अँग्रेज़ अब सक्रिय हो गये और उन्होंने संघर्ष करना शुरू कर दिया। लेकिन उनकी संख्या काफी कम थी और इसी वजह से हम कब तक मुक़ाबला करने में क़ामयाब होंगे यह संदेह उनके मन में था। एक पल ऐसा आ गया कि इस संदेह का रूपान्तरण डर में हो गया। यह शस्त्रागार भारतीय सैनिकों के कब्ज़े में चला जायेगा इस डर से और उस तरह के आसार दिखायी देने पर वहाँ रहनेवाले अँग्रेज़ों ने उस शस्त्रागार को पल भर में उड़ा दिया और यही था वह धमाका, जिसकी आवाज़ काफी दूर तक सुनायी दी।

देखते ही देखते वह विशाल शस्त्रागार आग की लपटों से घिर गया और जलकर राख हो गया। शस्त्रागार के आसपास के सैनिकों के शरीर की धज्जियाँ उड़ गयीं। इतिहास में कहा गया है कि यहाँ पर ९ अँग्रेज़ काम कर रहे थे और वे ही इस शस्त्रागार को भारतीय सैनिकों से बचाने की कोशिश कर रहे थे और इस कार्य में सफलता मिलने की आशा धुंधली होने लग जाते ही उन्होंने इस शस्त्रागार को आग लगा दी। लेकिन उन ९ में से ६ अँग्रेज़ बच गये।

हालाँकि उनमें से कुछ शस्त्र-अस्त्र भारतीय स्वतन्त्रतायोद्धाओं के हाथ लग गये, लेकिन उन शस्त्र-अस्त्रों की संख्या बहुत ही कम थी।

इस घमासान ने ११ मई के दिन को संस्मरणीय बना दिया। इस दौरान बाक़ी की दिल्ली में भारतीय सैनिक अँग्रेज़ों से लड़ रहे थे। दिल्ली में हो रहे इस संग्राम में पहली बार ही एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई थी।

१२ मई का दिन आ गया और आखिरी मुग़ल बादशाह ने इस स्वतन्त्रतासंग्राम के सूत्र अपने हाथ में लेने की बात मान ली और उसी दिन उन्होंने अपने दरबार में दिल्ली की जनता तथा मेरठ से आये सैनिकों को संबोधित किया। इस घटना से सैनिकों के मन में और भी उत्साह बढ़ गया। अब सैनिकों ने दिल्ली को शत्रुमुक्त करने की ठान ही ली।

दिल्ली के राजमहल पर भी अब सैनिकों ने कब्ज़ा कर लिया था। इन स्वतन्त्रतायोद्धाओं को अब नेतृत्व मिल गया था और विश्राम करने के लिए राजमहल भी।

लेकिन इन सैनिकों को विश्राम करने की फुरसत ही कहाँ थी? अपनी मंजिल पाने के लिए वे बेक़रार थे।

दिल्ली के वयोवृद्ध बादशाह थे, बहादुरशाह जफर। जिनका जन्म २४ अक्तूबर १७७५ को हुआ था। उनके पिता अकबरशाह के बाद दिल्ली की राजगद्दी पर बैठने का अधिकार उन्हें प्राप्त हुआ था। लेकिन अँग्रेज़ों द्वारा बहुत पहले ही दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया गया था और इसी वजह से बादशाह को अपनी बहादुरी दिखाने का अवसर ही नहीं मिला था। लेकिन अतीत में बलशाली रह चुके इस मुग़ल साम्राज्य के आखिरी बादशाह थे कैसे?

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