क्रान्तिगाथा-७३

अँग्रेज़ सरकार ने इस असहकार आंदोलन के मार्गदर्शक महात्मा गाँधीजी को गिरफ़्तार करके उन्हें ६ साल की सज़ा सुनायी। लेकिन आगे चलकर फरवरी १९२४ में स्वास्थ के बिगड़ जाने के कारण उन्हें रिहा किया गया।

आख़िर १२ फरवरी १९२२ को इंडियन नॅशनल काँग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर असहकार आंदोलन को स्थगित किये जाने की घोषणा की।

चौरी चौरा में हुई घटना की तहकिक़ात करते समय अँग्रेज़ सरकार ने २२८ लोगों को दंगा फसाद और आगजनी करने के इलज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया। इस घटना की सुनवाई ८ महिनों तक चली और उसके बाद १७२ लोगों को फँसी की सज़ा सुनायी गयी। लेकिन सन १९२३ में इस फैसले पर पुनर्विचार करके ११० लोगों को उम्ऱकैद की और १९ लोगों को फाँसी की सज़ा देने का तय किया गया।

१९२३ में चौरी चौरा में हुई घटना में शहीद हुए पुलीसकर्मियों की याद में अँग्रेज़ों ने फौरन एक स्मारक बनवाया।

दर असल ४ फरवरी की इस घटना के दो ही दिन पहले एक साधारण सी प्रतीत होनेवाली घटना घटित हुई थी।

महँगाई का यानी चीजों के बढ़े हुए दामों का निषेध करने के लिए चौरी चौरा के बाज़ार में कुछ लोगों ने विरोधप्रदर्शन करने के लिए निदर्शन किये थे। उन्हें स्थानीय पुलीस ने गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया था और इस पार्श्‍वभूमि पर ४ तारीख़ को निदर्शन किये गये थे।

इस असहकार आंदोलन के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को आगे की ओर ले जानेवाले कई देशभक्त व्यक्तित्व प्राप्त हुए। अँग्रेज़ सरकार के साथ किये गये असहकार आंदोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका प्रमुख थी, लेकिन उनके साथ कई जाँबाज़ व्यक्तित्वों से समूचे भारत का परिचय हुआ।

‘देशबन्धु’ इस उपाधि से गौरवान्वित किये गये चित्तरंजन दास। सन १९०६ में इंडीयन नॅशनल काँग्रेस में प्रवेश करने के साथ ही इनके भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम के कार्य की शुरुआत हुई थी। जोशभरे व्यक्तित्व के साथ ही वे एक चतुर राजनीतिज्ञ और एक उत्तम पत्रकार थे। साथ ही उनकी वकालत भी जारी थी और इसके साथ ही उनके मन में एक कवी भी बसता था।

ढाका के विक्रमपुर में स्थित विख्यात दास परिवार में नवंबर १८७० में इनका जन्म हुआ। इनके पिता भुवनमोहन दास सॉलिसिटर और कवी थे। इनके चाचा ब्राह्मो समाज की सीख को आचरण में उतारते हुए ब्राह्मो समाज के तत्त्वों का प्रसार करनेवाले थे।

सन १८९० में उच्चशिक्षा के लिए चित्तरंजन दास इंग्लैंड रवाना हुए और वहाँ से भारत लौटने के बाद उन्होंने वकालत की शुरुआत की। अरविंद घोष पर चलाये गये राजद्रोह के मुकदमे में जब देशबन्धु चित्तरंजन दास ने उनका पक्ष रखा, तब भारतीयों को उनकी वकालत की महारत का परिचय प्राप्त हुआ। देशबन्धु की विशेषता यह थी की वे भारतीय देशभक्तों और क्रांतिवीरों के मुकदमें नि:शुल्क लडते थे।

१९०६ से उनके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के योगदान की शुरुआत हुई। स्वतंत्रता संग्राम में कार्यरत होने के लिए चित्तरंजन दास ने वकालत छोड दी और इतना ही नहीं तो अपनी सारी संपत्ती मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की स्थापना के लिए दे दी।

असहकार आंदोलन के दौरान इन्होंने खादी का पुरस्कार किया और उसी के साथ उन छात्रों के लिए ढाका में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की, जिन छात्रों ने इस आंदोलन के दौरान विदेशी स्कूल-कॉलेजों का त्याग किया था।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चित्तरंजन दास की पत्नी भी जोश के साथ स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुई थी। इनकी पत्नी का नाम वासंतीदेवी था। इस पती-पत्नी को असहकार आंदोलन के दौरान अँग्रेज़ों ने गिरफ़्तार कर कारावास की सजा सुनायी।

देशबन्धु की पत्रकारिता का परिचय उनके द्वारा स्थापित ‘फॉरवर्ड’ नामक समाचार पत्र के द्वारा प्राप्त हुआ। आगे चलकर स्वराज पार्टी की स्थापना कर उस माध्यम से इन्होंने कार्य किया।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने प्रांतीय सरकारों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इसका ही एक हिस्सा था उनके द्वारा १९२४-२५ के दौरान विभूषित कलकत्ता का मेयरपद। भले ही प्रांतीय सरकार में चित्तरंजन दास स्वयं और उनके सहयोगी चुने गये, मगर फिर भी उन्होंने उस माध्यम से अँग्रेज़ सरकार को विरोध करने का ही रवैय्या अपनाया।

देशबन्धु के व्यक्तित्त्व और कार्य का सुभाषचंद्र बोस पर बहुत बडा प्रभाव था। सन १९२५ में उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा और आखिरकार जून १९२५ में उन्होंने इस दुनिया से बिदा ली।

वकालत, समाजसेवा, देशसेवा, पत्रकार इन पहलुओं के साथ ही देशबन्धु के कवी मन का परिचय उनकी काव्य रचनाओं से प्राप्त होता है।

त्याग और जाँबाज वृत्ति इन दो गुणों से इस देश की जनता ‘देशबन्धु’ को हमेशा याद करती है।

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