कांची भाग – ४

अक्तूबर के महीने में कांची की सड़कों पर दोपहर की चिलचिलाती धूप में घूमते हुए गरमी का अच्छा-ख़ासा एहसास होते रहता है। लेकिन कांची के किसी प्राचीन मंदिर में प्रवेश करते ही गरमी भाग जाती है। इसका मुख्य कारण है, इन मंदिरों के निर्माण में इस्तेमाल किया गया उस समय का पत्थर। इसी कारण बाहर चाहे कितनी भी गरमी हो, मंदिर के भीतर गरमी का एहसास नहीं होता। तो आइए, फ़िर से एक बार कांची के मंदिरों की यात्रा शुरू करते हैं।

अध्यात्म, रचनाशास्त्र तथा शिल्पकला आदि सभी पहलूओं से महत्त्वपूर्ण रहनेवाले कांची के इन मंदिरों की महिमा कई संतों ने अपनी रचनाओं में वर्णित की है।

एकांबरेश्‍वरजी के दर्शन के बाद आइए, चलते हैं ‘वरदराजा’ के यानि कि भगवान विष्णु के दर्शन करने एक पहाड़ी पर। ‘वरदराज पेरुमल’ यह भगवान विष्णु का मंदिर है। एक पहाड़ी पर बसा हुआ यह मंदिर ‘हस्तिगिरी’ अथवा ‘अट्टियुरन्’ इस नाम से भी मशहूर है। इस मंदिर के आराध्य देवता रहनेवाले भगवान विष्णु – देवराज, देव पेरुमल आदि विभिन्न नामों से जाने जाते हैं। यहाँ की भगवान विष्णु की मूर्ति आकार से का़फ़ी बड़ी और बहुत ही सुन्दर है। एक राय के अनुसार विजयनगर के शासकों ने इस मंदिर का निर्माण किया था; वहीं, एक अन्य मत के अनुसार इस मूल मंदिर का निर्माण ११ वीं सदी में चोळ राजाओं द्वारा किया गया। स्वाभाविक है, कांची के अन्य मंदिरों की तरह यह मंदिर भी शिल्पकला की एक बेहतरीन मिसाल है। यहाँ का १०० खंभों का ‘नूरु काल मंडपम्’ विजयनगर के शासकों के काल में बनाया गया; दरअसल एक अखण्ड शिला में से ही इस पूरे मण्डप को तराशा गया, ऐसा कहा जाता है। यहाँ का हर एक खंभा नक़्क़ाशी से भरा हुआ है और साथ ही इन खंभों पर भगवान विष्णु के विभिन्न अवतार भी तराशे गये हैं।

इस मंदिर में प्रवेश करने के बाद कुछ मण्डपों को पार करके थोड़ी ऊँचाई पर पहुँचने पर मुख्य गर्भगृह में भगवान विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति आयुधों समेत विराजमान है।

इस मंदिर की एक ख़ासियत तो हमें देखनी ही चाहिए। छिपकली का नाम सुनते ही बहुतांश लोग तो नापसन्दगी ही दर्शाते हैं। अब आप सोचेंगे कि भगवान विष्णु तथा छिपकली का भला क्या रिश्ता है? इस ‘वरदराज पेरुमल’ मंदिर में भक्तगण छिपकली को छूते हैं। लेकिन घबराइए मत, ये असली छिपकलियाँ नहीं हैं। यह सुनकर तो आप निश्चिंत हो गये ना? इसी मंदिर की सिलिंग पर दो छिपकलियाँ तराशी गयी हैं। अब इन्हें कब और किसने तराशा, इसके बारे में तो कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन इन छिपकलियों को अशुभ नहीं माना जाता। इनमें से एक छिपकली सोने के पत्तर से (पत्रे से) आच्छादित है और दूसरी चाँदी के पत्तर से। ये छिपकलियाँ जिस छत पर स्थित हैं, वहाँ तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। यहाँ आनेवाले भक्तगण इन सीढ़ियों के द्वारा छिपकलियों तक पहुँचकर उन्हें स्पर्श करते हैं। इस प्रकार छिपकलियों को स्पर्श करना, इस बात को यहाँ पर भक्ति का ही आविष्कार माना जाता है। ‘सर्वांभूती भगवंत’ (सभी प्राणिमात्रों में भगवान ही बसे हैं) ऐसा माननेवाली भारतीय संस्कृति में यह एक अपूर्व उदाहरण ही है।

‘हस्तिगिरी’ अथवा ‘अथ्थिगिरी’ यह नाम होनेवाला यह मंदिर हाथी यानि कि गजराज की पहाड़ी पर बनाया गया है। इस मंदिर के ‘अथ्थिगिरी’ नाम के बारे में एक कथा बतायी जाती है। ‘अथ्थि’ यह एक प्रकार की लकड़ी है। इस ‘अथ्थि’ नामक लकड़ी में से ही ‘अथ्थिगिरी वरदर’ इस भगवान की मूर्ति को तराशा गया है। यह मूर्ति इसी मंदिर के तीर्थ में यानि कि तालाब में है और हर ४० सालों बाद इस मूर्ति को उस तालाब से बाहर निकाला जाता है और तकरीबन ४८ दिनों तक उसका पूजन आदि विधि किये जाते हैं।

यह ‘वरदराज पेरुमल’ यानि कि भगवान विष्णु का मंदिर हमारे लिए कितनी अचरजभरी बातों का ख़जाना खुला कर गया, है ना?

कांची में भगवान विष्णु का ही एक और प्राचीन मंदिर है – ‘वैकुंठ पेरुमल’ मंदिर। इस वैकुंठ पेरुमल मंदिर का निर्माण ७ वीं सदी में ‘नंदीवर्मा’ इस पल्लव राजा द्वारा किया गया ऐसा कहा जाता है। इसकी दीवारें सिंहों के आकार के खंभों से अलंकृत हैं। यह मंदिर भी शिल्पकला का उत्तम उदाहरण माना जाता है। इस मंदिर की चहुँ ओर नंदीवर्मा इस पल्लव राजा के समय की ऐतिहासिक घटनाओं को चित्रित किया गया है।

कांची का नाम लेते ही झट से याद आती है – ‘कामाक्षी’ मंदिर की। वामाचार की बढ़ती प्रबलता का असर कांची पर भी हुआ और यहाँ पर भी उग्र तथा घोर ऐसी वामाचार उपासनाएँ तथा पन्थ इनका उदय हुआ। आम इन्सान, जो कि पापभीरु है और अच्छी राह पर चलना चाहता है, उसकी सहायता के लिए आदिशंकराचार्य आगे आये। उन्होंने ‘कामाक्षी’ की स्थापना कर यहाँ पर वेदोक्त पद्धति से पूजन करना शुरू किया। इसी मंदिर में उन्होंने देवी के सामने श्रीचक्र की भी स्थापना की।

चलते चलते एक और मंदिर का वर्णन देखते हैं। दरअसल इसकी विशेषता इसके नाम में ही है। ‘श्रीदीपप्रकाश पेरुमल’ मंदिर यह इसका नाम है। इसके बारे में ऐसी कथा बतायी जाती है कि एक बार ब्रह्मदेव के अश्‍वमेध यज्ञ के दौरान असुरों ने अन्धकार का निर्माण कर बाधा उत्पन्न की। अर्थात् इस बाधा का निवारण करने के लिए ब्रह्मदेव ने परमात्मा की प्रार्थना की। उस समय परमात्मा ने उसके ‘प्रकाश’ इस रूप को प्रकट कर अन्धकार को नष्ट किया। इसी कारण यह स्थान ‘दीपप्रकाश’ इस नाम से जाना जाने लगा।

कांची के इतने सारे मंदिरों को तो हम देख चुके, लेकिन इस एक मंदिर को यदि हम नहीं देखते, तो हमारा कांची का स़फ़र अधूरा ही रह जायेगा।

‘कैलासनाथ’ मंदिर यह कांची का बहुत ही प्राचीन मंदिर माना जाता है। सुन्दरता की दृष्टि से भी यह एक बेहतरीन मंदिर है। इस मंदिर के नाम से आप समझ ही गये होंगे कि यह भगवान शिव का मंदिर है।

कांची पर शासन करनेवाले ‘राजसिंह’ नामक पल्लव राजा ने इस मंदिर का निर्माणकार्य शुरू किया, लेकिन इसका निर्माणकार्य पूरा हुआ उसके पुत्र ‘महेंद्रवर्मा’ के शासनकाल में। राजसिंह का शासनकाल ७ वीं तथा ८ वीं सदी यह माना जाता है। इस मंदिर को पल्लव राजाओं की एक अत्यन्त सुन्दर निर्मिति कहा जाता है।

रचना की दृष्टि से बेहतरीन माना जानेवाला यह मंदिर, ‘राजराजा’ नामक चोळ राजा का प्रेरणास्थान रहा, ऐसा कहा जाता है। ‘राजराजा’ शायद इस मंदिर में आये होंगे और जब उन्होंने तंजावर में ‘राजराजेश्‍वरम्’ मंदिर का निर्माण किया, तब इस कैलासनाथ मंदिर की रचना तथा शिल्पकला, जो उनके दिलोदिमाग पर छायी हुई थी, वही इस ‘राजराजेश्‍वरम्’ मंदिर का निर्माण करते हुए फ़िर से एक बार साकार हुई, ऐसी कुछ आर्किओलॉजिस्ट की राय है।

ख़ैर! हम फ़िर से कैलासनाथ मंदिर की ओर रूख करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह कैलासनाथ मंदिर यानि कि मानो स्वर्ग से धरती पर उतरा हुआ भगवान का रथ ही है। जाहिर है कि वह निश्चित ही भव्य, दिव्य और सुन्दर तो होगा ही।

इस मंदिर में कृष्णवर्ण अर्थात् काले रंग का षोडशकोनी शिवलिंग है। इस अनोखे मंदिर को वालुकापाषाण से बनाया गया है। यहाँ पर मुख्य देवता के मंदिर के अलावा लगभग ५८ छोटे छोटे मंदिर हैं।

शिल्पकला यह तो कांची के मंदिरों की जान ही है, तो फ़िर क्या यह मुमक़िन है कि इस मंदिर में वह नहीं होगी? इसके साथ ही इस मंदिर की एक और ख़ासियत है इसकी दीवारों पर बनाये गये चित्र। किसी जमाने में इन चित्रों को आसानी से देखा जा सकता था, लेकिन आज वक़्त के साथ साथ ये चित्र नष्ट हो रहे हैं। इन चित्रों को संरक्षित रखने की कोशिशें की जा रही हैं। कई अन्वेषकों ने इन चित्रों के किये हुए अभ्यास के द्वारा इन चित्रों के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त होती है। कहा जाता है कि कभी इस मंदिर के परिक्रमामार्ग की दीवारें इस तरह के चित्रों से सजी हुई थीं।

लेकिन इस से एक बात स्पष्ट होती है कि शिल्पकला के आश्रयदाता रहनेवाले राजा चित्रकारों के भी आश्रयदाता थे और सबसे अहम बात यह है कि उस समय चित्रकला भी इतनी विकसित थी कि इतने बड़े चित्र दीवारों पर बनाये जाते थे।

इस मंदिर में भगवान शिव विभिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं। फ़िर कभी वे अपनी पत्नी पार्वतीजी और पुत्र स्कन्द अर्थात् कार्तिकेय के साथ सुकून से बैठे हुए दिखायी देते हैं, तो कहीं पर उनकी लीलाओं को चित्रित किया गया है। शिवजी की इन लीलाओं में माता पार्वती के साथ साथ शिवजी के साथ हमेशा रहनेवाले शिवगणों से भी हमारी मुलाक़ात होती है। इतना ही नहीं, बल्कि नृत्य करनेवाले भगवान शिव भी यहाँ पर दिखायी देते हैं। पल्लव राजा देवी के उपासक रहने के कारण इस मंदिर में माँ दुर्गा के दर्शन भी होते हैं।

इस मंदिर की अन्य विशेषताओं के साथ ही उसका विमान यानि कि मंदिर का शिखर भी देखने लायक है।

कांची में इन प्रमुख मंदिरों के साथ ही कई छोटे-बड़े मंदिर भी है। उनमें से कुछ मंदिर बहुत पुराने जमाने से विद्यमान हैं। उनमें महाविष्णु के वामन अवतार, कूर्म अवतार इन अवतारों को दर्शानेवाले मंदिर भी हैं और देवों के सेनापति कार्तिकेय-स्कंद के मंदिर भी यहाँ है। इन मंदिरों की विशेषता यह है कि आज भी इनकी स्थिति बहुत अच्छी है। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि उस समय का निर्माण कितना म़जबूत होगा।

इस ‘नगरेषु कांची’ के हर एक मंदिर को देखना हमारे लिए प्रॅक्टिकली मुमक़िन नहीं है। इसीलिए कांची के इन प्रमुख मंदिरों के दर्शन के साथ ही अपनी इस कांची की यात्रा को समाप्त करते हैं।

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