आंतर्राष्ट्रीय साज़िश के कारण भारत का अवकाश कार्यक्रम प्रलंबित

‘इस्रो’ के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी का आरोप

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पिछले हफ़्ते पूरी तरह भारतीय बनावट के ‘क्रायोजेनिक ईंजन’ के परीक्षण में भारत को महत्त्वपूर्ण सफलता मिली है। इससे भारत अब भारी वज़न के उपग्रह भी भारतीय बनावट के रॉकेट प्रक्षेपक की सहायता से अवकाश में भेज सकता है। ‘भारत को यह सफलता १२ वर्ष पहले ही मिल चुकी होती। लेकिन भारत आंतर्राष्ट्रीय ‘अवकाशशक्ति’ न बन पायें, इस हेतु ‘आंतरराष्ट्रीय साज़िश’ रची गयी थी’ ऐसा दावा इस्रो के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ने किया है।

पिछले हफ़्ते भारत की अवकाश अनुसंधान संस्था (इस्रो) ने महेंद्रगिरी स्थित ‘प्रॉपल्शन कॉम्प्लेक्स’ में भारतीय बनावट के क्रायोजेनिक ईंजन की ‘हॉट टेस्ट’ ली। ६३५ सेकंडों के लिए किया गया यह परीक्षण सफल हुआ था। यह भारतीय अवकाश अनुसंधान क्षेत्र को मिली बड़ी सफलता मानी जा रही है। इससे भारतीय बनावट के ‘जीएसएलव्ही मार्क-३’ इस रॉकेट प्रक्षेपक की, भारी उपग्रह का अवकाश में वहन करने की क्षमता दुगुने से बढ़ गयी है। ‘जीएसएलव्ही मार्क-३’ द्वारा अब चार टन से अधिक वज़न के उपग्रह भी अवकाश में भेजे जा सकते हैं। इसलिए भारत भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया है।

इस समाचार की पार्श्वभूमि पर, इस्रो के पूर्व प्रकल्प संचालक एस. नांबी नारायण ने खलबलीजनक खुलासा किया है। सन १९८० में नांबी नारायण के कार्यकाल में ही ‘लिक्वीड फ़्युअल रॉकेट’ के इस्तेमाल की शुरुआत भारत ने की थी। फ़िलहाल इस्रो द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा ‘विकास ईंजन’, ‘चंद्रयान’ और ‘मंगलयान’ इन मुहिमों में इस्तेमाल किया गया ईंजन, ये भारत ने फ़्रान्स के सहयोग से किये हुए अनुसंधान के परिणाम हैं। सन १९९१ में इस्रो के ‘जीएसएलव्ही’ के लिए यंत्रणा विकसित करने के लिए रशिया के साथ समझौता किया गया था। लेकिन यह समझौता अंजाम तक नहीं पहुँच पाया, क्योंकि अमरीका ने रशिया पर प्रचंड दबाव डाला था। भारत के इस कार्यक्रम की बाग़डोर सँभालनेवाले नांबी नारायण को सन १९९४ में ‘भारत के रॉकेट कार्यक्रम की गोपनीय जानकारी बेचने का’ आरोप लगाकर ग़िरफ़्तार किया गया था। इस कारण रशियन अवकाशसंस्था के साथ हुआ समझौता भी ख़ारिज़ कर दिया गया। ये सारे आरोप झूठे होने की बात बाद में स्पष्ट हुई थी।

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