एडवर्ड विल्सन

पृथ्वी पर जीवसृष्टि कैसे उत्पन्न हुई, इस बात का उत्तर अब तक विज्ञान भी नहीं दे पाया है। परन्तु जीवसृष्टि का उद्गम एवं विकास काफी अधिक नैसर्गिक परिस्थितियों पर ही निर्भर करता है। यही विचार कुछ भिन्न धरातलों पर शास्त्रीय रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनमें प्रयोग, निरीक्षण, सिद्धांत एवं ज्ञान को मिलाकर सोवीओ बायोलॉजी नामक एक नयी शाखा का जन्म हुआ। इस शाखा के जनक के रूप में संशोधनकर्ता एडवर्ड विल्सन को जाना पहचाना जाने लगा।

edward wilson- एडवर्ड विल्सन

एडवर्ड ओस्बोर्न विल्सन का जन्म १० जून १९२९ के दिन बर्निंगहॅम नामक शहर में हुआ था। इनकी बाल्यावस्था के दौरान ही इनके माता-पिता विभक्त हो गए थे। पिता की सरकारी नौकरी में अकसर होनेवाले तबादले के कारण विल्सन की शिक्षा विभिन्न प्रकार के सोलह स्कूल में से होते हुए पूरी हुई थी। निरंतर होते रहनेवाले तबादले के कारण स्कूली जीवन के अन्तर्गत एडवर्ड विल्सन के पास गहरे मित्र नहीं थे। शायद इसी कारण उनकी मित्रता कीट, पतंगों, चींटियों आदि के साथ अधिक गहरी हो गई। यही कारण है कि आगे चलकर कीटकों आदि पर गहन अध्ययन करने के लिए उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने का निश्चय कर लिया। लेकिन आर्थिक परिस्थिति अच्छी न होने के कारण उनके लिए विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था। इस परिस्थिति से रास्ता निकालने के लिए उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे फ़ौज में भर्ती होंगे। फ़ौज में काम करके पैसे इकठ्ठा करने की योजना तो उन्होंने बना ली, परन्तु आँखों की किसी परेशानी के कारण फ़ौज में सेवा करने की योजना सफल नहीं हो सकी। फिर भी उन्होंने हार न मानते हुए अध्ययन करने की इच्छा रखते हुए अन्य किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने हेतु अपना प्रयास जारी रखा। आखिरकार अलाबामा विश्वविद्यालय में फीज़ कम होने के कारण और उनकी परिस्थिति के अनुकूल होने के कारण महत्प्रयत्नों से उन्होंने वहाँ पर प्रवेश प्राप्त कर लिया।

निसर्गशास्त्र में उन्हें बचपन से ही लगाव रहा। बचपन में मछली पकड़ते समय चोट लग जाने से उनकी दाहिनी आँख की दृष्टि पर इसका बुरा परिणाम हुआ था। उम्र के सोलहवें वर्ष से ही कीटकतज्ञ बनने का स्वप्न उन्होंने देख रखा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में कीटकों को पकड़ने का चाप मिलना दुर्लभ हो गया। इस समस्या का समाधान करने के लिए उन्होंने अपना मोर्चा चींटियों की दिशा में घुमाकर अपना संशोधन आरंभ कर दिया। इसके पश्चात् चींटिंयों की प्रजातियों के अध्ययनकर्ता के रूप में एडवर्ड विल्सन ने प्रसिद्धि प्राप्त की।

A June 10, 1991 photo of Edward O. Wilson, co-author of "The Ants," which won the Pulitzer Prize for general non-fiction in 1991. (AP photo/stf)

बाल्यावस्था में निसर्ग के सान्निध्य में भटकते फिरने का पागलपन तो उनके साथ था ही। तितलियों आदि को पकड़ने के लिए वे वनों-जंगलों आदि में भटकते रहते थे। एक बार रास्ते में पेड़ की एक बड़ी सी डोर टूटकर नीचे गिर गयी थी। उसकी एक डंठल उन्होंने खींचकर निकाल दी। क्या आश्चर्य उसमें से हजारों की मात्रा में चींटियां बाहर निकल पड़ी, वातावरण में सर्वत्र घासीचाय की खुशबू फ़ैल गईं। इस कारण ही उत्तर अमेरिका में काफी बड़े पैमाने पर प्राप्त होनेवाले ‘अॅकॅथोमायॉप्स’ नामक जाति के चीटिंयों की वसाहत (बस्ती) है, यह बात ध्यान में आयी। ये चीटियाँ घबराकर यहाँ-वहाँ भाग रही थीं। यह घटना उनके जीवन को बदल देने में कारण बनी।

१९५१ में एक मित्र के आग्रह के कारण विल्सन हॉवर्ड में गए। डीएनए की संरचना का शोध लगानेवाले जेम्स वॅटसन उस दौरान हॉवर्ड में ही थे। उनके संशोधन की दिशा भिन्न थी। इ.स. १९५९ में विल्सन ने चीटियों के शरीर में होनेवाली एवं संपर्कस्राव निर्माण करनेवाली ग्रंथी की खोज की। इस रासायनिक संपर्क प्रबंध के कारण ‘फोरोमोंस’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। कीटकों में होनेवाले इस रासायनिक संपर्क पर उन्होंने जैव गणित (बायोमॅथेमेटिशियम) बोसर्ट के साथ मिलकर जीवशास्त्र पर गहराई से अध्ययन किया। इसके अलावा कुछ विशेषज्ञों के साथ मिलकर ‘टापू पर रहनेवाले प्राणी’ इस विषय पर मार्गदर्शन करनेवाला एक सिद्धांत प्रस्तुत किया। किसी टापू पर अथवा किसी एकाकी स्थान पर अधिक से अधिक कितने प्राणि रह सकेंगे इस बात को उदाहरणसहित प्रस्तुत किया।

एक बार विल्सन फ्लोरिडा के दलदलवाले प्रदेश में निरीक्षण करने हेतु निकले थे, उसी दौरान किसी अन्य संशोधक द्वारा कीटकों के संबंध में लिखा हुआ लेख उन्होंने पढ़ा। सभी कार्यक्षम चीटियाँ क्लोन के समान जन्म लेती हैं और यही कारण है कि वे एक-दूसरे के साथ काफी करीबी होती हैं। इस लेख को पढ़ने पर विल्सन के विचारों को और भी अधिक चालना मिली। इसी के आधार पर १९७५ में उनके द्वारा लिखा गया ‘सोशिओ बायॉलॉजी’ नामक ग्रंथ प्रसिद्ध हुआ।

‘सोशिओबायॉलॉजी : द न्यू सिंथेसिस’ नामक इस ग्रंथ के द्वारा विल्सन ने स्वयं अपना अध्ययन प्रसिद्ध किया। उनके कहेनुसार कोई भी सजीव उत्क्रांत की अवस्था में पर्यावरण को प्रतिसाद देते ही रहता है और साथ ही बदलते रहता है। उनमें होनेवाले घटकों का आपस में होनेवाला संबंध पर्यावरण के सापेक्ष में बदलते रहता है। उसी प्रकार समाज का अथवा झुंड में रहनेवाले घटकों का व्यवहार भी उनके ‘जीन्स’ पर निर्भर करता है। पक्षी, चीटियाँ, बंदरों एवं मानवी व्यवहार का भी समावेश विल्सन के का भय के कारण उत्पन्न होनेवाला गुण जीन्स के अनुसार अनुवांशिक होता है, इस प्रकार किया गया है। कुछ जीवशास्त्री उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे।

विल्सन के इस ग्रंथ की दुनिया के कोने-कोने से प्रशंसा की गई। अमेरिका की ओर से ‘नेशनल मेडिकल ऑफ सायन्स’ नामक विज्ञान क्षेत्र की श्रेष्ठ उपाधि उन्हें प्रदान की गई। ‘सोशिओबायॉलॉजी’ के जनक के रूप में विल्सन की दुनिया भर में अपनी पहचान बन गयी। इसी के साथ इनके सिद्धांत पर भी काफी बड़े प्रमाण में आलोचनाएँ की गईं। वंशविद्वेषी, सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार अहितकारक इस प्रकार की आलोचनाएँ भी उन पर की गई थीं। विल्सन व्याख्यान देने के लिए गए तो उनके विरोध में निदर्शन प्रस्तुत किए जाने लगे। बर्फ के टुकड़ों का ठंड़ा पानी भी उनके सिर पर डाल दिया गया।

विल्सन के आस पास में विशेष तौर पर बनाये गए प्लास्टिक के डिब्बों में दुनिया भर के विविध स्थानों से लायी गयीं चींटियों की कॉलनी देखने को मिलती है। विल्सन कहते हैं ‘इन वसाहतों का निरीक्षण एवं अध्ययन करते समय ऐसा प्रतीत होता हैकि मानों कोई सुंदर स्विस घड़ी खुल गई है। घड़ी के ही समान नियमबद्धता एवं नियमितता ये दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इन चीटियों में दिखाई देती हैं।

‘मैं वर्कोहोलिक हूँ।’ इस बात को विल्सन स्वयं कबूल करते हैं। उनसे संबंधित मज़ेदार बात तो यह है कि एक ही समय में कविता, वैचारिक विषय एवं जोरदार मारधाड़ जैसे विषयों से संबंधित पुस्तकें पढ़ने का उन्हें शौक था। संशोधन, अध्यापन आदि के बाद शेष बचा समय ये लिखने पढने में व्यतीत करते हैं। दस ग्रंथ एवं साढ़े तीन सौ शोध निबंधों की रचनाएँ उन्होंने की है। जी हाँ, इन सब के रचनाकार हैं एडवर्ड विल्सन।

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