सर डेव्हिड ब्रुस्टर (१७८१-१८६८)

इंग्लैड के राजा चौथे विल्यम उमदा व्यक्तित्व के होने कारण उन्होंने ड्यूक ऑफ डेव्हनशायर की तलवार लेकर डेव्हिड ब्रुस्टर के कांधे पर रखकर उन्हें अपने सरदार-दल में शामिल कर लिया। आजकल तो यह सब कुछ काफी उत्साह के साथ किया जाता है, मग़र फिर भी विज्ञान एवं वैज्ञानिकों को राजमान्यता प्राप्त करानेवाली यह प्रथम घटना होने के कारण इस समारोह का अपना एक विशेष महत्त्व है। सर डेव्हिड ब्रुस्टर को सेंट पिटर्सबर्ग, व्हिएन्ना, कोपनहेगन, स्टॉकहोम, ब्रुसेल्स, गाँटिजेन, मॉडेना, बर्लिन, वॉशिंग्टन ऐसे अनेक महाविद्यालयों ने एवं विज्ञान संस्थाओं ने सम्मानपूर्वक सदस्यत्व प्रदान किया था। शाही सैन्य की ओर से भी समय-समय पर उन्हें गौरावान्वित किया गया।

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इंग्लैड एवं स्कॉटलैंड की सरहद के पास होनेवाले जेडबर्ग गाँव के एक छोटे से विद्यालय के प्रमुख का बेटा इतनी अधिक मान-सम्मान, ख्याति प्राप्त कर लेगा ऐसा किसी ने कभी सोचा भी नहीं था। डेव्हिड धर्मसेवक बने यह उनके पिता की दिली ख्वाहिश थी। २३ वर्ष में ही धर्मगुरु की शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने अपने पिता की इच्छा पूरी कर दी, लेकिन आगे चलकर किस्मत उन्हें कुछ अन्य ही मार्ग पर ले गई। उसी दौरान डेविड अपनी दूरदर्शी दुर्बिण बनाकर आकाश को निहारा करते थे। प्रकाशकीय साधन, प्रकाश इनका निरीक्षण करना, उनका अध्ययन करना यही उनका शौक था। जेम्सविच नामक खगोल वैज्ञानिक का काफ़ी अधिक प्रभाव डेविड पर पड़ा था। परावर्तन एवं ध्रुवीकृत प्रकाश के संबंध में ही उनका संशोधन अव्वल दर्जे का होने के कारण उम्र के केवल ३४ वें वर्ष में ही उन्हें रॉयल सोसायटी का मानद सदस्यत्व प्राप्त हुआ। फ्रेंच इन्स्टिट्यूट ने यूरोप में एक महत्त्वपूर्ण संशोधन करने के कारण १५०० फ्रँक उन्हें इनाम के तौर पर प्रदान किये और साथ ही उन्हें तीन सुवर्ण पदक भी प्राप्त हुए।

१८१६ में घटित हुई यह घटना है। प्रयोग करते-करते उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि आयनों को यदि विशेष प्रकार से जोड़ दिए जाये तो विविध प्रकार की चित्रविचित्र आकृतियाँ दिखाई देती हैं, जैसे कि अनेक वर्षों तक बच्चों का मनोरंजन करनेवाला ‘कॅलिडोस्कोप’ (Kaleidoscope) उस समय के कायदे-कानून का अहसास न होनेवाले ब्रुस्टर इस संदर्भ में होने वाले अज्ञान के कारण पीछे ही रह गए। कानून के अनुसार उनके पेटंट दर्ज करने के अधिकार को नकार दिया गया। इसके पश्‍चात् ब्रुस्टर द्वारा किए जानेवाले सार्वजनिक प्रदर्शन के तीन महीने पश्‍चात् दो लाख से अधिक ‘गुणित प्रतिमा दर्शक’ पॅरिस, लंडन जैसे स्थानों पर बेचे गए।

इसके पश्‍चात् लोगों को विज्ञान का महत्त्व समझाना इसी सेवाव्रत का उन्होंने स्वीकार किया। एडिन्बरो एनसायक्लोपिडीया के प्रमुख संपादकीयत्व का कार्यभार उन्होंने संभाला। उसी प्रकार से एंडिबरो फिलॉसॉफिकल जर्नल की संपादक सभा के एक सदस्य थे। इन सबमें से भी समय निकालकर संशोधन को व्यापारी, सामाजिक एवं व्यावसायिक महत्त्व प्राप्त करने के लिए कार्यरत रहे। उस दौरान समाज में संशोधन का क्या महत्त्व है, साथ ही समाज के लोगों को कम से कम विज्ञान की जानकारी तो होगी ऐसा कहना भी हास्यास्पद लगता था। विज्ञान यह समाजपयोगी होना ही चाहिए इस विचार को उन्होंने गंभीरता से लिया। १८२१ में ‘रॉयल स्कॉटिश सोसायटी ऑफ आर्टस् अँण्ड सायन्स’ की स्थापना की। १८६७ में तो ‘जनहित की ओर कोई विशेष ध्यान भी नहीं दिया जाता था, साथ ही जनता के पैसों को व्यर्थ गँवाया जा रहा था, विज्ञान की ओर ध्यान देने के लिए किसे के भी पास समय नहीं था’ इन्हीं शब्दों से उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत की।

१८५१ में ब्रुस्टर ने ‘विज्ञान’ इस विषय पर बड़ी प्रदर्शनी रखी थी। सामान्य लोगों को विज्ञान समझाना यह उनके जीवन का उद्देश्य था। प्रिन्स अल्बर्ट ने कोहिनूर हिरे के संबंध में उसके पहलु पुन: तराशने के बारे में सलाह ली । गणक यंत्र की आद्य-जनक मानी जानेवाली अ‍ॅडा बायरन ने परलोक विद्या एवं उससे संबंधित जानकारी अर्थात सच-झूठ आदि के बारे में जानने के लिए ब्रुस्टर की सहायता ली। इन सभी जानकारियों के साथ प्रकाश शास्त्र के संशोधन एवं उसका व्यावहारिक उपयोग इस दृष्टिकोन से उनका प्रयोग चल ही रहा था। बहुद्देशीय शीशे तैयार करना, रत्नों की काँट-छाट करना, दीपस्तंभ का प्रकाश और भी अधिक दूर तक कैसे फेंका जा सकता है, इस प्रकार का उनका संशोधन कार्य निरंतर चल ही रहा था। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान ३१५ शोधनिबंध लिखे। सामान्य जनों के लिए अनगिनत लेख एवं लेखमालाएँ लिखीं। ‘ज्ञान बाँटने से बढ़ता है’ इस बात का उन्हें पूरा विश्‍वास था। गाँव-देहात आदि के किसानों के लिए विज्ञान का उपयोग उन्होंने किया। रात्रि के समय दीन-दुर्बलों के लिए, जिज्ञासु विद्यार्थियों के लिए दूरदर्शी का उपयोग करके वे उन्हें आकाश दर्शन करवाते थे। खगोलशास्त्र से संबंधित उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं।

विज्ञान को सामाजिक एवं राजमान्यता प्राप्त करवाने में ब्रुस्टर का काफी योगदान रहा है और इसके लिए विज्ञान जगत् सदैव उनका ऋणी रहेगा।

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