चंबा भाग-३

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राजधानी के रूप में चंबा की स्थापना होने के बाद इस शहर में राजधानी के दर्जे की कईं वास्तुओं का निर्माण विभिन्न शासकों के शासनकाल में हुआ। उन्हीं में से कुछ मंदिरों को हम देख रहे हैं। आइए तो पिछले सप्ताह में शुरू किये हुए इस सफ़र को जारी रखते हैं।

पिछले ह़फ़्ते में हम इनमें से दो प्रमुख मंदिरों की एक झाँकी देख चुके हैं। अब उन्हीं में से एक प्रमुख मंदिर रहनेवाले ‘चामुण्डा देवी’ के मंदिर को देखते हैं।

यह मंदिर ऊँचाई पर बसा है और यह चंबा से थोड़ा सा दूर भी है। जिस समय हम इस मंदिर में प्रवेश करते हैं और पीछे की ओर एक नज़र डालते हैं; तब अधिकांश चंबा शहर हमें दिखायी देता है।

इस मंदिर में कलात्मकता से ऩक़्क़ाशीकाम भी किया गया है। इस मंदिर में काली माता अपने विभिन्न आयुधों के साथ विराजमान हैं। हरी भरी वादियों में ऊँचाई पर बसे इस मंदिर का निर्माण लगभग ७०० वर्ष पूर्व किया गया है, ऐसा कहा जाता है।

चंबा से कुछ ही दूरी पर यानि कि लगभग ३ कि. मी. पर स्थित इन चामुण्डा देवी के दर्शन करने के बाद आइए, फिर एक बार मुख्य चंबा शहर में प्रवेश करते हैं।

चंबा, इतिहास, अतुलनिय भारत, वज्रेश्वरी मंदिर, हरिराय, भारत, भाग-३चंबा में स्थित ‘वज्रेश्‍वरी’ का मंदिर यह बहुत ही प्राचीन माना जाता है, लगभग १००० वर्ष पुराना। वज्रेश्‍वरी को विद्युत्-शक्ति की देवता माना जाता है। इस मंदिर का निर्माण भी शिखर पद्धति से ही किया गया है। देवी वज्रेश्‍वरी यहाँ की प्रमुख आराध्य हैं।

शिखर पद्धति की स्थापत्यशैली यह चंबा के मंदिरों की ख़ासियत है। इनकी दूसरी ख़ासियत यह है कि इनमें से कुछ मंदिरों में लकड़ियों पर भी ऩक़्क़ाशीकाम किया गया है और इतनी सदियों के बाद आज भी वह ऩक़्क़ाशीकाम सुस्थिति में है। इनमें से कुछ मंदिर पूरी तरह लकड़ी के बने हुए हैं, वहीं कुछ पत्थर के। उनके निर्माण के बाद इतने समय के बाद भी वे सुस्थिति में हैं। ये मंदिर बहुत विशाल तो नहीं हैं, लेकिन शानदार अवश्य हैं। पहाड़ियों में बसनेवाले मानव का शांत और ऋजु स्वभाव ही मानो जैसे इन मंदिरों की रचना में उतरा हुआ है।

पहाड़ी इला़के में रहनेवाले मानवों का जीवन शांतिपूर्ण रहता है और शहर की भागदौड़ यहाँ नहीं रहती। चंबा में हमें इस बात का अनुभव प्राप्त होता है।

हर एक स्थान की अपनी एक सुन्दरता रहती है। चंबा शहर तो कुदरती खूबसूरती की एक मिसाल है। सैलानियों को यहाँ की आबोहवा में पूरी तरह घुला हुआ कुदरती संगीत कदम कदम पर सुनायी देता है। इसीलिए यहाँ पर आने के बाद मन और शरीर तरोताज़ा होकर खुशी से झूम उठते हैं और साथ ही यहाँ की कुदरत के साथ सैलानियों का एक अटूट गहरा रिश्ता बन जाता है।

ख़ैर! चंबा में आज भी सालाना मेला लगता है और प्रतिवर्ष उत्सव भी मनाये जाते हैं। इनमें शामिल होने के लिए आसपास के देहातों के निवासी भी यहाँ पर आते हैं। दर असल ये मेलें और सालाना उत्सव पुराने ज़माने के लोगों के एकदूसरे के साथ संपर्क करने के, घुलमिलने के, विचारों के आदानप्रदान के और आनन्दप्राप्ति के प्रमुख साधन थे। समय की धारा में कईं स्थानों से इनके नामोंनिशान मिट गये; लेकिन आज भी कईं जगह इन परंपराओं का निर्वाह किया जाता है और आज के युग के मानव के लिए यह दिलचस्पी का विषय बन गया है। क्योंकि समय के बदल जाने के बावजूद भी लोगों को आनन्द प्रदान करने का इन मेलों का और सालाना उत्सवों का बाना आज भी बरक़रार है।

इस सविस्तार विवेचन का उद्देश्य है – चंबा के ‘सुई माता’ के मंदिर में प्रतिवर्ष लगनेवाले मेले से आपको परिचित कराना। हर वर्ष चैत्र और वैशाख के महीने में यह मेला लगता है।

कहा जाता है कि इस मंदिर की स्थापना राजा साहिल वर्मा ने उनकी पत्नी की याद में की थी। इस संदर्भ में एक जनश्रुति भी मशहूर है।

साहिल वर्मा ने जब चंबा नगर को बसाया, तब इस नगर में जल का प्रबंध करने के लिए उन्होंने आवश्यक रचना का निर्माण करने के बावजूद भी उसमें से जल नहीं बह रहा था। इसकी वजह का पता लगाने की काफ़ी कोशिशें करने के बाद भी उन्हें किसी भी भौतिक कारण का पता नहीं चला। अन्त में इसके उपाय के रूप में राजा की पत्नी ने यानि कि रानी ने स्वयं बलिदान करने का तय किया। अपने निश्‍चय के अनुसार रानी ने इस जगह स्वयं का बलिदान किया और राजा द्वारा बनायी गयी नहर में से जल की धारा चंबा नगर की ओर बहने लगी।

इस जनश्रुति की सत्य-असत्यता चाहे जो भी हो, लेकिन इस लोककथा का यहाँ के जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव है कि चैत्र-वैशाख में लगनेवाले सुई माता के मेले में महिलाएँ रानी द्वारा किये गये बलिदान के लिए उनकी प्रशंसा करनेवाले गीत गाती हैं और उनके प्रति सम्मान की भावना अभिव्यक्त करती हैं।

चंबा, इतिहास, अतुलनिय भारत, वज्रेश्वरी मंदिर, हरिराय, भारत, भाग-३हरिराय का मंदिर’ यह भी प्राचीन मंदिर है। बीच के समय में नयी वास्तुओं की भीड़ के बीच में यह मंदिर कुछ खो सा गया था। लेकिन बाद में वह पुन: एक बार ज्ञात हो गया।

‘हरिराय’ यह श्रीविष्णु का मंदिर है। पत्थरों से बने इस मंदिर का निर्माण शिखर पद्धति से किया गया है। विष्णु की ब्राँझ की इस मूर्ति के ३ मुख हैं और यही इस मूर्ति और मंदिर की ख़ासियत कही जा सकती है।

महाविष्णु के श्रीकृष्ण इस अवतार का मंदिर ‘बन्सी-गोपाल’ इस नाम से विख्यात है। यहाँ पर बन्सीधारी के रूप में श्रीकृष्ण भगवान विराजमान हैं।

हिमाचल जैसे पहाड़ी इला़के में अथवा हिल स्टेशन में एक बात हमारा ध्यान आकृष्ट कर लेती है और वह है, दूर दूर तक फैला हुआ एकाद विशाल मैदान, जो उस स्थान में अधिकतर मध्यवर्ती रहता है।

ऐसा लंबाचौड़ा मैदान मेलों, उत्सवों तथा विभिन्न खेलों के लिए बनाया गया प्रमुख स्थल रहता है। अधिकांश हिल स्टेशन ऊँचें पहाड़ों पर या पहाड़ियों की शृंखलाओं में बसे हुए होते हैं और इसीलिए वहाँ तक जानेवालीं सड़कों में कईं मोड़ होते हैं। फिर इन जैसे स्थानों पर समतल मैदानों को महत्त्वपूर्ण माना जाना स्वाभाविक ही है। ऐसे मैदान वहाँ के निवासियों के रोज़मर्रा के जीवन के साथ भी जुड़े हुए होते हैं और दिन भर में एकाद बार वे वहाँ पर जाते ही हैं।

चंबा, इतिहास, अतुलनिय भारत, वज्रेश्वरी मंदिर, हरिराय, भारत, भाग-३चंबा की कईं प्रमुख घटनाओं का केंद्रस्थान है, ‘चौगन/चौगान’। चौगन यह लगभग आधी मैल की लंबाई और ८ यार्ड की चौड़ाई वाला विशाल हरा भरा मैदान है।

कहा जाता है कि पुराने समय में यह एक अखंड मैदान नहीं था, बल्कि यहाँ पर पाँच भूभाग थे। १९वीं सदी के अन्त में आवश्यक परिवर्तन कर इस विशाल मैदान का निर्माण किया गया। अँग्रेज़ों के शासनकाल में यहाँ पर क्रिकेट का खेल खेला जाता था और लोगों के मिलने का भी यह पसंदीदा स्थान बन गया।

इसी चौगन में लगभग एक सप्ताह तक ‘मिंजर’ नाम का मेला लगता है। दशहरे के बाद अप्रैल तक ‘चौगन’ को मेंटेनन्स कार्य के लिए बंद रखा जाता है। चंबावासियों के साथ साथ सैलानियों का भी चौगन यह पसंदीदा स्थान है।

कोई भी राजधानी, फिर वह चाहे पुराने ज़माने की भी क्यों न हो, वहाँ पर राजाओं का वास्तव्य रहना तो स्वाभाविक ही है और राजा की राजधानी में राजा के महल, राजमहल और क़िलें तो रहेंगे ही। हालाँकि समय के साथ साथ राजा तो नहीं रहे, लेकिन उनके द्वारा बनाये गये क़िलें, महल और राजमहल ये कईं स्थानों पर सुस्थिति में पाये जाते हैं।

चंबा के शासकों ने भी यहाँ पर रहने के लिए दो महलों का निर्माण किया। ‘अखंड चंडी पॅलेस’ और ‘रंग महल’ इन नामों से ये दो महल जाने जाते हैं।

चंबा के राजाओं के निवासस्थान के रूप में ‘अखंड चंडी पॅलेस’ का निर्माण किया गया। राजा उमेदसिंह ने साधारणत: १८वीं सदी के मध्य से लेकर १८वीं सदी के उत्तरार्ध तक इस महल का निर्माणकार्य किया और आगे चलकर राजा शामसिंह ने इस पॅलेस के पुनर्निर्माण और पुनर्रचना का कार्य किया। इस काम में उन्होंने अँग्रेज़ इंजिनियरों से सहायता ली। यहाँ के दरबार हॉल का निर्माण १९वीं सदी के उत्तरार्ध में कॅप्टन मार्शल ने किया और इसीलिए इसे ‘मार्शल हॉल’ भी कहा जाता है। आगे चलकर इसी महल के आसपास राजा भूरीसिंह ने रानियों के निवासस्थान का यानि कि रनिवास का अर्थात् रानीमहल का निर्माण किया।

इस पॅलेस का निर्माणकार्य विभिन्न कालखंडों में होने के कारण इसकी वास्तुरचना पर संबंधित समय की वास्तुशैली का असर साफ़ साफ़ दिखायी देता है।

इस महल के इतिहास और दर्शनी हिस्से को तो हम देख ही चुके हैं; अब अगले लेख में हम इसके अन्तरंग में प्रवेश करेंगे और साथ ही रंगबिरंगी ‘रंग महल’ की भी सैर करेंगे।

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