रक्त एवं रक्तघटक – ५९

रक्त के बारे में अधिकांश जानकारी हम प्राप्त कर चुके हैं। पिछले दो लेखों में हमनें हमारे विभिन्न रक्त समूहों के बारे में जानकारी प्राप्त की। इस जानकारी में हमने देखा की किसी भी व्यक्ति को उसके रक्तसमूह से मेल खानेवाला रक्त ही चढ़ाना पड़ता है। रक्त से मेल खानेवाला रक्त इस से क्या तात्पर्य है? सीधी भाषा में इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी व्यक्ति को उसके रक्तसमूह से मेल खानेवाला रक्त ही चढ़ाना पड़ता है। A Rh पॉझिटिव्हवाले व्यक्ति को A Rh पॉझिटिव्ह, B Rh पॉझिटिव्ह व्यक्ति को B Rh पॉझिटिव्ह रक्त ही देना पड़ता है। इसका वैज्ञानिक कारण आसान है।

रक्तसमूह

A Rh पॉझिटिव्ह व्यक्ति के प्लाझ्मा में अँटि B अँटिबॉडीज होती हैं। यदि ऐसे व्यक्ति को B रक्तसमूहवाला रक्त चढ़ा दिया जाये तो क्या होगा? चढ़ाये गये रक्त की लाल पेशियों पर रहनेवाले B अँटिजेन और A पॉझिटिव्ह व्यक्ति के रक्त की अँटि B अँटिबॉडिज का रिअ‍ॅक्शन हो जायेगा। इस रिअ‍ॅक्शन के फ़लस्वरूप चढ़ायें गये रक्त की लाल पेशियों का अग्लुटिनेशन होकर छोटे-छोटे गोले बन जायेंगे। चढ़ाये गये B समूह के रक्त में अँटि A अँटिबॉडिज होती हैं। तो फ़िर क्या जिस व्यक्ति के रक्त चढ़ाया गया है, उस व्यक्ति की रक्तपेशियों की A अँटिजेन के साथ रिअ‍ॅक्शन होता है? इसका उत्तर है – नहीं। इसका कारण यह है कि व्यक्ति के शरीर के रक्त की कुल मात्रा की तुलना में चढ़ाये गए रक्त की मात्रा का़फ़ी कम होती हैं। इस रक्त का प्लाझमा व्यक्ति के रक्त में मिलकर डायल्यूट हो जाता है। फ़लस्वरूप अँटि A अँटिबॉडीज की मात्रा इतनी नगण्य हो जाती है कि उनका रिअ‍ॅक्शन A अँटिजेन के साथ नहीं होता।

मेल न खानेवाले रक्त को चढ़ाने के बाद शरीर में होनेवाली क्रियाओं को ‘ट्रान्सफ्यूजन रिअ‍ॅक्शन्स’ कहते हैं। इस रिअ‍ॅक्शन के दौरान बड़ी मात्रा में लाल रक्त पेशियां नष्ट होती हैं। इसे हिमोलायसिस अथवा हिमोलिसिस कहते हैं। हिमोलिसिस तुरंत और कालांतर में, ऐसे दो चरणों में होती हैं। जैसा कि हमने पहले देखा है इसके एक परिणाम स्वरूप रक्त में बिलिरूबिन की मात्रा बढ़ जाती है। ट्रान्सफ्यूजन रिअ‍ॅक्शन का सबसे ज्यादा धोखादायक परिणाम मूत्रपिंड पर होता है। रिअ‍ॅक्शन के कारण मूत्रपिंडों के कार्य रुक जाते हैं। इसे अ‍ॅक्यूट रिनल शटडाऊन कहते हैं। मूत्रपिडों के कार्य रुकने के लिए तीन बातें कारणीभूत होती हैं –

१) हिमोलिसिस के कारण निकली हुयी कुछ टॉक्सिन्स (toxins) मूत्रपिंडों की रक्तवाहनियों को आंकुचित कर देती हैं।

२) लाल रक्तपेशियों की कमी और टॉक्सिन्स के कारण सरक्युलेटरी शॉक तैयार हो जाता है और मूत्रपिंडों में रक्तप्रवाह और भी कम हो जाता है। रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) कम हो जाता है।

३) लाल रक्तपेशियों से निकला हुआ हिमोग्लोबिन मूत्रपिंडों की छोटी नलिकाओं में घुस जाता है तथा नलिकाओं का मार्ग बंद कर देता है। जिसके कारण पेशाब का बनना ही बंद हो जाता है।

उपरोक्त परिस्थितियों में उचित उपचार करने पर यदि मूत्रपिंड पुन: कार्यरत हो जाये तो व्यक्ति बच जाता हैं। अन्यथा वह व्यक्ति सात से बारह दिनों तक ही जीवित रह सकता हैं।

रक्त में होनेवाले अँटिजेन-अँटिबॉडी का रिअ‍ॅक्शन्स हमनें देखा। रक्त पेशियों पर जैसे अँटिजेन्स होते हैं वैसे ही अँटिजेन्स शरीर के विविध पेशी समूहों में भी होते हैं। पेशी समूह का रोपण (Tissue graft) अथवा अवयवों का रोपण (organ transplant) करते समय यह रिअ‍ॅक्शन होता है। अत: ऐसा रोपण असफ़ल होने की संभावना होती है। फ़िर भी डॉक्टर्स इस प्रकार का रोपण यशस्वी तरीके से करते हैं।

पेशीसमूह अथवा अवयवों का रोपण चार प्रकार से किया जा सकता है। दाता अवयव (Donor organ) अथवा पेशीसमूह कहाँ से लिया गया है, इसके अनुसार ही रोपण का प्रकार तय किया जाता है।

* ऑटोग्राफ्ट – इसमें जिस व्यक्ति में रोपण करना होता है, उसी के शरीर से ही पेशीसमूह अथवा अवयव निकालकर रोपण किया जाता है।
* आयसोग्राफ्ट – व्यक्ति के जुड़वे भाई से अवयव लिया जाता है। इसे आयसोग्राफ्ट कहते हैं।
* अलोग्राफ्ट – एक व्यक्ति का अवयव दूसरे व्यक्ति में रोपण किया जाता है। इसे अलोग्राफ्ट कहते हैं।
* झिनोग्राफ्ट – यदि किसी प्राणि के अवयव को मनुष्य के शरीर में रोपण किया जाता है तो इसे झिनोग्राफ्ट कहते हैं।

ऑटोग्राफ्ट और आयसोग्राफ्ट करने पर ही अँटीजेन- अँटिबॉडीज यानी इम्यून प्रतिक्रिया बिलकुल ही नहीं होती। इसे विपरित झिनोग्राफ्ट में ऐसा होने की शक्यता ज्यादातर होती है।

इम्यून रिअ‍ॅक्शन कम से कम होने की दक्षता लेकर किया गया अ‍ॅलोग्राफ्ट यशस्वी होते हैं। मूत्रपिंड, यकृत, हृदय इत्यादि का रोपण पाँच से पंद्रह वर्षों का टिकता है। इस रोपण के यशस्वी होने के लिए कुछ जाँचें की जाती हैं।

सबसे पहले रोपण से पूर्व दाता के शरीर की पेशी और जिस व्यक्ति के शरीर में रोपण करना है, उस व्यक्ति के शरीर की पेशियों की मैचिंग/टायपिंग की जाती है। रोपण के अयशस्वी होने के पीछे HLA अँटिजेन्स नामक अँटिजेन्स समूह कारणीभूत होता है। ये अँटिजेन्स सफ़ेद रक्त पेशियों पर भी होते हैं। इसीलिए जिस व्यक्ति में रोपण करना आवश्यक होता है, उस व्यक्ति के लिंफ़ोसाइट पेशियों पर के HLA अँटिजेन्स, दाता के लिंफ़ोसाइटस् पर से HLA अँटिजेन्स से मिलाकर देखे जाते हैं। इसे Tissue Typing कहते हैं। इन अँटिजेन्स के मेल खाने के बाद ही ‘दाता’ निश्‍चित किया जाता है।

इम्यून रिअ‍ॅक्शन को कम करने का दूसरा रास्ता है T लिंफ़ोसाइट पेशियों के निर्माण को रोकना अथवा उनके कार्यों को रोकना। इसके लिये कुछ विशिष्ट औषधियों एवं ग्लुकोकॉर्टिकॉइड नामक संप्रेरक का उपयोग किया जाता है। परन्तु इसका परिणाम उस व्यक्ति की प्रतिकार शक्ति पर होता है। प्रतिकार शक्ति के कम हो जाने पर ऐसे व्यक्ति को फ़ौरन जीवाणुबाधा हो जाती है।

प्रतिकार शक्ति पर प्रतिकूल असर न होकर इम्यून रिअ‍ॅक्शन को करना शास्त्रज्ञों के समक्ष बड़ी चुनौती है। इस क्षेत्र में संशोधन के अवसर उपलब्ध है। यह संशोधन यशस्वी होगा? ऐसा संभव हो जाने पर अवयवों का रोपण करके अनेकों के प्राण बचाये जा सकेंगे।
(क्रमश:)

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