भुवनेश्‍वर

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इस विद्यमान सृष्टी का निर्माण एक शक्ति ने किया है और साधारण मनुष्य उस शक्ति को ‘ईश्‍वर’ या ‘भगवान’ कहता है। आज तक इस पृथ्वी पर जितने धर्म या पन्थ हुए, उन सबने इस शक्ति को विभिन्न नामों द्वारा संबोधित किया। हर एक धर्म या पंथ ने ईश्‍वर को विभिन्न नाम दिएँ, ईश्‍वर की प्रार्थना करने के लिए विशेष वास्तुओं का निर्माण किया। इन वास्तुओं को मंदिर या प्रार्थनास्थळ के रूप में जाना जाने लगा। हमारे भारत में आज तक इस तरह से कई मंदिरों का निर्माण किया गया। स्थान, काल और हुकूमत इनके परिवर्तन के कारण मंदिरों के बाह्य स्वरुप में बदलाव होता रहा। इनमें से कुछ मंदिर काल के उदर में गायब हो गयें, कुछ आक्रमकों के आक्रमणों का शिकार हुएँ, वहीं इनमें से कुछ मंदिर इन सबसे सुरक्षित बचे रहे और आज भी अपनी नींव पर खडें है। ‘ओडिसा’, जिसे हम ‘ओरीसा’ कहते हैं, उस ओरीसा की ‘भुवनेश्‍वर यह नगरी ‘मंदिरों की नगरी’ या ‘मंदिरों का शहर’ इस विशेषण से जानी जाती है।

भारत को स्वतन्त्रता की प्राप्ती होने के बाद इसवी १९४८ में भुवनेश्‍वर को ओरीस की राजधानी का दर्जा प्रदान किया गया। उससे पहले ‘कटक’ यह ओरीसा की राजधानी थी।

पुराने समय में भुवनेश्‍वर यह कलिंग देश की राजधानी थी और इसी जगह सम्राट अशोक का कलिंग देश के साथ इतिहासविख्यात संग्राम हुआ।

कलिंग देश के चक्रवर्ती राजा खारवेल ने इसी नगरी की सीमा पर शिशुपालगड इस स्थान पर अपनी राजधानी की स्थापना की। इस तरह भुवनेश्‍वर को लगभग २००० वर्ष का इतिहास है।

कलिंग साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। अशोक ने कलिंग को परास्त तो किया, लेकिन वह संग्राम बहुत ही भीषण था और इस भीषण संग्राम के बाद ही अशोक ने बौद्ध धर्म का स्वीकार किया। यह कलिंग साम्राज्य बहुत ही प्राचीन था, क्योंकि महाभारत में भी कलिंग का वर्णन मिलता है।

खारवेल इस जैनधर्मी राजा ने इस नगरी को अपनी राजधानी बनाकर इस नगरी का विकास किया। खारवेल राजा ने भुवनेश्‍वर से काफ़ी करीब होनेवाले उदयगिरी नाम की पहाडी की गुफा में कुछ शिलालेखों की रचना की। इन शिलालेखों को हाथीगुफा शिलालेख कहते हैं। और इन शिलालेखों के द्वारा खारवेल राजा के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

ओरीसा पर कई वंशों के राजाओं ने शासन किया। मुघल, मराठा और अन्त में अंग्रेज़ों ने ओरीसा पर अपनी सत्ता प्रस्थापित की। अंग्रेज़ों ने ओरीसा प्रान्त को बिहार के साथ जोड दिया, लेकिन आगे चलकर इसवी १९३६ में बिहार और ओरीसा इन दो प्रान्तों को अलग-अलग कर दिया। मगर भुवनेश्‍वर को ओरीसा की राजधानी का दर्जा भारत की स्वतन्त्रता के बाद ही प्राप्त हुआ।

ऐसी मान्यता है कि भुवनेश्‍वर के बिन्दुसागर के आसपास छ: से सात हजार मंदिरों का निर्माण किया गया था। उनमें से लगभग ५०० मंदिरों के अवशेष आज बचे हुए हैं और १०० मंदिरों की स्थिती अच्छि है। निर्माण किये गये मंदिरों की संख्या को देखकर ही हम समझ सकते हैं कि भुवनेश्‍वर को ‘मंदिरों का शहर’ या ‘मंदिरों की नगरी’ क्यों कहते हैं।

भुवनेश्‍वर को जिस तरह पूर्व में वर्णित इतिहास है, उसी तरह इस स्थान से संबंधित पौराणिक कथाएँ भी हैं।

यह स्थान प्राचीन समय में ‘एकाम्रकानन’ इस नाम से पहचाना जाता था। क्योंकि यहॉं के वन में आम का एक ही पेड था। यह स्थान विष्णु का चक्रतीर्थ था। एक बार शिवजी के मन में एकान्तवास की इच्छा उत्पन्न हुई, तब उन्होंने नारदमुनिजी का कथन सुनकर इस वन में निवास करने का निश्‍चय किया और इसीलिए विष्णु से इजाज़त मॉंगी। विष्णु ने शिवजी को वहॉं हमेशा के लिए निवास करने की बिनती की।

इस सुन्दर स्थान के वर्णन को शिवजी से सुनने के बाद उमाजी ने भी यहॉं आने का निश्‍चय किया और ग्वालिन के रुप में उमाजी इस स्थान में शिवोपासना करने लगी। इस वन में रहनेवाले कृत्ति और वास ये दो राक्षस ग्वालिन के रुप में तपस्या करनेवाली उमाजी को परेशान करने लगे। तब उमाजी ने उनका संहार किया। लेकिन इसके बाद उन्हें बहुत प्यास लगी और उनकी प्यास बुझाने के लिए शिवजी ने एक सरोवर का निर्माण किया, जो ‘बिन्दुसागर’ नाम से जाना जाने लगा।

उत्कलखंड में भुवनेश्‍वर के संदर्भ में एक कथा है। मालवाधिपति इन्द्रद्युम्न राजा ने एकाम्रवन में शिव की उपासना की, जिसके फलस्वरुप राजा को पुरी के जगन्नाथजी के दर्शन हुए। इसीलिए पहले भुवनेश्‍वर का दर्शन करने का संकेत रुढ हुआ। इस संकेत के कारण भुवनेश्‍वर को मूलक्षेत्र या आदिक्षेत्र माना जाता है।

पूर्व में जिस बिन्दुसागर की कथा हमने देखी, उस सरोवर को पवित्र माना जाता है। पर्वकाल में उसमें स्नान करना बहुत ही महत्त्वपूर्व माना जाता है। बिन्दुसागर में हर एक पवित्र नदी के जल की एक-एक बूँद के होने के कारण उसे पवित्र मानते हैं।

पुरी, कोणार्क और भुवनेश्‍वर ये तीन स्थान भारतीय शिल्पकला के उत्कृष्ट आविष्कार के स्थान हैं। यहॉं के मंदिरों की रचना और निर्माण में जगह-जगह शिल्पकला का आविष्कार प्रतीत होता है। भुवनेश्‍वर तो मंदिरों का शहर होने के कारण वहॉं के मंदिरों की शिल्पकला का उत्कृष्ट उदाहरण होना, यह स्वाभाविक बात है।

भुवनेश्‍वर का सबसे विख्यात और मुख्य मंदिर है, लिंगराज मंदिर। इस मंदिर के अलावा राजराणी मंदिर, मुक्तेश्‍वर मंदिर, परशुरामेश्‍वर मंदिर, शत्रुघ्नेश्‍वर मंदिर, केदारेश्‍वर मंदिर, स्वर्णजालेश्‍वर मंदिर, अनंत वासुदेव मंदिर, ब्रह्मेश्‍वर मंदिर, वाकेश्‍वर मंदिर, कपिलेश्‍वर मंदिर, सिद्धेश्‍वर मंदिर इस तरह से कई मंदिर यहॉं है।

मंदिरों के अलावा भुवनेश्‍वर के आसपास के इलाक़े में कुल ९ जलतीर्थ हैं। उनके नाम इस तरह हैं बिंदुसरोवर, कोटितीर्थ, पापविनाशीतीर्थ, अशोककुंड, अलाबुतीर्थ, गंगा-यमुनातीर्थ, मेघतीर्थ, ब्रह्मकुंड और देवीपापहरातीर्थ।

तीर्थ और मंदिर इनके कारण ही भुवनेश्‍वर यह तीर्थस्थान माना जाता है।

भारत के हर एक प्रान्त में मंदिरों की रचना भिन्न-भिन्न रहती है। भुवनेश्‍वर के इन मंदिरों की रचना भी विशेषतायुक्त है। मंदिरों के छायाचित्रों को देखने से भी इस रचनाविशेषता को हम समझ सकते हैं।

इन मंदिरों के शिखर एकदम से शंकु के आकार के नहीं हैं, बल्कि वे धीरे-धीरे छोटे आकार के होते जाते हैं और ऊपरी छोर के स्थान पर वे मुडे हुए हैं। इस शिखर के कईं आड़े विभाग बनाये गये हैं। शिखर के ऊपरी ओर के भीतर प्रविष्ट हुए विभाग को ‘कंठ’ कहते है। जिस तरह कंठ पर मस्तक रहता है और मस्तक गोलाकार होता है। मस्तक की रचना में सबसे पहले आमलकशिला रहती है, ऊसपर छत्र, उसपर कलश और सबसे ऊपर उस देवता का ध्वज और आयुध रहता है। इस विशेषतापूर्ण रचना के साथ-साथ मंदिरों के निर्माण में कलाकौशल, ऩक़्क़ाशियॉं भी है और साथ ही कई घटनाओं को मूर्तियों के माध्यम के द्वारा शिल्पांकित किया गया है।

‘त्रिभुवनेश्‍वर लिंगराज का मंदिर’ यह इन मंदिरों में से लगभग १००० वर्ष पुराना मंदिर है। केसरी वंश के राजा जजति केसरी ने इसवी ११वी सदी में इस मंदिर का निर्माण किया, ऐसा माना जाता है। जजति केसरी राजा अपनी राजधानी को जाजपुर से भुवनेश्‍वर ले आया।

५५ मीटर्स उँचे इस मंदिर को पूर्व, पश्‍चिम और दक्षिण इन दिशाओं में प्रवेशद्वार है। इस मंदिर में चार विभाग हैं – मुख्य मंदिर, यज्ञशाला, भोगमंडप और नाट्यशाला।

इस मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू शिवलिंग है। इस शिवलिंग का व्यास आठ फीट और उँचाई आठ इंच है। उत्तर दिशा में शंकु के आकार को धारण करनेवाली जलहरी शिवलिंग के चहूँ ओर स्थित है। इस लिंग को हरिहरात्मक माना जाता है और उसे बिल्वपत्र एवं तुलसीपत्र दोनों अर्पण किये जाते हैं। भाविक स्वयं गर्भगृह में जाकर शिवलिंग की पूजा कर सकते हैं।

५५ मीटर्स उँचे इस मंदिर के हर एक इंच इंच के हिस्से पर कलाकौशल विद्यमान है। त्रिभुवनेश्‍वर लिंगराज के कारण ही इस शहर को भुवनेश्‍वर यह नाम प्राप्त हुआ।

भुवनेश्‍वर के इन मंदिरों की सूचि में एक विशेष मंदिर ऐसा है, जिसमें आज की तारीख में तो कोई मूर्ति नहीं है। ‘राजरानी मंदिर’ इस नाम से यह मंदिर जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण जिस पीताभ वर्ण के पाषाण से किया गया है, उस पाषाण को स्थानीय लोग ‘राजरानिया’ कहते हैं। इसीलिए इस मंदिर को ‘राजरानी’ नाम प्राप्त हुआ होगा। पहले इस मंदिर का नाम इन्द्रेश्‍वर था।

भुवनेश्‍वर के मुक्तेश्‍वर मंदिर की गणना भारत के गिनेचुने सर्वोत्तम मंदिरों में होती है। आसपास की मंदिरों की तुलना में यदि यह मंदिर छोटा है, फिर भी यह शिल्पकला का एक उत्तम नमूना है।

इसवी ७वी या ८वी सदी में बने परशुरामेश्वर मंदिर की रचना सीधी-साधी है। लेकिन ओरीसा के इसके बाद के मंदिर इसी शैली के अनुसार बनाए गएँ।

ओड़िसी यह ओरीसा की विशेषतापूर्ण नृत्यशैली। इस नृत्यकला को मंदिरस्थित नृत्यमण्डपों में प्रस्तुत किया जाता था। खारवेल राजा ने हाथीगुफा के शिलालेख में इस नृत्यकला का उल्लेख किया है।

उदयगिरी और खण्डगिरी इन दो पहड़ियों पर जैन काल की गुफाएँ हैं, जहॉं खारवेल राजा के शिलालेख को जहॉं अंकित किया गया है, वह हाथीगुफा भी है।

कलिंग साम्राज्य पर आक्रमण करनेवाले सम्राट अशोक ने कलिंग की जनता के लिए पत्थरों पर अंकित किये हुए आज्ञापत्र धौलगिरी में हैं।
मंदिरों की यह नगरी जब ओरीसा की राजधानी बनी, तब उत्तम नियोजन के साथ चंडीगढ़ की तरह इस शहर को बसाया गया।

कलिंग साम्राज्य की राजधानी से लेकर आज की सुनियोजित राजधानी इस प्रवास में भुवनेश्वर के मंदिरों की पार्श्वभूमि के कारण इस शहर को एक विशेष स्थान प्राप्त हुआ है।

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